ललित निबंधों का सृजन इसलिए युनौतिपूर्ण होता है कि इसके तत्त्व मूलतः देश-काल की प्रेरणाओं से अनुबद्ध होती है। उसकी जड़ें परंपरा में होती है, प्रेरणा अपने युग में और दृष्टि भविष्य की और । त्रिकालदर्शी होना इस विधा की अपनी ख़ास विशेषता है। इस दृष्टि से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध अतुलनीय हैं।
आचार्य द्विवेदी साहित्य को संस्कृति का प्रमुख घटक मानते हैं। उनके अनुसार, 'सभ्यता समाज की बाह्य व्यवस्थाओं का नाम है; संस्कृति व्यक्ति के अन्दर के विकास का । 'भारतीय संस्कृति' में 'भारतीय' की सार्थकता विशेष है । द्विवेदी जी के अनुसार विश्व में भारत ने जो विशिष्ट योगदान किया है वही भारतीय संस्कृति है।
हिंदी गद्य-साहित्य की अन्य विधाओं की तरह निबंध की शुरुआत आधुनिक युग में हुई। इसकी स्थापना का श्रेय भी भारतेंदु और भारतेंदु-युग को है। भारतेंदु युग में पत्र-पत्रिकाओं का निकलना शुरू हुआ। इनके जरिए लेखकों ने जनशिक्षा के कार्यक्रम बनाए। पुनर्जागरण का अभियान चलाया। देश-प्रेम की भावना जगायी और लोगों को विश्वास में लेकर आगे आने के लिए प्रेरित किया। ज्ञान-विज्ञान के आलोक में शामिल होने और अंधविश्वास छोड़ने को कहा।
भारतेंदु युग के पश्चात् ललित निबंध के विकास की गति धीमी पड़ गयी। निबंध तो खूब लिखे गए, पर लेखक की अपनी विधा के रूप में निबंध का चुनाव कम लोगों ने किया। संपादकीय निबंध होते थे, पर वे पत्र-पत्रिकाओं में ही विखरे रहे, और समीक्षात्मक निबंधों की पहचान निबंध के रूप में नहीं की गई। निबंध और उसमें भी ललित निबंध को व्यापक स्वीकृति और महत्त्व दिलाने में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय और विवेकी राय का योगदान प्रमुख है। ललित निबंधों का सृजन इसलिए भी चुनौतिपूर्ण होता है कि इसके तत्त्व मूलतः देश-काल की प्रेरणाओं से अनुबद्ध होती है। उसकी जड़ें परंपरा में होती है, प्रेरणा अपने युग में और दृष्टि भविष्य की ओर। त्रिकालदर्शी होना इस विधा की अपनी खास विशेषता है। इस दृष्टि से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध अतुलनीय हैं।
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