दुःख तन्त्र: Dukha Tantra (A Collection of Poems)

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Item Code: NAI519
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author: बोधिसत्व (Bodhisatva)
Language: Hindi
Edition: 2005
ISBN: 8126311428
Pages: 96
Cover: Hardcover
Other Details 9.0 inch X 5.5 inch
Weight 230 gm
Fully insured
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Book Description

दुःख तन्त्र

बोधिसत्व युवा पीढ़ी के उन कवियों में से एक है जिनकी कविता अपने मटरलोक से कभी विलंग नहीं हुई उनमे उनका लोकजीवन लगभग अनायास अन्तधर्वनित होता है | उन पर नागरिक जीवन के सभी दबाव और तनाव पड़ते रहे है और उनमे एक तरह की समझदारी हमेशा सक्रिय रही जिसे राजनैतिक खा जा सकता है | सौभाग्य से यह किसी किस्म की नाटकीयता या बड़बोले दिखलाऊपन  में विन्यस्त होने के बजाय आस पास पूरा पड़ोस की छवियों और स्मृतियों से अपने को चरितार्थ करती है | बोधिसत्व का नया कविता संग्रह दुःख तन्त्र उनकी कविताओं का नया विस्तार भी हैउसका अधिकांश उसके दूसरे खंडो में है जिसे नाम दिया गया है स्थापना कमला दासी की कविताएँ | यों तो हमारे समय में उजला इतना काम बचा और नज़र आता है की कविता लगभग विवश अन्धकार का पारायण करती रहती है | बोधिसत्व के दुःख का उपजीव्य है कमला दासी नमक एक देवदासी जिसमे उसकी अकस्मात भेंट होती है और फिर कवि उसके साथ कुछ समय उसके आश्रम में बीतता और उसकी आपबीती को कविता में विन्यस्त करता है | इस अर्थ में वे कमला दासी की कविताएँ नही है की वे उसके दुःख को पड़ती समझती कविताएँ है बल्कि इस अर्थ में भी की उनकी रचना प्रक्रिया में उसकी भूमिका रही है | यह ऐसी बेघरबारी की कविताएँ है जिसमे काया पर अकेलापन काई की तरह सुशोभित है और जिसमे यह पता नही है की महावर की शीशी का क्या होगा जो कभी छूट गयी कही | वह ऐसे परिसर की उपज है जिसमे मरण के बाद रोटियों की ये गन्ध पीछा करती रहती है | कविताओं का यह समुच्चय एक तरह से खण्ड खण्ड में गुंथा हुआ एक लम्बा शोकगीत है | उसमे बीच बीच में हिचकियों के साथ साथ यह प्रत्यय भी है की स्त्री को देखना इतना आसान नही जितना तारे देखना या पिंजरे देखना यह दुनिया अपने कोलाहल से भरी है जिसमे अब तो यह भी नही जानती मई की कजरी रही हु या भजन और जिसमे दूर कही बच्चो को रोता छोड़ करती हूँ भजन नाचती हूँ उसकी रुलाई के ताल पर | यहाँ आँसू और लाचिदाना दोनों का स्वाद कितना अच्छा हटा है और अगर चाहे तो कहि और जाना तो होगा अपने अंत के झाड़ झंखाड़ में भले किसी को खोजो चतुर लोग ऊपर तक लगाये बैठे है रोने की सदी आवाज़े प्रार्थना की तरह सुनी और लिखी जाती है और दुःख सर्वदा सुख के मन में रास रचाता है | यह लोक बोधिसत्व की अपनी कविता के लिए नया है | एक ऐसे समय में जब अध्यात्म और धर्म के नाम पर विराट क़दम चल रहे है यह कविता इन कदमो के पीछे दबी छुपी सचाई की उजागर करती है | एक बेहद उलझे हुए दौर में इतना करती है तो कविता अपने को नैतिक हस्तक्षेप की तरह प्रासंगिक बनती है |    






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