भारत की सभ्यता एवं संस्कृति अति प्राचीन है। अनादि काल से यहाँ पर होने वाला मानव धर्माश्रित होता आया है। यदा-कदा मानव जीवन में घटित घटनाओं को स्मृति स्वरूप वर्ष में एक निश्चित तिथि पर मानने की परम्परा चली जो त्योहार अथवा पर्व के नाम से विदित है। इस वर्ष वैशाखी का पावन पर्व एवं अर्द्ध कुम्भी मेला श्री प्रेमनगर आश्रम, हरिद्वार में सुसम्पन्न हुआ। उपरोक्त अवसर पर ही आनन्दकन्द श्री सतपाल जी महाराज ने विशाल भक्त-समुदाय को अपने धारावाहिक प्रवचन में मानव जीवन की क्षणभंगुरता, उसका सदुपयोग एवं धर्म के मूल आध्यात्मिक ज्ञान की महत्ता को सविस्तार सरल एवं स्पष्ट भाषा में उदाहरणों सहित समझाया।
जहाँ बाहच कोलाहल एकान्त और मौन से कम होता है वहाँ मन का कोलाहल एकान्त में और प्रबल हो उठता है। इसलिए एकान्त केवल कल्पना का एकान्त बनकर रह जाता है। फिर भी लोग मृग-तृष्णा की नाईं उसके पीछे भागते हैं। ऐसी विकट परिस्थिति में मानव को क्या करना चाहिए, श्री सतपाल जी महाराज का उक्त प्रवचन मानव समाज के लिए आशा की एक किरण है। ताकि मानव मात्र वास्तविकता की ओर अग्रसर हो सके, इसी उद्देश्य को सामने रखते हुये उपरोक्त प्रवचन को पुस्तक का रूप दिया गया है।
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