उम्र के जिस मुकाम पर लोगे रिटायर होकर चुक जाते है, के. .वी. शंकर अय्यर के पास नौकरियां चक्कर लगा रही है, के. .वी. मानते है की इंडिया के इकोनॉमिक 'वूम' देश की एक अरब जनता की पास खुशाली के सपने है ! दुनिया का शासन अब सरकारों के हाथ नहीं, कॉर्पोरेट कंपनियों के हाथों में है!
मल्टीनेशनल कंपनी का एक्सिक्यूटिव गुरुचरण राय के.वी. की बैरन की बिना कटे सुनता रहता है! या बीच-बीच में पहाड़ों पर क्या करने जाता है, इसकी कोई भनक के.वी. को नहीं है ! अंतत; वह कंपनी के काम से मध्यप्रदेश के किसी सोंढूर प्रान्त जाकर लापता हो जाता है! एक ब्रेक के बाद, जिसमें वह एक आई-गई खबर हो गया है, के.वी. को मिलती है उसकी डायरियाँ जिनमें लिखी बैरन का कोई तुक उन्हीं नज़र नहीं, आता !
उपन्यास के तीसरे पात्र भट्ट की नियति एक नौकरी से दूसरी नौकरी तक शहर-शहर भटकने की है! कॉर्पोरेट दुनिया के थपेड़े कहते-कहते व बीच में गुरुचरण उर्फ़ गुरु के साथ पहाड़-पहाड़ घूमता है! स्त्रियों के साथ संबंधों में गुरु क्या खोज़ता है या उसका क्या सपना हाय, या जाने बगैर गुरु के साथ भट्ट यायावरी करता जीवन के कई सत्यों से टकराता रहता है!
अलका सरावगी का यह नया उपन्यास कॉर्पोरेट इंडिया की तमाम मान्यताओं, विडम्बनाओं और धोखों से गुज़रता है! इस दुनिया के बाज़ू मे कहीं या पुराण 'पोंगापंथी' और पिछड़ा भारत है, जहाँ तीस करोड़ लोगसड़क के कुत्तों जैसी ज़िन्दगी जीते है! कॉर्पोरेट इंडियन अपने लुभावने सपनों में खोया या मान लेता है की 'ट्रिकल' डाउन इफ़ेक्ट' से नीचेवालों को देर-सवेर फायदा पहुंच ही जायेगा!
गुरुचरण का कॉर्पोरेट जगत का चोला छोड़कर सिर्फ गुरु बनकर जीने का निर्णय तथाकथित विकास की अंधी दौड़ का मौन प्रतिरोध है! गुरु के रूप में भी उसकी मृत्यु एक तरह से औपन्यासिक आत्महत्या मानी जा सकती है! जिस तरह की संवेदनात्मक दुनिया बनाने का उसका सपना है, उसकी कब्र पर कॉर्पोरेट इंडियन उग आया है , जैस्मिन भट्ट जैसे लोगो के नए सपने और नै सफलताएं है!
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