"जीवन में प्रेम, भक्ति और शिक्षा का सामंजस्य" इस पुस्तक में मैंने अपने जीवन के कटु अनुभवों तथा समाज में व्याप्त चतुर्दिक विषमताओं को देखकर एवं उन्हें अनुभव कर उनसे उबरने हेतु आत्म मंथन के जरिए तुच्छ सा प्रयास किया है। इसमें मैं कहाँ तक सफल हुयी हूँ ये पाठकगण तय करेंगे।
प्रेम की गति आज के युग में काफी तेज हो चुकी हैं, परन्तु आज के आधुनिक युग में प्रेम की परिभाषा बदल गयी है। इसके साथ चलना समय की आवश्यकता है, अन्यथा प्रेम की दौड़ में हम इतने पीछे रह जायेंगे कि ज्ञान-दीप हमारी आँखों से ओझल हो जाएगा और हम अज्ञानता के भँवर जाल में उलझे रह जाएँगे। इस संकट से यह पुस्तक ही उबार सकती है।
पुस्तक यदि स्वस्थ-विचार तथा मानसिकता से लिखी गयी है, तो वे निश्चित ही अपने पाठकगण के लिए पथ प्रदर्शक का काम करती है।
विवेकी एवं विचारशील मनुष्य जागतिक सम्बन्धों एवं पदार्थों के प्रति ज्ञानात्मक दृष्टिकोण अपनाकर एवं अपने सूक्ष्म और विश्लेषणात्मक चिन्तन मनन का सहारा लेकर मोह से छुटकारा पा सकते है। इस दिशा में मैंने छोटे-छोटे धार्मिक किताबों का स्वाध्याय और अपने चिन्तन एवं मनन करने के बाद कुछ निष्कर्ष निकाले, जिसका परिणाम यह पुस्तक है।
यद्यपि अपने माता-पिता के प्रति आभार प्रकट करना मात्र शाब्दिक औपचारिकता ही होगी, फिर भी यह सत्य है कि यदि उनका सहयोग और आशीर्वाद मुझे न मिला होता तो कार्य इतने सहजता से सम्भव नहीं हो पाता। सतर्कता के बाद भी पुस्तक में त्रुटियाँ रह सकती है। आशा है कि सभी पाठकगण क्षमा करेंगे तथा सुधार हेतु अपने बहुमूल्य सुझाव मेरे पास भेजने का कष्ट करेंगे।
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