धर्म तत्त्व अति गहन है। धर्म के बाहरी रूप भिन्न-भिन्न होने पर भी वह तत्त्व से एक है। उस तत्त्व के बोध को ही वास्तविक धर्म या मानव धर्म कहा जाता है। तत्त्व का बोध केवल ध्यान से ही होता है। इसलिए ध्यान धर्म की आधारशिला है। उपनिषदों में कहा है कि आत्मतत्त्व का बोध न शास्त्रों के पढ़ने से और न ही प्रवचन करने से होता है। आत्मा का बोध उसे ही होता है जिसे आत्मा स्वयं वर लेती है अर्थात जो आत्मा का आत्मा से ध्यान करता है वही आत्मज्ञान को प्राप्त करता है।
मानव धर्म एक होते हुए भी अनेक शाखाओं में समय की धारा के साथ प्रस्फुटित होता रहता है, क्योंकि उसके नामकरण किसी महापुरुष के नाम के साथ जोड़ दिए जाते हैं। बुद्ध एक ध्यानी संत थे। वे जीवन पर्यन्त जिज्ञासुओं को ध्यान की दीक्षा देते रहे, जिससे बोधि तत्त्व की प्राप्ति हो सकती है। लेकिन फिर भी उनके नाम पर जो धर्म चला वह बुद्ध धर्म कहलाने लगा। महावीर तीर्थंकर ने ध्यान के द्वारा ही अपनी आत्मा की सारी शक्तियों, अर्हताओं और क्षमताओं का विकास किया और केवल-ज्ञानी हो गए। निरंतर साधना और ध्यान के द्वारा केवली-पद को प्राप्त हो गए। उनके नाम पर जो धर्म चला उसे जैन धर्म कहने लगे। ऐसे ही ईसा मसीह ने ध्यान साधना के द्वारा जिस ईश्वर-तत्त्व को प्राप्त किया उससे वे महान हो गए लेकिन उनके नाम पर उनके शिष्यों ने एक नया धर्म चलाया जिसे ईसाई धर्म कहते हैं। वैदिक धर्म की धारा को भी अनेक ऋषियों ने और भक्तों ने अपनी ध्यान साधना से सींचा।
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