ले. प्रा. ग. ह. रानडे, फर्ग्युसन कॉलेज, पूना ४ संगीतकला 'श्रवणी विद्या' करके चली आयी है। इसी कारण वह गुरुमुख सेही सीखनी पडती है। इस लिये गायनाचार्य स्वर्गीय बालकृष्ण- बुवा इचलकरंजीकरजी जैसे पंडितको भी धार, ग्वालियर जैसे सुदूर स्थान पर जाके दीघोंद्योग से गुरुजी को प्रसन्न कर के तथा तप डेढ तप तक उनकी सेवा कर के हासिल हो सकी। महाराष्ट्रके सौभाग्य से उन्होंने ग्वालियर की गायकी आत्मसात् की। इतना ही नहीं अपने कई शिष्योंको खास पद्धति से पढायी और वही पद्धति महाराष्ट्रमें रूढ की। इसी पद्धति से उन्होंने कई नामवन्त शिष्य तय्यार किये। उनमें से यद्यपि पं. विष्णु दिगंबर, पं. गुंडाबुवा इंगळे, स्वयं बुवाजी के सुपुत्र पं. अण्णाबुवा, भाटे- बुवा, कालेबुवा, बापटबुवा, कृष्णय्या जैसे शिष्य स्वर्गस्थ हैं, फिर भी हमारे सौभाग्य से आज भी गायनाचार्य पं. अनंत मनोहर, पं. मिराशी- बुवा, वामनबुवा चाफेकर, बेंद्रेबुवा, जैसे अधिकारी शिष्य हममें उपस्थित हैं और उन्होंने इसी पद्धति से कई लोगों को गायनविद्या प्रदान की है।
आजकल मुद्रणकला, शिक्षा की नयी नयी पद्धतियाँ, साधन सामग्री आदि से अन्य विद्याओं के समान ग्रंथों के द्वारा संगीत विद्याका प्रसार हम कर सकते हैं। लेकिन प्रत्यक्ष कला का ढंग ग्रंथों से नहीं प्राप्त हो सकता। इसी कारण वह गुरुमुख से संपादन करनी पडती है। आज हमारा जीवन पहले जैसे सीधासाधा और स्थिर नहीं है। तीव्र जीवन कलह तथा धामधूम उसका नित्य धर्म बन गया है। इस लिये मानव जीवन आजकल एकही विद्या संपादन करके नहीं चल सकता। इस से एकही विद्या के लिये तप नहीं, एक दो वर्ष भी गुरुके सहवास में रहना असंभव हो गया है। गुरुजीको भी अपना जीवन दूभर हो जाने से शिष्यको अपने पास रखने के लिये न उनके पास समय है, न मकान ।
तिसपर भी हमारे संगीत के प्रारंभिक पाठ तथा शिक्षा पद्धति दाक्यि णास्य संगीत जैसी एकही नमूने की न होने के कारण किसी एक उस्तादजी के पास ली हुई शिक्पा दूसरे की दृष्टिसे काम में नहीं आती। परिणाम स्वरूप हमारा समय, धन तथा परिश्रम व्यर्थ हो जाते हैं। आजकलके संगीत विद्यालयों में कुछ अंशतक क्रमवार संगीत शिक्षा दी जाती है। लेकिन हरएक वर्ष के लिये अलग २ उस्तादजी रहते हैं और साथ २ राग भी बदलते हैं। इसका नतीजा यह हो गया है कि किसी एक पद्धति या परंपरा से विद्यार्थियों का कंठ तय्यार नहीं होता। इस से एक ओर उसका संगीतका बुद्धिग्राह्य ज्ञान बढते हुए भी दूसरी ओर कला का दर्जा और ढंग बहुत ही नीचा हो गया है और उसमें सुसंगति नहीं दिखाई देती ।
ऐसी अवस्था में संगीत शिक्षा की प्रारंभिक पद्धति एकही ढंगकी बनाना तथा उसी को मान्य और प्रचलित करना आवश्यक है। इस से एक ही काम दुबार करने से जो काल और श्रम नाहक खर्च हो जायेंगे उनकी बचत हो जायेगी। वैसे ही किसी भी खानदान की गायकी क्यों न हो संगीत की अगली शिक्षा में उसी खानदान के विस्तार के नमुने क्रम- बार तथा सुरेखित रहना और उसी प्रकार वे पढने तथा पढाने में सुलभता प्राप्त होने की दृष्टिसे प्रत्यक्ष लिपिमें सामने रखना आवश्यक है। उत्तर भारत के संगीत में ग्वालियर और जयपूर की दो खास गायन पद्धतियाँ प्रसिद्ध हैं। उनमें से ग्वालियर पद्धति के कुछ ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। लेकिन जयपूर या अन्य पद्धतियों के ग्रंथ हैं ही नहीं। पं. भातखंडेजीने अलग २ खानदानकी चीजें देने पर भी उनकी गायकी एकही प्रकारकी होना असंभव है। चीजों पर खानदान का नामोनिशां भी नहीं। स्वयं पं. भातखंडेजी की भी किसी खास परंपरा की गायकी नहीं है। इस से चीज एक खानदानकी और उसके लिये विसंगत गायकी दीख पडती है। इसी लिये हरएक खानदानको चाहिये कि वह पहले अपने २ अस्ताई अन्तरे अपनी गायन पद्धतिके अनुसार विस्तारक्रम से प्रसिद्ध करे। इस दृष्टिले ग्वालियर गायकी के बारे में स्वर्गीय गायनाचार्य बाळकृष्णबुवा की शिष्य परंपराने बहुतांश कार्य किया है। और उसका उपक्रम तथा प्रचार पं. विष्णु दिगंबरजी ने पचास वर्ष पहले से ही शुरू किया। लेकिन उनका यह कार्य अधूरा ही रह गया। उसकी पूर्तिका श्रेय गायनाचार्य पं. मिराशी- बुवा को ही है। तीन भागों में प्रसिद्ध की हुश्री ५०० चीजें और वे जिस ढंगले गायी जाती हैं उसी ढंगसे उनके आलाप तानोंका आविष्कार इन से यह बात स्पष्ट होती है। ये चीजें पं. मिराशीवुवाने बडे परिश्रम से विस्तार और कठिन बोलतानोंके नोटेशन के साथ दी हैं। उस नोटेशन के अनुसार गायी हुई चीजें सुनकर, पं. बालकृष्णबुवाके गानेके अभ्यस्त लोगोंको ऐसा प्रतीत हुआ कि वे हुबेहू उन्हींका गाना और उसका विस्तार सुन रहे हैं। उनमें से हरएक ने कहा, "ऐसी दुर्लभ गायकी इसी प्रकार चिरंतन हो सकती है"। पं. मिराशीबुवा का प्रकाशन इतना महश्व रखता है।
पं. मिराशीबुवा के ज्येष्ठ गुरुबंधु तथा संगीतकी मुक्ताचीनी करनेवाले आँध के गायनाचार्य पं. अनंत मनोहर जोशीजी का अभिप्राय ही इस पुस्तक की तारीफ है। संगीत जैसा श्रवणी तथा कठिन विषय, मियाँ हहदू हस्सुखाँ के खानदान गायकी के वैशिष्ठय के साथ, पढने पडाने में सुलभता प्राप्त करा के प्रात्यक्षिक द्वारा बताना आसान नहीं है। इस में पं. मिराशी- बुवा ने सुयश प्राप्त कर लिया इस लिये हम उनको जितनी हार्दिक बधा- इयाँ प्रदान करें उतनी कम ही है। जिस को हम आज पहले दर्जेकी खोज कह सकते हैं, उस प्रकार का कठिन कार्य आसान करके पं. मिराशीबुवाने संगीत कला तथा उसके शिक्षाशास्त्र की संस्मरणीय सेवा की है, इसमें शक नहीं। भगवान से हमारी यही प्रार्थना है कि वह उन्हें दीर्घायु दे, तथा गायकी के अगले भागभी प्रसिद्ध करने की उन्हें शक्ति दे और गुणज्ञ रसिकों को उसका गुण ग्रहण करने की बुद्धि दे।
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Hindu (हिंदू धर्म) (12543)
Tantra ( तन्त्र ) (996)
Vedas ( वेद ) (708)
Ayurveda (आयुर्वेद) (1901)
Chaukhamba | चौखंबा (3354)
Jyotish (ज्योतिष) (1450)
Yoga (योग) (1100)
Ramayana (रामायण) (1391)
Gita Press (गीता प्रेस) (731)
Sahitya (साहित्य) (23137)
History (इतिहास) (8251)
Philosophy (दर्शन) (3392)
Santvani (सन्त वाणी) (2555)
Vedanta ( वेदांत ) (120)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist