साहित्य की किसी भी विधा में औचित्य एक ऐसा जीवित तत्त्व है जो सभी महानुभावों को मान्य है। औचित्य, मर्यादा की भाँति सम्मान प्राप्त विचार भी है और सिद्धान्त भी। इसकी रक्षा प्रत्येक क्षेत्र के विद्वान् के द्वारा की जाती है, फलतः समीक्षा के सभी मापदण्डों में औचित्य तत्व अनुस्यूत है। हमने महाकवि भारवि के "किरातार्जुनीयमहाकाव्य" का औचित्य की दृष्टि से विमर्श किया है। औचित्य का पालन करने से महाकाव्य नाटकादि का प्रत्येक उपादान तथा कथानक कितना उत्कर्षाधायक हो जाता है और अनौचित्य से कैसे रसभङ्ग हो जाता है, इसी आशय का समग्रतापूर्वक विमर्श करने में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि औचित्य ही समीक्षा का परम प्रामाणिक मापदण्ड है और महाकवि भारवि का किरातार्जुनीय महाकाव्य औचित्यविचार से पूर्णरूपेण समलङ्कृत है। जहाँ तक महाकवि भारवि के किरात काव्य में औचित्य का प्रश्न है वह स्वयं भारविकी वाणी में ही द्रष्टव्य है-
स्फुटता न पदैरपाकृता,
न च नस्वीकृतमर्थगौरवम्।
रचिता पृथगर्थता सदा,
न हि सामर्थ्यमपेहितं क्वचित्।।
नाम डॉ. सुरेन्द्र शर्मा 'सुशील'
जन्मतिथि - 01.07.1958
माता श्रीमती आनन्दी देवी शर्मा
पिता - आचार्य त्रिलोकचन्द्र शर्मा शास्त्री श्रीसद्गुरुदेव - पूज्यपाद जगद्गुरु रामानन्दाचार्य, स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज, (पद्मविभूषण प्राप्त) चित्रकूट
शिक्षा- एम.ए. (संस्कृत-हिन्दी पी-एच्०डी०) साहित्यरत्न, सेवानिवृत्त संस्कृत शिक्षक- केन्द्रीय विद्यालय संगठन, नई दिल्ली अन्य - भारत के प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में धार्मिक,
साहित्यिक, सामाजिक लेख प्रकाशित। सनातन धर्म के पुरोधा-भक्तरामशरणदास, सद्गृहस्थ सन्त-भक्तरामशरणदास का लेखन।
प्रधानसम्पादक - श्रीतुलसीपीठसौरभ (मासिक)
अध्यक्ष - श्रीतुलसीमण्डल (पंजी.) गाजियाबाद (उ.प्र.)
दृश्यमान जगत् में सर्वाधिक रूप से यदि कोई वाचन-लेखन आदि व्यवहारों का जीवित तत्त्व है तो वह है- "औचित्य तत्त्व"। इसी को आचार्य क्षेमेन्द्र ने औचित्य विचार कहकर व्याख्यायित किया है। औचित्य पर अवलम्बित व्यवहार को सद्व्यवहार, रूप को सौन्दर्य, रस को आनन्दवर्धक, आचरण को सदाचरण आदि रूप में व्यवहृत किया जाता है। लोक-वेद आदि में भी प्रयुक्त उपादानों का उचित रूप से किया गया प्रयोग ही प्रशंसनीय कहा जाता है। ठीक इसी प्रकार काव्य की प्रत्येक विधा में औचित्य का साम्राज्य काव्य को लोकप्रिय, प्रसन्न, गम्भीर आदि सद्गुणों से समलंकृत करता है। फलतः औचित्य की अपेक्षा और अनौचित्य की उपेक्षा विपश्चिज्जगत् में सर्वथा मान्य है।
इसी औचित्य विचार को सिद्धान्त रूप में स्वीकार करके महाकवि भारवि के किरातार्जुनीय संस्कृत महाकाव्य पर डॉ. सुरेन्द्र शर्मा 'सुशील' जी ने व्यापकता के साथ विमर्श किया है। इनका यह ग्रन्थ जहाँ एक ओर औचित्य की अनिवार्यता की दुन्दुभि बजा रहा है वहीं दूसरी ओर किरातार्जुनीयम् के प्रणेता महाकवि भारवि की काव्यप्रतिभा, व्याकरणिक सभी उपादानों की गम्भीरता तथा उनके द्वारा प्रयुक्त लोकाचारगत औचित्यों की औचिती सिद्ध कर रहा है।
संस्कृतवाङ्मय में महाकवि भारवि अर्थगौरव के महान् कवि हैं। छन्द-अलंकार एवं रस प्रयोग में परमसिद्ध हैं। अर्थगौरव एवं औचित्य महाकवि भारवि की सर्वश्रेष्ठ पहचान है इसीलिए भारवेरर्थगौरवम् यह वचन भारवि का अभिज्ञान बना हुआ है।
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