मैं रंग बिरंगे सपने जोड़ कथरी गाँठती रही... रंग बिरंगे सपनों की कतरनें बढ़ते-बढ़ते आकाश हो गई। उस आकाश का एक छोर मेरी अंगुलियों के पोरों से छू गया और मैंने उसे मुट्ठी में कसकर पकड़ लिया... शांतिनिकेतन !
यह महज डायरी नहीं मुझ जैसे अनेक उन लोगों के मन की बात है जो बढ़ती वय के बाद भी व्यवहारिकता की दौड़ में पिछड़े हुए होते हैं. .. अति संवेदशीलता विरासत के तौर पर उनकी रगों में दौड़ती है और जो कभी-कभी अपनी साफगोई के चलते, कई बार मात खाने की बेचैनी से निजात पाने के लिए यदाकदा आत्मरक्षा के तौर पर कलम का सहारा लेने की कोशिश करते हैं।
डॉ. सीमा चतुर्वेदी: डॉ. सीमा चतुर्वेदी एक शिक्षाविद और कलाकार हैं, अनका शोध कार्य 'द आर्ट मार्केट एंड इट्स इंपैक्ट ऑन क्रिएटिविटी' है, जो भारत में कला बाजार के क्रमिक विकास पर प्रकाश डालता है। उन्होंने जयपुर, बेंगलुरु, मुंबई और अहमदाबाद में अपने चित्रों की एकल प्रर्दशनियाँ की हैं। उनकी कलाकृतियां मानवीय भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं। डॉ. सीमा एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर चित्रकला विभाग, राजकिय कला महाविद्यालय कोटा, राजस्थान में कार्यरत हैं। उनके रेखाचित्रों व कविताओं का संग्रह 'लाइन एण्ड वर्ड्स' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।
इससे पहले कभी डायरी नहीं लिखी थी, इससे पहले अकेले इतने दिन घर से दूर कभी गई भी तो ना थी... दूर वो भी शान्तिनिकेतन ! बचपन से जिसके बारे में सुनकर बड़ी हुई थी और दिली तमन्ना थी कि जीवन में एक बार जरूर कवीन्द्र रविन्द्र की कर्मभूमि... उस पावन धरा को एक बार नजदीक से देखूं... उस मिट्टी को स्पर्श करूँ जिसने एक से बढ़ कर एक कला मनीषी और विद्वान दे कर देश को समृद्ध किया है, पर जानते है इस सबका केंद्र बिंदु कौन था?... कहाँ से जाना था सब मैंने?... कैसे शान्ति निकेतन के प्रति मेरी लालसा उम्र के साथ-साथ बढ़ती रही थी... सब के पीछे थे मेरे बाबा... अपने पिता को ठीक बंगालियों की तरह बाबा बुलाना... सब रविन्द्र साहित्य, शरत साहित्य और विमल मित्र के उपन्यासों का प्रभाव था जो कलकत्ता से एम. एस.डब्ल्यू करके लौटने के बाद मेरे पिता के साथ जीवन भर की थाती की तरह रह गया था। वे जब लौटे तो अपने साथ होम्योपैथी के शौक के साथ परमहंस, माँ शारदा और विवेकानंद के कट आउट भी लाये थे, जो जीवन भर उनके कमरे की दीवार पर सजे रहे। उन्होंने कभी हम भाई बहिनों पर अपने विचार थोपे नहीं... बड़े सहज तरीके से कुछ अच्छी आदतों की तरह ये सब ऐसे जीवन का हिस्सा हो गए थे जैसे जीने के लिए साँस लेना या भोजन करना ।
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