पुस्तक के विषय में
दिगम्बरत्व और दिगम्बरमुनि
प्रस्तुत पुस्तक में दिगम्बरत्व के समर्थन में प्राचीन शास्त्रों के उल्लेखों और शिलालेखों तथा विदेशी यात्रियों के यात्रा-विवरणों में से साक्ष्यों का संग्रह कर बड़ी गम्भीर खोज के साथ बाबू कामता प्रसाद जैन द्वारा लिखित यह पुस्तक पहली बार सन् 1932 में प्रकाशित हुई थी ।
इसमें दिगम्बरत्व के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक सत्य का प्रामाणिक विवेचन है । साथ ही, हरेक धर्म के मान्य ग्रन्थों से, चाहे वह वैदिक धर्म हो, ईसाई अथवा इस्लाम धर्म हो-इस विषय को पुष्ट किया गया है। क़ानून की दृष्टि से भी दिगम्बरत्व अव्यवहार्य नहीं है । इस बात के समर्थन में सुयोग्य लेखक ने किसी बात की कमी नहीं रखी ।
दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि विषयक विवेचना में यह कृति हर दृष्टि से आज भी उतनी ही प्रामाणिक और उपयोगी है। भारतीय ज्ञानपीठ को इस दुर्लभ कृति के प्रकाशन पर प्रसन्नता है ।
लेखक के विषय में
बाबू कामताप्रसाद जैन का जन्म 3 मई 1901 को कैपबेलपुर (आजकल पाकिस्तान) में हुआ था, जहाँ दूर-दूर तक जैन धर्मानुरूप वातावरण नहीं था, फिर भी उनकी माता श्री ने जैनधर्म की विचारधारा, सिद्धान्त और संस्कारों की उन पर अमिट छाप छोड़ी ।
कामताप्रसाद जी की बचपन की शिक्षा हैदराबाद (सिन्ध) में नवलराम हीराचन्द एकेडमी में हुई। उनकी यह पारम्परिक शिक्षा आरम्भिक ही रही, फिर भी उन्होंने अपने स्वाध्याय से धीरे-धीरे हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, अँग्रेजी तथा उर्दू भाषाओं पर असाधारण अधिकार प्राप्त कर लिया था । यही कारण है कि आगे चलकर अनेक विश्वविद्यालयों ने उनकी प्रतिभा का मूल्यांकन कर उन्हें पी-एच. डी. की मानद उपाधि से सम्मानित किया ।
बाबू कामताप्रसाद ने अपने जीवन में जैनधर्म से सम्बन्धित अनेक क्र-थों की रचना की । प्रमुख हैं - जैन धर्म का सी क्षप्त इतिहास, भगवान महावीर और बुद्ध, आदितीर्थंकर भगवान ऋषभदेव, गिरनार गौरव, अहिंसा और उसका विश्वव्यापी प्रभाव, Religion of Tirthankaras, Some Historical Jain Kings and Heroes, Mahavira and Buddha। जैनसिद्धान्तभास्कर, दैनिक सुदर्शन, वीर, अहिंसा वाणी और The Voice of Ahimsa के सम्पादक भी रहे । जैन धर्म-दर्शन और साहित्य पर उनके निर्भीक एवं सप्रमाण ज्ञानवर्द्धक सम्पादकीय उल्लेखनीय हैं ।
सन् 1964 में उनका देहावसान हुआ ।
भूमिका
मंगलमय मंगलकरण वीतराग विज्ञान ।
नमो ताहि जातें भये अरहन्तादि महान ।।
साधुओं के लिए दिगम्बरत्व आवश्यकीय है या अनिवार्य? यदि आवश्यकीय है तब तो वह त्यागा भी जा सकता है। ऐसी बहुत सी वस्तुएँ हैं चाहे वे सांसारिक न भी हों और आत्मोन्नति से ही सम्बन्ध रखने वाली क्यों न हों, किन्तु यदि उनका अस्तित्व इसकी कोटि में है तब तो उनका परिहार भी किया जा सकता है; क्योंकि ऐसा करने से मार्ग में कोई रुकावट नहीं आती । किसी एक उपयोगी शास्त्र को ही ले लीजिए । उसका अस्तित्व साधुओं के लिए अवश्य आवश्यकीय है, किन्तु उसका यह भाव कदापि नहीं कि उसके अभाव से उनके साधुत्व में भी बाधा आती है । साधुओं के लिए दिगम्बरत्व यदि अनिवार्य है और उसके अभाव से उनके साधुत्व में ही बाधा उपस्थित होती है तो वह कौन-सी युक्ति है जो कि मनुष्य के मस्तिष्क को इस परिणाम तक ले जाती है । यही एक बात है जिसके हल करने की आवश्यकता है और जिसके हल हो जाने से उक्त विषय की समस्त अड़चनें दूर हो जाती हैं ।
साधु शब्द का अर्थ 'साधनोतीति साधु:' अर्थात् जो सिद्ध करता है वह साधु है ।
साधु शब्द जिस धातु (Verb) से बना है वह अकर्मक (Intransitive) है; अत: उसके कर्ता की क्रिया के आश्रय के हेतु किसी अन्य पदार्थ का अस्तित्व आवश्यकीय नहीं । ऐसी अवस्था में स्पष्ट है कि वह आत्मा, जो कि साधु शब्द का वाच्य है या जो उस अवस्था को पहुँच चुका है जिस किसी को सिद्ध करता है वह ऐसी वस्तु है जिसका अस्तित्व कि उससे भिन्न नहीं । दूसरे शब्दों में, उसको कहना चाहें तो यों भी कह सकते हैं कि साधु के सिद्ध करने योग्य वस्तु उसके गुण ही हैं । इसी प्रकार मुनि आदिक शब्द भी इसी बात का समर्थन करते हैं । ऐसी अवस्था में जब कि यह स्पष्ट हो जाता है कि साधु उसे कहते हैं कि जो अपने गुणों को सिद्ध करता हो; वे गुण जो साधु के हैं या जिनको कि साधु सिद्ध करता है, कौन से हैं, इस प्रश्न का होना एक स्वाभाविक बात है ।
साधु जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है, कोई एक भिन्न पदार्थ नहीं, किन्तु आत्मा की एक अवस्था विशेष का नाम ही साधु है; अत: साधु के गुणों से तात्पर्य यहाँ आत्मिक गुणों से ही है। यदि स्थूल दृष्टि से कहा जाय तो यों कह सकते हैं कि गुण उसे कहते हैं जो कि हमेशा और हर हिस्से में रहें-तथा जिसके अस्तित्व के हेतु किसी अन्य पदार्थ की आवश्यकता न हो; ऐसी बातें जिनका अस्तित्व आत्मा में उपर्युक्त प्रकार से मौजूद है ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति आदिक हैं। आत्मा की ऐसी कोई अवस्था या प्रदेश नहीं जहाँ कि ज्ञान गुण का अस्तित्व न हो। जिस प्रकार शरीर के प्रत्येक हिस्से में जब तक कि आत्मा का अस्तित्व उसमें रहता है ज्ञान का कार्य अनुभव में आता है, उस ही तरह उसकी हर अवस्था में चाहे वह दिन से सम्बन्ध रखनेवाली हो या रात से, सोती हुई अवस्था की हो या जागती हुई अवस्था की, जाग्रत अवस्था में तो ज्ञान के अनुभव से किसी को शंका का स्थान ही नहीं । अब रह जाती है निद्रितावस्था, इसके सम्बन्ध में बात यह है कि निद्रितावस्था में ज्ञान का अभाव नहीं होता, किन्तु शरीर पर निद्रा का इस प्रकार का प्रभाव पड़ जाता है कि जिससे वह जाग्रत अवस्था की भाँति अनुभव में नहीं होता । निद्रा की अवस्था ठीक ऐसी होती है जैसी कि क्लोरोफ़ॉर्म के नशे की । जिस प्रकार क्लोरोफ़ॉर्म शरीर के अवयवों पर इस प्रकार का प्रभाव करता है कि वे ज्ञान के उपयोग रूप होने में सहायक नहीं हो सकते, उसी प्रकार के उपयोग रूप होने में सहायक नहीं हो सकते, उसी प्रकार निद्रा भी । यदि ऐसा होता कि निद्रितावस्था में ज्ञान न रहता तो निद्रा में न्यूनाधिकता का सद्भाव ही कैसे मालूम होता ' शास्त्रकारों ने ऐसे ज्ञान को लब्धि रूप कहा है तथा उसको जो कि स्पष्ट रूप से अनुभव में आता है उपयोग रूप । जिस प्रकार कि ज्ञान का अस्तित्व आत्मा में अबाधित है उसी प्रकार उसका कारणों की अपेक्षा का न रखना भी । यदि इसको कारणों की आवश्यकता होती तो उसका सर्वथा निर्बाधित अस्तित्व आत्मा में न होता, किन्तु तब तब ही होता, जब जब कि उसके कारण मिलते । किसी वस्तु का अस्तित्व और उसमें न्यूनाधिकता में दो बातें हैं । अत: ज्ञान में न्यूनाधिकता का होना उसके निर्बाधिक अस्तित्व पर कुछ भी प्रभाव नहीं रख सकता । यह ज्ञान जिसका कि आत्मा में निर्बाध रूप से अस्तित्व सर्वदा से रहता है एक पूर्ण रूप है । इसका पूर्ण निजी स्वरूप ऐसा है कि जिसमें जगत् के समस्त पदार्थ प्रतिभासित होते हैं । यही एक गुण है जिसके पूर्ण शुद्ध होने पर आत्मा सर्वज्ञ होता है ।
किसी गुण का किसी रूप होना और उसका वर्तमान में तरु में दृष्टिगोचर न होना, यह कोई विरुद्ध बात नहीं । यह सम्भव है कि उसके उस रूप में कोर्ट बाधक हो और उसका उस रूप में अनुभव न हो सकता हो । एक नहीं ऐसी अनेक वस्तुएँ हैं जो कि हमारे उपर्युक्त भाव का समर्थन करती हें । स्वर्णपाषाण को ही ले लीजिए उसमें स्वर्ण रूप विद्यमान है, किन्तु उसका प्रतिभास अन्य शुद्ध स्वर्ण की भाँति नहीं होता, यही अवस्था ज्ञान की है । ज्ञान को सर्वज्ञ रूप सिद्ध करनेवाली अनेक युक्तियों में से एक अति सरल का समावेश हम यहाँ किये देते हैं । रेखागणित का यह एक अति सरल सिद्धान्त है कि तीन लाइनें हैं तथा पहली लाइन दूसरी से और दूसरी तीसरी के बराबर है तो उससे यह स्पष्ट है कि पहली और तीसरी लाइनें बराबर हैं । ठीक इस ही प्रकार जगत् में कोई ऐसा पदार्थ नहीं जो कि ज्ञेय न हो याने जो किसी से भी जाने जाने योग्य न हो । यहाँ के पदार्थों को हम जानते हैं या जान सकते हैं तो यूरोप के पदार्थों को वहाँ के । इस ही प्रकार अन्य स्थानों के पदार्थो को अन्य स्थानों के । यही बात भूत और भविष्यत् पदार्थों के सम्बन्ध में है । यदि वर्तमान के पदार्थों को वर्तमान के जीव जानते हैं तो भूत और भविष्यत् के पदार्थों को भूत और भविष्यत् के जीव । वे जीव जिनके ज्ञेय में जगत् के सब पदार्थ हैं समगुण हैं । ऐसी अवस्था में एक जीव जगत् के सब पदार्थों को जान सकता है, और इस ही का नाम सब पदार्थों के ज्ञान की शक्ति का रखना है । जिस प्रकार कि आत्मा का एक ज्ञान गुण है और वह पूर्णतामय है, उसी प्रकार सुख भीं-सुख से तात्पर्य निराकुलता से है । निराकुलता एक आत्मिक गुण है; इसका बाहरी वस्तुओं से कोई सम्बन्ध नहीं । यह सम्भव है कि हमारे मनोबल के कारण बाहरी पदार्थों का असर हम पर पड़ता हो और उसके कारण हम आकुलता महसूस करने लगें तथा उस विषय के मिलने से हमारी वह आकुलता दूर हो जाये । किन्तु इसका यह मतलब कदापि नहीं हो सकता कि वह निराकुलता विषयों से आयी है । आकुलता और निराकुलता, ये तो दो आत्मिक अवस्थाएँ है । यह दूसरी बात है कि पर-पदार्थ की मौजूदगी और गैर मौजूदगी इनमें निमित्त होती है । किन्तु वास्तव में हैं तो वे आत्मिक अवस्थाएँ ही । जहाँ मन की प्रबलता होती है वहाँ निराकुलता के हेतु पर-पदार्थ का अस्तित्व आवश्यक भी नहीं है तथा जब कि निराकुलता ही सुख है तो यह तो स्वयं स्पष्ट हो जाता है कि वह आत्मिक निजी सम्पत्ति है । इसका शुद्ध रूप भी पूर्णतामय है । जब ज्ञानादिक आत्मा की निजी सम्पत्ति पूर्ण स्वरूप सिद्ध हो जाती है तब अनन्त शक्ति के समर्थन हेतु किसी अन्य युक्ति की आवश्यकता ही नहीं रहती । सवज्ञ में स्वरूप ज्ञान का अस्तित्व ही अनन्त शक्ति के सद्भाव को सिद्ध करता है । यदि ऐसा न होता तो पूर्ण ज्ञान का सद्भाव भी अशक्य था । ज्ञान तो क्या कोई भी ऐसी चीज नहीं जिसका अस्तित्व तदनुकूल बलहीन में हो ।
जिस प्रकार हमें उपर्युक्त आत्मिक गुणों के समर्थन में प्रमाण मिलते हैं, उसी प्रकार इस बात का अनुभव भी कि वे गुण हमारी आत्मा में पूर्ण रूप में नहीं । साथ ही कुछ ऐसी बातें हैं जो कि आत्मिक गुण नहीं, जैसे राग-द्वेष, मोह आदि । इनके आत्मिक गुण न होने में यही एक दलील पर्याप्त है कि ये सर्वदा स्थायी और निष्कारणक नहीं । ऐसी अवस्था में याने एक तरफ़ तो ज्ञानादिक के आत्मिक गुण और उनके पूर्ण रूप में प्रमाणों का मिलना और दूसरी तरफ़ उनके पूर्ण रूप का अनुभव न होना तथा आत्मा में रागादिक के मिलने से एक जटिल प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि ऐसा क्यों?
जिस प्रकार कि राग, द्वेष, मोह, आकुलता आदि आत्मिक गुण नहीं, क्योंकि उनका अस्तित्व आत्मा में हमेशा नहीं रहता, उसी प्रकार ये अनात्मिक भी नहीं, क्योंकि इनका आत्मा में ही अनुभव होता है; इसी प्रकार इनमें न्यूनाधिकता भी प्रतीत होती है । इससे यही परिणाम निकलता है कि आत्मातिरिक्त कोई अन्य ऐसी वस्तु है जिसके प्रभाव से आत्मिक गुणों की ही यह अवस्था हो जाती है और उसकी कमोबेशी से ही रागादिक में कमोबेशी रहती है । इसी अनात्मिक वस्तु को जैन दार्शनिकों ने कर्म संज्ञा दी है ।
पुद्गल (matter) में अनेक शक्तियाँ हैं । उन्हीं शक्तियों में से एक आत्मिक गुणों को विकारी करने की भी है । शराब का नशा और क्लोरोफॉर्म का प्रभाव इसके जीते जागते दृष्टान्त हैं । जिस प्रकार कि पुद्गल की अन्य शक्तियाँ पुद्गल की हर एक अवस्था में प्रकट नहीं होतीं, उनके प्रकाश के लिए पुद्गल (matter) की खास-खास अवस्थाओं की आवश्यकता है, इसी प्रकार उस शक्ति के विकास के लिए भी । वह पुद्गल स्कन्ध, जो इस शक्ति के विकास योग्य हो जाता है, जैन दार्शनिकों ने उसको कार्माणस्कन्ध संज्ञा दी है ।
जिस तरह आत्मा में रागादिक का अस्तित्व अर्थात् कर्मों का सम्बन्ध आत्मा से सिद्ध होता है, उसी प्रकार कर्मों के अस्तित्व में भी उसके कारणों का भी । वे कारण जो कि पुद्गल के कार्माणस्कन्ध को कर्म रूप परिणत होने में निमित्त होते हैं, आत्मिक ही होने चाहिए; क्योंकि कर्मों का सम्बन्ध और उनका फल आत्मा में ही होता है । आत्मिक होते हुए भी वे आत्मा के शुद्ध स्वरूप नहीं, यदि वे ऐसे होते तो वे बन्ध के कारण ही क्यों होते? दूसरे, उनके निमित्त से जिसका सम्बन्ध आत्मा से होता है वह उस पर विकारी प्रभाव नहीं कर सकता । इससे स्पष्ट है कि वे आत्मिक भाव, जो कि कार्माणस्कन्ध को कर्म रूप परिणत करते हैं, अवश्य विकारी हैं । इसी प्रकार आगे- आगे विचार करने से विकारी भाव और कर्मों का सम्बन्ध आत्मा से अनादि प्रमाणित होता है । यह बात अवश्य है कि अनादि से अब तक के विकारी भाव और कर्म एक नहीं किन्तु भिन्न-भिन्न हैं । किन्तु इसका यह भाव तो कदापि नहीं और न हो ही सकता है कि उनका सम्बन्ध आत्मा से अनादि नहीं है ।
जिस प्रकार उस (matter) पर, जिसकी कि फ़ोनोग्राफ़ की प्लेटें बनती हैं, शब्दों के अनुसार ही फल होता है और अवसर पड़ने पर वह तदनुरूप ही शब्द करता है, वैसे ही आत्मा के विकारी भावों का कार्माणस्कन्ध पर । जिस समय कर्म उदय में आता है वह फोनोग्राफ की जेट की तरह तदनुरूप ही प्रभाव आत्मा पर करता है ।
जिस प्रकार की आत्मिक विकारी भावों से पुद्गलों का कर्म रूप होना अनिवार्य है, उसी प्रकार कर्मो के उदय से आत्मा का विकारी होना नहीं । इसमें दो कारण हैं-एक तो यह कि कर्म पुद्गल रूप हैं, अत: उनकी फल शक्ति में कमी भी की जा सकती है; दूसरी बात यह है कि उस समय आत्मा प्रबल हुई तो उसके असर को अपने ऊपर न भी होने दे । उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि जीव के राग, द्वेष और मोह आदि ही विकारी भाव हैं, जिनके कारण जीव इस संसार-चक्र में पड़ रहा है और उसे अनेक यातनाएँ भोगनी पड़ रही हैं; और यही मुख्य बात है जिसके फलस्वरूप यह जीव जीवातिरिक्त पदार्थों में भी राग और द्वेष करता है ।
जब तक जीव में इस प्रकार के परिणाम होते रहेंगे तब तक उसका सम्बन्ध भी कर्मों से अवश्य होता रहेगा । अत: उन जीवों को, जो इस चक्कर से बचना चाहते हैं, यह अनिवार्य है कि वे राग-द्वेषादिक का बिलकुल अभाव करें ।
यह बात सत्य है कि बाह्य पदार्थों का कमजोर आत्माओं पर प्रभाव पड़ता है, तथा यह भी सत्य है कि बिना दूसरे पर-पदार्थों के प्रति राग और द्वेष से जीव का सम्बन्ध रहना भी असम्भव है। अत: राग और द्वेषादिक का अभाव धीरे-धीरे या एकदम राग और द्वेषादिक के कारण एवं उनके कार्य बाह्य पदार्थों के सम्बन्ध के त्याग से हो सकता है । इसी बात को लेकर जब से मनुष्य गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है इस बात का पूर्ण ध्यान रखता है । ध्यान ही नहीं, बल्कि उसके लिए सतत प्रयत्न भी करता है कि वह राग और द्वेष का सम्बन्ध कम करता जाय और जब उसकी आत्मा प्रबल हो जाती है, वह सांसारिक सभी पदार्थों को यहाँ तक कि वस्त्र भी त्याज्य समझता है, और उनका त्याग कर देता है और आत्मध्यान में रहता हुआ कर्मों के नाश में लग्न हो जाता है ।
वस्त्र-त्याग से भाव केवल बाहरी वस्त्र-त्याग से ही नहीं हे । ऐसे त्याग को तो जैनदर्शन त्याग ही नहीं कहता, किन्तु वस्त्र-त्याग के साथ-हीं-साथ उनका विचार तो दूर उनकी भावना का भी हृदय से निकल जाने से है । इसीलिए तो कहा जाता है कि नंगे तन के साथ नंगे मन का होना भी अनिवार्य है और इसी का नाम दिगम्बरत्व हें ।
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि यह जीव अनादिकाल से रागादिक भावों से कर्मबन्ध और उनके प्रभाव से रागादिक को करता चला आ रहा है । रागादिक के बिना बाह्य पदार्थों का सम्बन्ध आत्मा से नहीं रह सकता तथा रागादिक से कर्म- बम्ब का होना अनिवार्य है । अत: उन जीवों को जो कि इस सम्बन्ध को तोड़कर सदैव के लिए शुद्ध स्वरूपस्थ होना चाहते हैं, आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है कि रागादिक को घटाते-घटाते यहाँ तक घटा दें कि आत्मा के अतिरिक्त सब पदार्थों का त्याग उनसे हो जाय, तथा ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहते हुए आत्मिक शक्ति को इतना प्रबल करें कि आगे आनेवाले कर्मों का प्रभाव ही उन पर ना पड़े । ऐसा होने से उनकी आत्माओं से रागादिक का अभाव होगा और इससे आगे कर्मबन्ध का अभाव होगा और जो पहले बँधे हुए कर्म हैं वे भी नष्ट होते जाएँगे । इससे एक समय ऐसा आएगा कि जब उनकी आत्माएँ कर्म के सम्बन्ध से बिलकुल मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेंगी ।
जिस प्रकार किसी विषय सम्बन्धी साधारण ज्ञान के बिना तद्विषयक गम्भीर ज्ञान नहीं हो सकता, मनुष्य में अल्पशक्ति के बिना आये महान् शक्ति नहीं आ सकती. इसी तरह स्थूलराग-परिहार के बिना सूक्ष्मराग का परिहार होना भी अशक्य है । आत्मातिरिक्त पर-पदार्थों से, जिनमें वस्त्र भी सम्मिलित हैं, सम्बन्ध रखनेवाला राग या वह राग, जिसके वशीभूत होकर जीव उनसे सम्बन्ध रखता है, योगियों की दृष्टि से एक स्थूलराग है, तथा यह असम्भव है कि बिना राग के भी वस्त्र आदि से सम्बन्ध रक्खा जाये । अत: उन साधुओं के लिए जो आत्मिक शुद्धि के खोजी हैं, उनके लिए वस्त्रादिक समस्त पर-पदार्थों का परित्याग अनिवार्य है ।
साधुओं के लिए अनिवार्य यह दिगम्बरत्व जिस प्रकार सैद्धान्तिक सत्य है उसी प्रकार व्यावहारिक भी है । इतिहास इसका साक्षी है । ' दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि ' नामक प्रस्तुत पुस्तक में. जिसकी कि यह भूमिका है, पुस्तक के सुयोग्य लेखक समाज के प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् बाबू कामताप्रसाद जी ने इस बात का बड़े ही गम्भीर आधारों से समर्थन किया है ।
ऐसा कोई ऐतिहासिक आधार (जिसका समावेश विद्वान् लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक में किया है) नहीं है जिससे दिगम्बरत्व का समर्थन नहीं हो ।
दिगम्बरत्व के समर्थन में प्रस्तुत पुस्तक में प्राचीन शास्त्रों के उल्लेखों एवं शिलालेख और विदेशी यात्रियों के यात्रा-विवरणों में से कुछ शब्दों का संग्रह भी बड़ी ही गम्भीर खोज के साथ किया गया है । दिगम्बरत्व सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक सत्य है, अतएव वह सर्वतन्त्र सिद्धान्त भी है । इसका स्पष्टीकरण भी हमारे सुयोग्य लेखक ने बड़े महत्व के साथ किया है । हर एक धर्म की मान्य पुस्तकों से, चाहे वे मुसलमान धर्म की हों या ईसाई धर्म की, अथवा वैदिक धर्म की, इस विषय का समर्थन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है । कानून की दृष्टि से भी दिगम्बरत्व अव्यवहार्य नहीं, इस बात के समर्थन के हेतु भी हमारे सुयोग्य लेखक ने किसी बात की कमी नहीं रक्खी । अधिक क्या, पुस्तक हर दृष्टि से परिपूर्ण है और इसके लिए श्रीयुत बाबू कामताप्रसाद जी हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं ।
अनुक्रम
5
मेरे दो शब्द
13
संकेताक्षर-सूची
15
1
दिगम्बरत्व:मनुष्य की आदर्श स्थिति
23
2
धर्म और दिगम्बरत्व
28
3
दिगम्बरत्व के आदि-प्रचारक ऋषभदेव
31
4
हिन्दू धर्म और दिगम्बरत्व
36
इस्लाम और दिगम्बरत्व
46
6
ईसाई मज़हब और दिगम्बर साधु
51
7
दिगम्बर जैन मुनि
53
8
दिगम्बर मुनि के पर्यायवाची नाम
58
9
इतिहासातीत काल में दिगम्बर मुनि
70
10
भगवान महावीर और उनके समकालीन दिगम्बर मुनि
77
11
नन्द साम्राज्य में दिगम्बर मुनि
87
12
मौर्य सम्राट- और दिगम्बर मुनि
90
सिकन्दर महान् एवं दिगम्बर मुनि
93
14
सुंग और आन्ध्र राज्यों में दिगम्बर मुनि
96
यवन छत्रप आदि राजागण तथा दिगम्बर मुनि
98
16
सम्राट् ऐल खारवेल आदि कलिंग नृप और दिगम्बर
मुनियों का उत्कर्ष
100
17
गुप्त साम्राज्य में दिगम्बर मुनि
104
18
हर्षवर्द्धन तथा ह्वेनसांग के समय में दिगम्बर मुनि
108
19
मध्यकालीन हिन्दू राज्य में दिगम्बर मुनि
112
20
भारतीय संस्कृत साहित्य में दिगम्बर मुनि
122
21
दक्षिण भारत में दिगम्बर जैन मुनि
126
22
तमिल साहित्य में दिगम्बर मुनि
145
भारतीय पुरातत्त्व और दिगम्बर मुनि
150
24
विदेशों में दिगम्बर मुनियों का विहार
175
25
मुसलमानी बादशाहत में दिगम्बर मुनि
179
26
ब्रिटिश शासनकाल में दिगम्बर मुनि
190
27
दिगम्बरत्व और आधुनिक विद्वान्
198
उपसंहार
204
परिशिष्ट
207
शब्दानुक्रमणिका
209
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