मनुष्य स्वभावतः संवेदनशील प्राणीहै। इसे अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं, भावनाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी न किसी व्यक्ति, समूह अथवा शक्ति की अपेक्षा रहती है। शारीरिक कष्टों, मानसिक क्लेशों, तथा भौतिक विपत्तियों से जूझने में स्वयं को असमर्थ पाकर यह परमुखापेक्षी हो जाता है। अपने संगी साथियों एवं इष्ट-मित्रों की सहायता तथा प्रयत्नों के निष्फल हो जाने पर इन विपत्तियों का किसी बाह्यशक्ति अथवा शक्तियों को कारण मानकर उन शक्तियों के प्रकोप को शान्त करने का प्रयास करता है। इनको प्रसन्न करने तथा अनुकूल बनाने हेतु वही उपाय करता है तथा वही साधन प्रयोग में लाता है, जिन उपायों एवं साधनों के द्वारा अपने इष्ट मित्रों तथा समाज के शक्तिशाली वर्ग को प्रसन्न करके अपनी सहायता के लिए प्रेरित करता है, तथा प्रबलशत्रुओं के प्रकोप को शान्त करके अपने पक्ष में करने का प्रयास करता है। इन्हें दैवी शक्तियाँ कहा गया है।
कुछ ऐसी दैवी शक्तियाँ है जिन पर मनुष्य का कोई नियन्त्रण नहीं है, किन्तु वे स्वतः अपनी अन्तः प्रेरणा से संसार के कल्याण में सतत रत रहती हैं। उनमें से कुछ शक्तियाँ सर्वाधिक प्रभावशाली तथा प्रतिदिन, प्रतिक्षण हमारे जीवन के धारण, रक्षण एवं नियमन के साधन ही नहीं, अपितु इनके अनिवार्य कारण के रूप में कार्यरत प्रतीत होती हैं। इनमें सूर्य, चन्द्र, वायु, आकाश, अग्नि और जल तो प्रत्यक्ष ही हमारे उपकारक हैं। अतः इन शक्तियों को प्रसन्न रखने का प्रयास सार्वत्रिक देखा जाता है। इसका वैदिक आर्य भी कोई अपवाद नहीं है। किन्तु कभी-कभी ये शक्तियाँ मानव विरोधी कार्य भी करती हुई प्रतीत होती हैं। वायु का झंझावात, अग्नि का दावानल, जल का भयंकर विनाशकारी बाढ़ रूप धारण कर लेना आदि उनके प्रकोप के स्पष्ट लक्षण माने गये। अतः सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि और जल के देवताओं की प्रसन्नता के लिए इनकी उपासना एवं स्तुति प्रशंसा पूर्वक अपनी कामनाओं की पूर्ति की प्रार्थना की जाने लगी।
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