पुस्तक के विषय में
हिन्दी क्षेत्र की जनता के सदियों के सुख-दुख, उत्कट आकांक्षाएं और परिहासपूर्ण जीवनाभुवों की अनुगूंज हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाओं में सुनाई देती है । साधारण जन के जुझारू जीवन-संघर्ष की मार्मिक छवियों से परिपूर्ण उनकी रचनाएं आज हिन्दी संसार के गले का हार बनी हुई है और सशक्त व्यंग्य लेखन की परंपरा स्थापित कर सकी है तो इसका मूल कारण परसाई जी का जन सरोकार दी है । उनकी रचनाओं में जन जीवन के सभी क्षेत्रों, प्रांतों, व्यवसायों और चरित्रों की बोली-बानी के दर्शन होते हैं । बतरस का ऐसा स्वाभाविक आनंद और विकृति पर सांघातिक प्रहार एक साथ शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिले । हरिशंकर परसाई : संकलित रचनाएं पुस्तक उनकी ऐसी ही चुनिंदा व्यंग्य रचनाओं का सग्रह हे ।
हिन्दी व्यंग्य के प्रेरणा पुरुष हरिशंकर परसाई (1922-1995) के लिए लेखन कार्य सदा साधना की तरह रहा । उनकी पहली रचना पैसे का खेल सन् 1947 में प्रकाशित हुई । तब से वे निरंतर रचनाशील रहे, समय और समाज की विकृतियों को सदा गंभीरता से उकेरते रहे । छह खंडों में 2662 पृष्ठों की उनकी रचनावली प्रकाशित है। '
संकलक श्याम कश्यप (1948) हिन्दी के जाने-माने रचनाकार हैं । लंबे समय तक पत्रकारिता विश्वविद्यालय अध्यापन से जुड़े रहे । हिन्दी आलोचना के
क्षेत्र में उन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किए हैं । उनकी कुछ प्रमुख कृतियां हैं : गेरू से लिखा हुआ नाम (कविता संग्रह), मुठभेड़, साहित्य की समस्याएं और प्रगतिशील दृष्टिकोण, साहित्य और संस्कृति आदि ।
भूमिका
कवियों का निकष गद्य है । गद्य की कसौटी व्यंग्य । रामविलास शर्मा इसी अर्थ में व्यंग्य को 'गद्दा का कवित्व' कहते थे । गद्य की सजीवता और शक्ति वे उसके हास्य-व्यंग्य में देखते थे । निराला के शब्दों में गद्य अगर 'जीवन-संग्राम की भाषा' हैं, तो व्यंग्य इस संग्राम का सबसे शक्तिशाली शस्त्र! हरिशंकर परसाई (1922-1995) के अचूक हाथों इस शस्त्र के इतने सटीक और शक्तिशाली प्रहार हुए हैं कि देश, दुनिया और समाज की विसंगति और विरूपता का कोई भी कोना और कोई भी क्षेत्र उसकी जूद में आने से नहीं बचा है । इसीलिए लोग कहते हैं कि परसाईजी ने सारी जमीन छेंक ली है ।
प्रेमचंद को हमारे स्वाधीनता आदोलन के दौर का प्रतिनिघि लेखक माना जाता है । हरिशंकर परसाई ठीक इसी अर्थ में स्वातंत्र्योत्तर भारत के प्रतिनिधि लेखक हैं । मुक्तिबोध की तरह फैंटेसी उनका सबसे प्रिय माध्यम है । वे बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के ठीक वैसे ही एकमात्र प्रतिनिधि कथाकार और गद्यलेखक हैं, जैसे कि मुक्तिबोध एकमात्र प्रतिनिधि कवि । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की देश और दुनिया की सभी प्रमुख घटनाओं, आदोलनों, मनोवृत्तियों और महत्वपूर्ण चरित्रों के कलात्मक व्यंग्य-चित्र उनकी रचनाओं में मिल जाएंगे । चंद शाब्दिक रेखाओं से वे एक भरा-पूरा चित्र मूर्त्त कर देते हैं । उनकी भाषा की तरलता और उसका क्षिप्र प्रवाह इस चित्र को गतिशील बनाकर जीवंत कर देते हैं ।
परसाईजी की रचनाओं में भारतेंदु-युगीन व्यक्तिगत निबंध की व्यापक स्वच्छंदत । और मन को बांध लेने वाली प्रेमचंद की किस्सागोई के एक साथ दर्शन होते हैं । कथात्मक विन्यास की विलक्षण सहजता और तीक्ष्ण वैचारिक तार्किकता, हास्य-व्यंग्य की धार पर चढ़कर किसी पैने नश्तर की तरह पाठक के मर्मस्थल तक पैठ जाती हैं, और उसे हददर्जा बेचैन और आंदोलित कर डालती है । उनकी मोहक शैली में विरोधी विचारधारा वाले पाठक को भी एकबारगी 'कन्विन्स' कर लेने की अद्भुत शक्ति है । जो उनके वैचारिक सहयात्री हैं, उन्हें तो उनकी रचनाएं शब्दों की दुनिया से उठाकर सीधे कर्म के क्षेत्र में ला खड़ा करने की गजब की. क्षमता रखती हैं । यह असाधारण क्षमता और अभूतपूर्व शक्ति उन्हें मिली है उनकी विशिष्ट भाषा-शैली, मौलिक कलात्मक पद्धति और किसी भी परिघटना या चरित्र के द्वंद्वात्मक विश्लेषण में अपूर्व सिद्धि से। परसाई जैसा विलक्षण गद्य-शैलीकार पिछली समूची सदी में कोई अन्य नजर नहीं उग्रता; हिन्दी ही नहीं, संभवत: संपूर्ण भारतीय साहित्य के समूचे परिदृश्य में ।
किसी भी रचना में प्रवेश का माध्यम भाषा है । सबसे पहला, और शायद सबसे अंतिम भी । अन्य सब बातें बाद में, और दीगर । यही वह नाजुक क्षेत्र है जहां हर रचनाकार की कला को एक 'लिटमस-टेस्ट' से गुजरना पड़ता है । अपनी कलात्मक क्षमता और मौलिक प्रतिभा की अनिवार्य परीक्षा देनी पड़ती है । परसाईजी की भाषा विविध स्तरों और अनेक परतों के भीतर चलने वाली 'करेंट' की अंतर्धारा की तरह है । यह भाषा सहज, सरल और अत्यंत धारदार तो है ही, इसमें विभिन्न प्रकार की वस्तुओं, स्थितियों, संबंधों और घटनाओं के यथार्थ वर्णन की भी अद्भुत क्षमता है । परसाईजी का गद्य विलक्षण ढंग से बोलता हुआ गद्य है । अत्यंत मुखर और साथ ही जिंदादिली से खिला हुआ प्रसन्न गद्य । बारीकनिगारी के फ़न के तो वे पूरे उस्ताद हैं । बिंब-निर्माण और सघन ऐंद्रियता में वे हिन्दी के श्रेष्ठतम कवियों से होड़ लेते हैं । वे अपनी भाषा का मजबूत किला छोटे-छोटे वाक्यों की नींव पर खड़ा करते हैं । ये वाक्य सरल होते हैं; और वाक्य-विन्यास सहज । फिर वे अपने विचार-धारात्मक और तार्किक नक्शे के अनुरूप अपने व्यंग्यात्मक लाघव के साथ शब्द-दर-शब्द वाक्यों के मीनार और कंगूरे उठाते चले जाते हैं । उनकी भाषा अपने नैसर्गिक सौंदर्य में इतनी भरी-पूरी है कि उसे किसी अतिरिक्त नक्काशी या लच्छेदार बेल-बूटों की जरूरत ही नहीं । उसकी सहज तेजस्विता किसी भड़कीली चमक-दमक या नकली पॉलिश की मोहताज नहीं । हिन्दीभाषी जन-साधारण और श्रेष्ठ रचनाकारों के बीच सदियों से निरंतर मंजती चली आ रही इस भाषा की दीप्ति अपने अकृत्रिम सौंदर्य से ही जगमग है । सामान्य बोलचाल की भाषा और भंगिमा के साथ जन-जीवन के बीच से उठाए गए गद्य की जैसी शक्ति और जैसा कलात्मक वैविध्य परसाईजी की रचनाओं में मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है । उनकी भाषा इसी बोलचाल के गद्य का साहित्यिक रूप है । वाक्य-विन्यास का चुस्त संयोजन और सहज गत्यात्मक लोच उनकी भाषा को सूक्ष्म चित्रांकन के बीच जीवंत गतिशीलता प्रदान करता है । इसीलिए, उनकी कही गई बातें, देखी गई बातों की तरह दृश्यमान हैं । प्रवाहपूर्ण स्वाभाविक संवादों के साथ ऐसी दृश्य-श्रव्य-क्षमता बहुत कम कथाकारों में मिलेगी ।
उनकी भाषा की उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि उसमें हिन्दी गय के विकास की प्राय: सभी ऐतिहासिक मंजिलों की झलक मिल जाती है । उनकी कई रचनाओं से पुरानी हिन्दी की भूली-बिसरी शैलियों और आरंभिक गद्य का विस्मृत स्वाद एक बार फिर ताजा हो जाता है । ' 'वैसे तो चौरासी वैष्णवन की लंबी वार्ता है । तिनकी कथा कहां तांई कहिए' ' जैसे वाक्यों से वल्लभ संप्रदाय के ग्रंथों के एकदम आरंभिकगद्य की याद आ जाती है, तो ' 'हिन्दी कविता तो खतम नहीं हुई, कवि 'अंचल' अलबत्ता खतम होते भए' ' से लल्लू लाल जी के 'प्रेमसागर' की भाषा की। इसी तरह ' 'ठूंठों ने भी नव-पल्लव पहन रखे हैं । तुम्हारे सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा औरत से हाव-भाव कर रही है-और बहुत भद्दी लग रही है' ' और ' 'शहर की राधा सहेली से कहती है-हे सखि, नल के मैले पानी में केंचुए और मेंढक आने लगे । मालूम होता है, सुहावनी मनभावनी वर्षां-ऋतु आ गई ।' ' -जैसे प्रयोगों से पुरानी शैली के ऋतु-वर्णन की स्मृति ताजा हो जाती है । अगले ही वाक्य में राधा के ' श्याम नहीं आए वगैरह प्राइवेट वाक्य' बोलने की 'सूचना' देकर वे व्यंग्य को वांछित दिशा में ले जाते हैं । जब 'छायावादी संस्कार' से उनका 'मन मत्त मयूर होकर अनुप्रास साधने' लगता है तो वे लिखते हैं : 'वे उमड़ते-घुमड़ते मेघ, ये झिलमिलाते तारे, यह हँसती चांदनी, ये मुस्कराते फूल !' जैसे 'कारागार निवास स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है' लिखकर वे मैथिलीशरण गुप्त और अटल बिहारी वाजपेयी की एक साथ टांग खींचते हैं, वैसे ही संतों को भी अपनी छेड़खानी से नहीं बख्शते : 'दास कबीर जतन से ओढ़ी, धोबिन को नहिं दीन्ही चदरिया !' भारतेंदु-युग और छायावाद से लेकर ठेठ आज तक की हमारी भाषा के जितने भी रूप और शैलियां हो सकती हैं, परसाईजी के गद्य में उन सभी का स्वाद मिल जाता है । चौरासी वैष्णवों की कथा, बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, पंचतंत्र, किस्सा चार दरवेश, किस्सा हातिमताई, तोता-मैना और 'प्रेमसागर' की भाषा और शैलियों से लेकर भक्त कवियों की भाषा और रीतिकालीन शैलियों तक-सबका अंदाज-ए-बया परसाईजी के गद्य-संग्रहालय में बखूबी सुरक्षित है । 'रानी केतकी की कहानी' की तज पर तो उन्होंने एक समूचा व्यंग्य-उपन्यास 'रानी नागफनी की कहानी' ही रच दिया है ।परसाईजी की अलग-अलग रचनाओं में ही नहीं, किसी एक रचना में भी भाषा, भाव और भंगिमा के प्रसंगानुकूल विभिन्न रूप और अनेक स्तर देखे जा सकते हैं । प्रसंग बदलते ही उनकी भाषा-शैली में जिस सहजता से वांछित परिवर्तन आते-जाते हैं, और उससे एक निश्चित व्यंग्य-उद्देश्य की भी पूर्ति होती है; उनकी यह कला, चकित कर देने वाली है । अगर 'आना-जाना तो लगा ही रहता है । आया है, सो जाएगा-राजा रंक फकीर' में सूफ़ियाना अंदाज है, तो यहां ठेठ सड़क-छाप दवाफरोश की यह बांकी अदा भी दर्शनीय है : ' 'निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं । निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है । निंदा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है ।'' आगे 'संतों' का प्रसंग आने पर शब्द, वाक्य-संयोजन और शैली-सभी कुछ एकदम बदल जाता है : ' 'संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं । मो सम कौन कुटिल खल कामी-यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है । संत बड़ा काइयां होता है । हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृतिकर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है ।' ' एक अन्य रचना में वे ''पैसे में बड़ा विटामिन होता है' ' लिखकर ताकत की जगह 'विटामिन' शब्द से वांछित प्रभाव पैदा कर देते हैं; जैसे बुढ़ापे में बालों की सफेदी के लिए 'सिर पर कांस फूल उठा' या कमजोरी के लिए 'टाईफाइड ने सारी बादाम उतार दी ।' जब वे लिखते हैं कि 'उनकी बहू आई और बिना कुछ कहे, दही-बड़े डालकर झम्म से लौट गई' तो इस 'झम्म से' लौट जाने से ही झम्म-झम्म पायल बजाती हुई नई-नवेली बहू द्वारा तेज़ी से थाली में दही-बड़े डालकर लौटने की समूची क्रिया साकार हो जाती है । एक सजीव और गतिशील बिंब मूर्त्त हो जाता है । जब वे लिखते हैं कि 'मौसी टर्राई' या 'अप्रदुपात होने लगा' तो मौसी सचमुच टर्राती हुई सुन पड़ती है और आसुओ की झड़ी लगी नजर आती है । 'टर्राई' जैसे देशज और 'अश्रुपात' जैसे तत्सम शब्दों के बिना न तो यह प्रभाव ही उत्पन्न किया जा सकता था और न ही इच्छित व्यंग्य । हिन्दी की बोलियों, विशेष रूप से बुंदेली शब्दों के प्रयोग से भी परसाईजी की भाषा में एक विलक्षण चमक पैदा हो जाती है । एक ओर यदि 'बड़ा मट्ठर आदमी है'? 'मेरी बड़ी किरकिरी हुई', 'लड़के मुंहजोरी करने लगे हैं' और 'अलाली आ गई' या 'मेरी दतौड़ी बंध गई' जैसे तद्भव शब्दों के प्रयोग से वे अपनी भाषा में 'फोर्स' पैदा करते हैं, तो दूसरी ओर 'पूर्व में भगवान भुवन भास्कर उदित हो रहे थे' और 'पश्चिम में भगवान अंशुमाली अस्ताचलगामी हो रहे हैं' या 'वन के पशु-पक्षी खग मृग और लता-वल्लरी चकित हैं' जैसे वाक्यों में पुरानी शैली और तत्सम शब्दों के विशिष्ट पद-क्रम-संयोजन से व्यंग्य-सृष्टि करते हैं । इसी तरह 'राम का दुख और मेरा' शीर्षक रचना में एक 'शिरच्छेद' शब्द से ही अपेक्षित प्रभाव पैदा कर दिया गया है : 'पर्वत चाहे बूंदों का आघात कितना ही सहे, लक्ष्मण बर्दाश्त नहीं करते । वे बाण मारकर बादलों को भगा देते या मकान-मालिक का ही शिरच्छेद कर देते ।' ऐसे ही 'मखमल की म्यान' के इस अंश में आखिरी वाक्य और उसमें भी 'संपुट' शब्द के बिना यह प्रभाव पैदा नहीं किया जा सकता था. 'समारोह भवन में पहुंचते ही उन्होंने कुहनी तक हाथ जोड़े, नाक को कुहनियों की सीध में किया और सिर झुकाया । एक क्षण में मशीन की तरह यह हो गया । वे उसी मुद्रा में मंच पर आए । कुहनी तक हाथों की कैसी अद्भुत संपुट थी वह ।' इस छोटे-से अंश में भी सूक्ष्म अवलोकन की क्षमता और बिंब-निर्माण का कौशल अलग से दर्शनीय हैं । एक ही वाक्य में 'मुख-कमल' जैसे तत्सम और 'टेटरी' जैसे ठेठ तद्भव शब्दों के एक साथ प्रयोग का विलक्षण लाघव और अद्भुत संतुलन यहां देखा जा सकता है : ''एक वक्त ऐसा आएगा जब माईक मुख कमल में घुसकर टेटरी बंद कर देगा ।'' यह परसाई जी की कला का ही कमाल है कि वे शंकर के 'कंठ' का रंग 'हस्बे-मामूल' और नामवर सिंह की 'अदा' में कोई 'साम्य' एक साथ दिखा सकते हैं, जहां हिन्दी-उर्दू विवाद की कोई गुंजाइश नहीं। इसी तरह ''संपादकों द्वारा दुरदुराया गया उदीयमानलेखक' ' में 'दुरदुराया' और 'उदीयमान' बड़ी आसानी से आस-पास खप जाते हैं। परसाईजी अपनी भाषा में कहीं तद्भव-तत्सम के मेल से तो कहीं तत्सम हिन्दी के साथ उर्दू-फ़ारसी के मेल से और कहीं हिन्दी-अंग्रेजी शब्दों के मेल से व्यंग्य-सृष्टि करते हैं। हिन्दी-अंग्रेजी शब्दों के मेल का उदाहरण इन दो वाक्यों में देखा जा सकता है. बढ़ी दाढ़ी, ड्रेन पाइप और 'सो हाट' वालों से यह (सामाजिक परिवर्तन-सं.) नहीं हो रहा है। चुस्त कपड़े, हेयर स्टाइल और 'ओ वंडरफुल' वालियों से भी यह नहीं हो रहा है। इसी तरह 'जैनेन्द्र स्ट्रिप्टीज करा चुके थे' उर्वशी ने कामायनी वगैरह को 'राइट ऑफ कर दिया' था और 'तृप्त .आदमी आउट ऑफ़ स्टाक होता जा रहा है' या 'उसके पास दोषों का केटलॉग है' आदि । उनकी रचनाओं में 'बिरदर, ही लब्ड मी भेरी मच' जैसी 'हृदय विदारक' अंग्रेजी (बकौल परसाई अगर अंग्रेज सुन लेते तो बहुत पहले ही भारत छोड्कर भाग खड़े होते) की व्यंग्यात्मक मिसाल और हिन्दी आंदोलनकारियों की तर्ज पर 'हार्ट फेल' के लिए 'असफल हृदय' या क्रिकेट की 'वाइड बॉल' के लिए 'चौड़ी गेंद' जैसे अनुवादों के हास्यास्पद उदाहरण भी मिल जाएंगे जो व्यंग्य-सृष्टि में सहायक नजर आते हैं । वे टपकते हुए कमरे को 'किसी ऋतुशाला का नपनाघट' बताते हैं, तो 'वैष्णव की फिसलन' में हूबहू महाजनी दस्तावेज की भाषा उतार लेते हैं ।- ' 'दस्तावेज लिख दी रामलाल वल्द श्यामलाल ने भगवान विष्णु वल्द नामालूम को ऐसा जो कि... ।'' -इसी तरह 'पुलिस के रग्घे' से लेकर कोर्ट के 'क्रॉस एक्जामिनेशन' और 'ऐवीडेंस ऐक्ट' तक की बारीकियों के वे पूरे जानकार नजर आते हैं।
विषय-सूची
1
वे सुख से नहीं रहे
2
इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर
7
3
पाठक जी का केस
16
4
भोलाराम का जीव
20
5
एक वैष्णव कथा
25
6
एक सुलझा आदमी
30
निंदा-रस
35
8
प्रेमचंद के फटे जूते
39
9
मखमल की म्यान
42
10
कबिरा आप ठगाइए...
46
11
कर कमल हो गए
50
12
बेईमानी की परत
54
13
अन्न की मौत
58
14
वह जो आदमी है न!
61
15
आई बरखा बहार
65
आंगन में बैंगन
69
17
पगडंडियों का जमाना
73
18
घायल वसंत
77
19
मिलावट की सभ्यता
81
पुलिस शताब्दी समारोह
84
21
अमेरिकी छत्ता
87
22
भ्रष्टाचार-नियोजन आंदोलन
90
23
भाजपा भ्रष्टाचार का विरोध कैसे करेगी?
93
24
फिल्म डिवीजन के अंग्रेज
95
भूख मारने की जड़ी
97
26
मिलावट का हक
99
27
किस विधि नारि रचेऊ जग माहीं
101
28
बदलाहट कहां है?
104
29
वह क्या था
106
उखड़े खंभे
110
31
तटस्थ
113
32
सदाचार का ताबीज
117
33
साहब महत्वाकांक्षी
121
34
राष्ट्र का नया बोध
127
हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं
131
36
सुदामा के चावल
139
37
दो नाक वाले लोग
145
38
ठिठुरता हुआ गणतंत्र
150
गांधीजी का ओवरकोट
154
40
एक अच्छी घोषणा
158
41
सज्जन, दुर्जन और कांग्रेसजन
161
प्रजावादी समाजवादी
165
43
लोहियावादी समाजवादी
170
44
समाजवादी छवि
174
45
चरणसिंह की बाललीला
177
अकाली-निरंकारी सत्संग
180
47
बोल जमूरे, इस्तीफा देगा
182
48
चरणसिंह चरणदास हुए
184
49
कविवर अटलबिहारी
186
नफरत की राजनीति
189
51
बेमिसाल
192
52
राजनीतिक गांजा
195
53
दूसरी आजादी का अंत
198
अपनी कब खोदने का अधिकार
200
55
महात्मा गांधी भी निपट गए
202
56
बांझ लोकसभा को तलाक
205
57
चूहा और मैं
208
अकाल-उत्सव
211
59
हरिशंकर परसाई का परिचय
218
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Hindu ( हिंदू धर्म ) (12492)
Tantra ( तन्त्र ) (986)
Vedas ( वेद ) (705)
Ayurveda ( आयुर्वेद ) (1890)
Chaukhamba | चौखंबा (3352)
Jyotish ( ज्योतिष ) (1442)
Yoga ( योग ) (1093)
Ramayana ( रामायण ) (1389)
Gita Press ( गीता प्रेस ) (731)
Sahitya ( साहित्य ) (23045)
History ( इतिहास ) (8221)
Philosophy ( दर्शन ) (3378)
Santvani ( सन्त वाणी ) (2531)
Vedanta ( वेदांत ) (121)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist