"संस्कृत वाङ्मय कोश भारतीय भाषा परिषद का सबसे महत्वपूर्ण और गरिमामय प्रकाशन है। परिषद ने अब तक के अपने सारे प्रकारानों में एक समन्वयात्मक व सांस्कृतिक दृष्टि को सामने रखा। परिषद का पहला प्रकाशन 'शतदल' भारत की विभित्र भाषाओं से संगृहीत की कविताओं का संकलन है जिनको हिन्दी के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। इसके पश्चात् भारतीय उपन्यास कथाचार और भारतीय श्रेड कहानियां इसी दृष्टि को आगे बढ़ाने वाली प्रशस्त रचनाएं सिद्ध हुई। कजर और तेलुगु में अनूदित वचनोद्यान" और "विश्वम्भरा" इसी परम्परा के अंतर्गत है।
प्रस्तुत प्रकाशन "संस्कृत वाङ्मय कोश सुरभारती संस्कृत में प्रतिबिंबित भारतीय साहित्य, संस्कृति दर्शन और मौलिक चिंतन को राष्ट्र वाणी हिन्दी के माध्यम से प्रस्तुत करनेवाली विशिष्ट कृति है। संस्कृत वाड्मय की सर्जना में भारत के सभी प्राप्नों का स्मरणीय तथा गृहणीय अवदान रहा है। इसलिए सच्चे अर्थों में संस्कृत सर्वभारतीय भाषा है। संस्कृत काङ्मय कितना प्राधीन है, उतना ही किराए है। इस विशालकाय वाड्मय का साधारण जिज्ञासुओं के लिए एक विवरणासक प्रप प्रकाशित करने का विचार सन् 1979 में परिषद के सामने आया। फिर योजना बनी। पर योजना को कार्यान्वित करने के लिए एक ऐसे विद्वान को आवश्यकता थी जो संस्कृत साहित्य की प्रायः सभी विधाओं के मर्मज्ञ हो, सम्पादन कार्य में कुशल हे. संकलन की प्रक्रिया में कर्मड हो और साथ ही निष्ठावान् भी हों। जब ऐसे सुयोग्य व्यक्ति की खोज हुई तो विभित्र सूत्रों से एक ही मनीषी का नाम परिषद के समक्ष आया और वह है डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर।
परिषद पर वाग्देवों को जितनी कृपा है, उतना ही सेह उस देवी के वरद पुत्र डॉ. वर्णेकर का रहा। पिछले सात वर्षों से वे इस कार्य में सिंतर लगे रहे और ऋषितुल्य दीक्षा से उन्होंने इस कार्य को सुचारु रूप से सम्पन किया। उन्होंने यह सारा कार्य आम साधना के रूप में किया है और इसके लिए आर्थिक अर्घ्य के रूप में परिषद से कुछ भी नहीं लिया। यह परिषद का सौभाग्य है कि इतनी प्रशस्त कुति के लिए डॉ. वर्णेकर जैसे योग्य कृतिकार की निष्काम सेवा उपलब्ध हो सकी। इस गौरवपूर्ण प्रकाशन को सुरुचिपूर्ण समाज के सामने प्रस्तुत करते हुए भारतीय भाषा परिषद अपने को गौरवान्वित अनुभव करती है।
प्रस्तावना सन् १९७९ जुलाई में नागपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष पद से अवकाश प्राप्त करने के बाद, पारिवारिक सुविधा के निमित्त, मेरा निवास बंगलोर में था। सेवानिवृत्ति के कारण मिले हुए अवकाश में अपने निजी लेखों के पुनर्मुद्रण की दृष्टि से संपादन अथवा पुनलेखन करना, संगीत का अपूर्ण अध्ययन पूरा करना, अधवा कुछ संकल्पित पंथों का लिखना प्रारंभ करना आदि विचार मेरे मन में चल रहे थे।
इसी अवधि में एक दिन मेरे परम मित्र डॉ. प्रभाकर माधवे जी का कलकता की भारतीय भाषा परिषद की और में एक पत्र मिला जिसमें परिषद द्वारा संकल्पित संस्कृत बायकोश का निर्माण करने की कुछ योजना उन्होंने निवेदन की थी और इस निमिन कुछ संस्कृतज्ञ विद्वानों को एक अनौपचारिक बैठक भी परिषद के कार्यालय में आयोजित करने का विचार निवेदित किया था। इसी संबंध में हमारे बीच कुछ पर हुआ जिसमें मैंने यह भारी दायित्व स्वीकारने में अपने असमर्थता उन्हें निवेदित की थी। फिर भी संस्कृत सेवा के मेरे अपने व्रत के अनुकूल यह प्रकल्प होने के कारण कलकते में आयोजित बैठक में मैं उपस्थित रहा।
भारतीय भाषा परिषद के संबंध में मुझे कुछ भी जानकारी नहीं थी। कलकते में परिषद का सुंदर और मुज्यस्थित भवन इस बैठक के निमित्त पहली बार देखा। गर्वश्री परमानंद चूड़ीवाल, हलमिया डॉ. प्रतिभा अपवाल इत्यादि विद्याप्रेमी कार्यकर्ताओं से चर्चा के निमित्त परिचय हुआ। सभी सज्जनों ने संकल्पित "संस्कृत वाड्मय कोश" के संपादक कर संपूर्ण दायित्व मुझ पर मौपने का निर्णय लिया। इस बैठक में आने के पूर्व मेरे अपने जो संकल्प चल रहे थे, उन्हें कुण्ठित करने वाला यह नया भारी दायित भारतीय भाषा परिषद के संबंध में मुझे कुछ भी जानकारी नहीं थी। कलकते में परिषद का सुंदर और मुज्यस्थित भवन इस बैठक के निमित्त पहली बार देखा। गर्वश्री परमानंद चूड़ीवाल, हलमिया डॉ. प्रतिभा अपवाल इत्यादि विद्याप्रेमी कार्यकर्ताओं से चर्चा के निमित्त परिचय हुआ। सभी सज्जनों ने संकल्पित "संस्कृत वाड्मय कोश" के संपादक कर संपूर्ण दायित्व मुझ पर मौपने का निर्णय लिया। इस बैठक में आने के पूर्व मेरे अपने जो संकल्प चल रहे थे, उन्हें कुण्ठित करने वाला यह नया भारी दायित्व, जिसका मुझे कुछ भी अनुभव नहीं था, सीकारने में मैंने अपनी ओर से कुछ अनुसुकता बताई। मेरी सूचना के अनुसार संपादन में महाय्यक वा काम, वाराणसी के मेरे मित्र पं. नरहर गोविन्द बैनापुरकर जो उस बैठक में आमंत्रणानुसार उपस्थित थे, पर सौपने कर तथा संस्कृत वाड्मय कोश कर कार्यालय वाराणसी में रखने का विचार मान्य हुआ। वाराणसी में इस प्रकार के कार्य के लिए आवश्यक मनुष्यबल तथा अन्य सभी प्रकार का महाय मिलने की संभावना अधिक मात्रा में हो सकती है, यह सोचकर मैंने यह सुझाव परिषद के प्रमुख कार्यकर्ताओं को प्रस्तुत किया था। इस कार्य में यथावश्यक मार्गदर्शन तथा सहयोग देने के लिए, यथावसर वाराणसी में निवास करते कर मेरा विचार भी सभा में मंजूर हुआ। मेरी दृष्टि से कोशकार्य कर मेरा वैयक्तिक भार, इस योजना की स्वीकृति से कुछ हलका सा हो गया था।
हमारी यह योजना काशी में सफल नहीं हो पाई। 8-10 महीनों का अवसर बीत चुकर। परिषद की ओर से दूसरी बैठक हुई जिसमें काशी का कार्यालय बंद करने का और मेरा स्थायी निवास नागपुर में होने के कारण, नागपुर में इस कार्य करपुर हरिओम् करने का निर्णय हमे लेना पड़ा।
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