प्रकाशकीय
हिन्दी साहित्य के दो प्रमुख कालखण्डों-रीतिकाल और आधुनिक काल - को नयी भावभूमि देने और हिन्दी को सामाजिक सरोकारों से जोडने के लिए गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' जी का योगदान अप्रतिम है।ब्रजभाषा और खडी बोली में सवैया, छंद और गीत के लेखन, मंचीय कविता के प्रोत्साहन एव सम्पादन तथा अनुवाद आदि के क्षेत्र में उन्होंने पर्याप्त कार्य किया । वे जहां एक्? ओर, रस, अलंकार और व्याकरण के निष्णात विद्वान थे, तो वहीं दूसरी ओर गय व हास्य लेखन से भी गहरे जुडे थे । राष्ट्रीय काव्यधारा के वह अग्रणी कवि थे । यदि यह कहा जाय कि 'सनेही' जी ने ब्रजभाषा के लालित्य को संजोने के साथ-साथ आधुनिक खडी बोली की स्तरीय पहचान विकसित करने में अग्रणी भूमिका निभायी तो अतिशयोक्ति न होगी ।
।सुप्रसिद्ध हिन्दी विद्वान डॉ० उपेन्द्र जी ने इस पुस्तक में उनके प्रेरक व्यक्तित्व के सभी पहलुओ को सफलतापूर्वक आत्मसात किया है । उपेन्द्र जी ने 'सनेही' जी के बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व को पुस्तक में 11 अध्यायों में संजोया है, जो इस प्रकार हैं :- जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व-विश्लेषण, काव्य-कृतियाँ, 'सनेही'जी की काव्य-सृष्टि, रस और अलंकार, कवि-निर्माण, राष्ट्रीय काव्य धारा के अग्रणी कवि, कवि-सम्मेलनों । की परम्परा के प्रवर्तक, समस्यापूर्तियों के पुरोधा, प्रगतिवाद के प्रथम-कवि तथा काव्य-सुधा । पुस्तक के अन्त में परिशिष्ट दिया गया है, जिसमें । विद्वान लेखक ने 'सनेही'जी से सम्बन्धित कुछ भ्रांतियों को दूर करने का स्तुत्य प्रयास किया है । 'सनेही'जी का व्यक्तित्व असाधारण था । 'सुकवि' जैसी कालजयी पत्रिका के सम्पादन का श्रेय उन्हीं को है, जिसके माध्यम से ब्रज और खड़ी बोली के रचनाकारों को स्तरीय मंच मिला । 'सनेही' जी ने ही सबसे पहले प्रगतिवाद की अलख हिन्दी में जगायी और राष्ट्रीय काव्यधारा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर बने ।
इस सन्दर्भ में 'सनेही'जी जैसी कालजयी प्रतिभा को पुस्तक के रूप में शब्द देने और सजोने में लेखक को जो पर्याप्त सफलता मिली है, उसके प्रति आभार व्यक्त करना मेंरे लिए ही गर्व की बात नही है बल्कि स्मृति सरक्षण योजना के अन्तर्गत इसे प्रकाशित करते हुए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान भी गौरवान्वित है । निश्चय ही गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' पुस्तक से न केवल 'सनेही' जी जैसे प्रेरक व्यक्तित्व और उनके कृतित्व को समग्रता में आत्मसात करने में अपितु पिछली सदी के प्रारम्भिक दशको के इस कालखण्ड को समझने में भी पर्याप्त सहायता मिलेगी । आशा है जागरूक हिन्दी जगत में इस पुस्तक का पर्याप्त स्वागत होगा ।
पूर्व-निवेदन
हिन्दी में आधुनिकता के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नई भाषा का स्थिर स्वरूप देकर जो युगान्तर उपस्थित किया था उससे गद्य के क्षेत्र में (जिसमें पत्रकारिता भी शामिल है ।) जो सर्वतोमुखी क्रान्ति हुई, वह सर्व विदित है । यह विडम्बना ही कही जायेगी कि नव जागरण की उस प्रभात-बेला में भी कविता के क्षेत्र में न तो कोई महत्वपूर्ण विषयगत परिवर्तन हुआ और न भाषागत ही । ब्रज माधुरी के दीवाने कवियों और काव्य-रसिकों के हृदय उस काव्य-मधु का सैकड़ों वर्षो तक रसास्वादन कर चुकने के बाद भीमें अतृप्त थे । 'भरहिं निरंतर होहिं न पूरे' की स्थिति बन गई थी । भारतेन्दु के निधन (सन् 1885) के बाद भी यथास्थिति बनी रही? बदलाव की गुंजाइश उस समय के साहित्य सेवियों की दृष्टि में नहीं थी । काव्य-माध्यम के रूप में ब्रजभाषा जैसी मंजी हुई लालित्य पूर्ण भाषा का विकल्प खुरदरी खड़ी बोली' हो सकती है, इसका विचार भी उस काल के कवियों और काव्य मर्मज्ञ सज्जनों को कष्टदायी लगता था ।
सन् 1666 में श्री धर पाठक ने गोल्डस्मिथ के 'हर्मिट' का अनुवाद 'एकान्त वासी योगी' के नाम से खड़ी बोली में किया । कहा जाता है, पाठक जी को खड़ी बोली में काव्य-लेखन की प्रेरणा लावनी-गायकों (विशेष रूप से ख्याल बाजों) से मिली थी । पुस्तक प्रकाशित हुई तो साहित्य-जगत में हलचल मच गई । खड़ी बोली में काथ-रचना का यह पहला सुव्यवस्थित प्रयास था । खड़ी बोली में काव्य-रचना हो सकती है, इस विचार के समर्थक बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री जैसे लोगों का हौसला बढ़ा । 'एकान्त वासी योगी' के बाद 'जगत सचाई सार' (सन्- 1887) में पाठक जी ने निष्क्रिय देशवासियों को गीता के कर्मवाद की याद दिलाते हुए उन्हें आलस्य त्याग कर पुरुषार्थ में प्रवृत्त होने का मंत्र दिया । विस्मय की बात है कि इन दो सुन्दर कृतियों के बाद अपनी तीसरी कृति 'गोल्डस्मिथ' के 'डेजर्टेड विलेज' के अनुवाद 'ऊजड़ ग्राम' के लिए उन्होंने पुन: ब्रजभाषा का सहारा लिया । सन् 1902 में गोल्डस्मिथ की ही एक अन्य कृति 'द ट्रेवलर' का अनुवाद 'श्रांत पथिक' के नाम से अवश्य खड़ी बोली में किया पर उनकी सर्वाधिक सुन्दर और चर्चित मौलिक कृति 'कश्मीर सुषमा' की भाषा खड़ी बोली न होकर ब्रजभाषा है । श्री नारायण चतुर्वेदी का अनुमान है कि उनके ब्रज और खड़ी बोली से लगभग समान
प्रेम का कारण यह हो सकता है कि उनका जन्म फिरोजाबाद के जोंधरी ग्राम में हुआ था और ब्रजभाषा उनकी मातृभाषा थी, उसके प्रति प्रबल प्रेम स्वाभाविक था । खड़ी बोली में काव्य-रचना की अविच्छिन्न परम्परा का सूत्रपात वस्तुत: बीसवीं सदी के आगमन के बाद ही हो सका । काव्य-भाषा के रूप में उसे एकाधिकार और प्रतिष्ठा दिलाने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का भगीरथ प्रयास काम उगया । द्विवेदी जी स्वयं पहले ब्रजभाषा में लिखा करते थे । 'सरस्वती' मासिक पत्रिका के संपादन का भार संभालते ही (सन् 1902) उन्होंने खड़ी बोली में काव्य-रचना का महत्वपूर्ण अभियान छेड़ दिया । यद्यपि प्रतिष्ठित कवियों की ब्रजभाषा में लिखी उत्तम कोटि की रचनाओं को अनेक वर्षों तक आदरपूर्वक स्वीकार किया जाता रहा पर द्विवेदी जी नई संभावनाओं के प्रतिभाशाली नवयुवक
कवियों को खड़ी बोली में ही कविता लिखने को विशेष रूप से प्रेरित-प्रोत्साहित करते रहे । 'द्विवेदी जी की कुछ अपनी खास रुचियां अथवा धारणाएं थीं जिनके प्रति वे सदैव आग्रही रहे । उन्हें श्रृंगांर रस से चिढ़ थी; रीतिकालीन परंपरा की कवित्त-सवैया शैली भी कई कारणों से उन्हें कम रुची थी; संस्कृत की समास बहुला शब्दावली ही नहीं, उसके छंदों की तरफ भी उनका मन बार-बार खिंचता था । सन् 1904 के एक संपादकीय 'नोट' में सरल, बोधगम्य भाषा की अपनी भावी नीति ('सरस्वती' में आने वाले आलेखों के लिए) की घोषणा करने के बावजूद उनके अन्तर्मन से 'सुरम्य रूपे, रस राशि रंजिते विचित्र वर्णाभरणे कहां गई, अलौकिकानन्द विधायिनी महा कवीन्द्र कान्ते, कविता अहो कहां' जैसी शब्दावली की गूंज गई नहीं थी । सुविज्ञ समीक्षकों का कहना है कि अति शुद्धतावादी (प्योरिटन) होने की वजह से ही वे उस नये ढंग की कविता के प्रेरक-प्रचारक हो गए थे जिसमें इतिवृत्तात्मकता, सदाचरण और उपदेश पर जोर (इंफेसिस) था । 'सरस्वती में' प्रकाशनार्थ भेजे गए गद्य-आलेखों में संशोधन (मुख्यत: व्याकरण की दृष्टि से) की अभ्यस्त संपादकीय लेखनी कविताओं की भाषा भी सुधारने में सचेष्ट । हो जाती थी । परिणाम यह हुआ कि उनके द्वारा संशोधित कविताएं एक ही व्यक्ति की लिखी प्रतीत होती थी । रचनाकार का अपना शैलीगत व्यक्तित्व उन में गायब हो गया । फिर भी हिन्दी को परिमार्जित और परिनिष्ठित करने और ज्ञान-विज्ञान आदि से सम्बन्धित नई-नई जानकारी से समृद्ध करने में द्विवेदी जी का अप्रतिम योगदान है और हिन्दी उनकी सदैव ऋणी रहेगी ।
जिन कवियों ने द्विवेदी जी के निर्देशन में रहकर खड़ी बोली को आधुनिक काथ-भाषा का आकर्षक स्वरूप देकर खड़ा किया उनमें मैथिलीशरण गुरु, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', रामचरित उपाध्याय, रामनरेश त्रिपाठी, गया प्रसाद शुका 'सनेही', और लोचन प्रसाद पाण्डेय विशेष रूप से महत्वपूर्ण माने जाते हैं । 'सनेही'जी का काम मैथिली शरण जी, हरिऔध जी आदि कवियों से अनेक दृष्टियों से भिन्न था । उन्होंने प्रबंध काव्यों की रचना के बजाय छट कविताए लिखी, काथ-निर्माण के साथ-साथ कवि-निर्माण का दायित्व भी पूरा किया, गुरु अथवा आचार्य के गौरवपूर्ण पद की प्रतिष्ठा अर्जित कर 'सुकवि' (मासिक पत्र) के संपादन और कवि सम्मेलनों व कवि गोष्ठियों के माध्यम से हिन्दी की श्रव्य कविता के रसास्वादन के लिए एक विशाल श्रोता-वर्ग तैयार किया । इतना ही नहीं, राष्ट्रीय जन-जागरण के अभियान में पहले तिलक और बाद में महात्मा गाधी के नेतृत्व में छेड़े गये सभी आन्दोलनों का हार्दिक समर्थन अपनी ओजस्वी काव्य-वाणी से वे करते रहे । उन आन्दोलनों से उनका सीधा सम्बन्ध होने के कारण लगभग बत्तीस वषों तक खिंचे लंबे स्वातंत्र्य- संघर्ष की प्रत्येक धड़कन का स्वर उनके काव्य में समाया हुआ है । उनकी काव्य-साधना का आरंभ ब्रजभाषा की रीति कालीन परंपरा के शृंगारी छंदों और समस्यापूर्तियों से हुआ था । उस प्रकार के काव्य से उनके आदरास्पद गुरु आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को अरुचि थी, 'सरस्वती' में उस प्रकार के छंदों के लिए कोई स्थान भी नहीं था । इसके बावजूद यानी द्विवेदी जी की असहमति की चिन्ता किए बगैर उन्होंने रीतिकालीन कवित्त-सवैया शैली की परंपरा अपने अकेले दम पर जीवित रखी । हिन्दी कवि-सम्मेलनों में (जिनके प्रवर्तन का श्रेय भी उनको ही है) समस्यापूर्तियों का एक लंबा दौर उनके ही निर्देशन में चला । नये युग की नब्ज को पहचान कर नये विषयों को प्रवेश दिला कर समस्यापूर्तियों का स्वरूप तो उन्होंने बदला ही, कवित्त और सवैया जैसे ब्रज भाषा के मजे हुए छंदों को खडी बोली में सफलता से प्रयुक्त करने यानी उसकी प्रकृति के अनुरूप उन्हें ढालने का विलक्षण कौशल भी कर दिखाया । उनके और उनके शिष्यों द्वारा रचित सैकड़ों छंद इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं । 'दिनकर जी' ने एक स्थान पर लिखा है कि इन दो छंदों का प्रयोग खड़ी बोली में उन्होंने ('सनेही'जी ने) इस सफाई और सरसता के साथ किया कि साहित्य में उनका नाम अमर हो गया । मेंरा पक्का विचार है कि जो सवैये या कवित्त उन्होंने खड़ी बोली में लिखे, उन्हीं पर उनकी कीर्ति ठहरी रहेगी' (सम्मेलन पत्रिका ग प्र .शु. 'सनेही'जन्मशती विशेषांक) 'दिनकर' के उपर्युक्त कथन में निहित सचाई सच्चे मन से स्वीकार करने योग्य है । निस्संदेह खड़ी बोली में लिखे 'सनेही-स्कूल के कवित्त-सवैयों में जो 'धार' है, जो एक अलग किस्म की चमक दिखाई देती है, वह अन्य कवियों द्वारा रचित कवित्त सवैयों में देखने को नहीं मिलती । पिछले पचास वषों में कितने ही बड़े कवियों जिनमें स्वयं 'दिनकर' भी शामिल हैं ने इन छंदों के प्रयोग में 'जोर आज़माई' की पर 'सनेही-स्कूल' वाली वह खूबी उक्त च्चों में वे नहीं ला सके ।
जो लोग 'सनेही'जी के रीति कालीन परंपरा से जुड़े हुए 'ब्रजभाषा के' छंदों को ही उनका सर्वोत्कृष्ट सृजन मानते हैं और उन छंदों के आधार पर उन का मूल्यांकन करते हैं वे यह भूल जाते हैं कि 'सनेही'जी ने यदि रातिकालीन रूढ़ियों (समस्या पूर्तियां, श्रृंगारी विरह-वर्णन आदि) का दो जगह पोषण किया तो दस जगह रूढ़ियां तोड़ी भी । विषय और अभिव्यक्ति दोनों ही क्षेत्रों में उन्होंने अपने वर्चस्वी व्यक्तित्व की छाप छोड़ते हुए सृजन की नई नई दिशाओं के द्वार खोले । सन् 1914 और उसके बाद के दशकों में किसानों की कारुणिक स्थितियों पर, जमींदारों के जुल्म पर, मुनाफा खोरी पर, धर्म की ध्वजा फहराने वाले पाखंडियों पर, असहाय मजदूरों की दुर्दशा पर, अंग्रेज शासकों की कूटनीति, अन्याय और अत्याचार पर, आर्थिक शोषण और विषमता पर, दहेज, छुआछूत, जातीय और साप्रदायिक संकीर्णता पर, ऊंच नीच की भावना और अंध विश्वास जैसी सामाजिक विकृतियों पर, उन्होंने अपनी बेबाक शैली में जम कर प्रहार किया । सर्वहारा के हक के लिए कलम उठाने वाले वे पहले हिन्दी कवि थे । प्रगतिवाद के अन्तर्गत काव्य विषयों पर उन्होंने तब लिखा था जब प्रगतिवाद का जन्म भी नहीं हुआ था वे किसी वाद प्रवृत्ति अथवा शैली विशेष से बंधकर भी नहीं रहे । उन्होंने छंद भी लिखे, गीत भी लिखे गजलें ओर नज़्में भी लिखीं, द्विवेदी-युग का प्रतिनिधित्व करने वाली इतिवृत्तात्मक कविताए भी लिखी, देश-प्रेम से भरी हुई स्वातंत्र्य-संघर्ष को शक्ति देने वाली छप्पय आदि छंदों में ओजस्वी, उद्बोधन परक कविताएं भी लिखी(खड़ी बोली) का स्वरूप भी उनका नितान्त अपना था और आद्यन्त वे उस पर कायम रहे । अरबी-फारसी आदि (उर्दू) से आये शब्दों के उदारतापूर्वक ग्रहण करने ओर मुहावरों के प्रति विशेष आकर्षण बनाए रखने की वजह से वे अपने समानधर्मा कवियों (मैथिली शरण गुज, रामचरित उपाध्याय, रामनरेश त्रिपाठी, लोचन प्रसाद पाण्डेय इत्यादि) से पृथक भूमि पर खड़े दिखाई देते हैं । इतिवृत्तात्मक शैली की क्यु कविताओं में समास युका संस्कृत शब्दावली के चार-छ: प्रयोग उनकी भाषा से परिचित पाठक को जरूर विस्मित कर सकते हैं । मेंरा अपना अनुमान है कि उसकी पृष्ठभूमि में निश्चित रूप से आचार्य द्विवेदी के सुझाव व संशोधन की बाध्यता रही होगी ।
श्रव्य कविता की परंपरा के पुरस्कर्ता के रूप में उनकी महिमा तो अप्रतिम ही कही जा सकती है। अपने संपूर्ण रचना काल में वे एक ओर ब्रजभाषा के सिद्ध कवियों से होड़ लेते हुए काव्य के मधुरस से रसिकों को पुलकित करते रहे तो दूसरी ओर 'त्रिशूल' के तेजस्वी कवि-रूप में स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत नवयुवकोंमें जोश भरते हुए विदेशी शासकों और उनके देशी अनुचरों के हौसले भी पस्तकरते रहे । 'कंठो में विराजा रसिकों के फूलमाल हो के कुटिल कलेजों में त्रिशूल हो के कसका ।' निस्संदेह अपने दोनों रूपों में यानी 'सनेही' की स्नेहिल कोमलता और त्रिशूल की बेमिसाल तीक्षणता को एक साथ समेंटे हुए उनका कवि-व्यक्तित्व उस काल में नितान्त मौलिक और अकेला था । हो सकता है, इस वजह से भी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने 'इतिहास' ('हिन्दी साहित्य का इतिहास') में द्विवेदी-युग के बाहर की भूमि के स्वतंत्र ('अपने ढंग पर सरस और प्रभावपूर्ण कविता करने वाले') कवियों के वर्ग में उन्हें स्थान दिया है । एक यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि आघुनिक भाषा के उस आरंम्भिक युग की कविताओं के कवित्य अथवा कला-शिल्प की परीक्षा परवर्ती युगों के उत्तरोत्तर समृद्ध होते हुए काव्य-शिल्प की कसौटी पर करना उन गुरुजनों के साथ अन्याय होगा । उपर्युक्त तथ्यों पर विशेष ध्यान देते हुए और यथासंभव 'सनेही'जी के व्यक्तित्व और काव्य के सभी पक्षों को समेंटते हुए उनके ऐतिहासिक महत्व के काम का संक्षिप्त मूल्यांकन इस छोटी सी पुस्तक में रखने का एक विनम्र प्रयास मैंने किया है । वह कहां तक सफल हुआ है, इसका निर्णय तो पाठक ही करेंगे । हां, 'परिशिष्ट' में 'सनेही'जी से सम्बन्धित दो-चार प्रचलित भ्रांतियों का निराकरण कर दिया गया है । ऐसा करना आवश्यक था क्योंकि गलतियां यदि सुधारी न जाये तो धीरे-धीरे 'सच' के रूप में स्थापित हो जाती हैं । पठन-पाठन के क्षेत्र में इस तरह के प्रयासों की स्वस्थ परंपरा रही है । शायद आपने सुना हो, 'शत्रोरपि गुणा वाच्या दोषा वाच्या गुरोरपि ।'
इस पुस्तक के प्रकाशन में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने जो रुचि प्रदर्शित की है, उसके लिए मैं आभार व्यक्त करता हूँ ।
विषय सूची
अध्याय-एक
जीवन-वृत
1
अध्याय-दो
व्यक्तित्व विश्लेषण
13
अध्याय-तीन
काव्य-कृतियाँ
21
अध्याय-चार
सनेही जी की काव्य-सृष्टि ब्रजभाषा काव्य,. (इतिवृत्तात्मक शैली की रचनाएं)
उर्दू में लिखी रचनाएं,. आन्दोलन परक रचनाएं;
गीतिकाव्य; खड़ीबोली की कवित्त-सवैया शैली,
हास्य-व्यग्य प्रधान रचनाएं ।
30
अध्याय-पांच
रस और अलंकार
61
अध्याय-छ:
कवि-निर्माण
70
अध्याय-सात
राष्ट्रीय काव्य-धारा के अग्रणी कवि
74
अध्याय-आठ
कवि-सम्मेलनों की परम्परा के प्रवर्तक
80
अध्याय-नौ
समस्यापूर्तियों के पुरोधा
87
अध्याय-दस
प्रगतिवाद के प्रथम कवि
97
अध्याय-ग्यारह
काव्य-सुधा
104
परिशिष्ट
139
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