उत्तर प्रदेश के ग्राम रूरी सादिकपुर, तहसील सफीपुर,जिला उन्नाव में 25 सितम्बर 1935 को जन्मे डॉ० अँगने लाल के सिर से पिता श्री मन्नीलाल का साया किशोरावस्था में ही उठ गया था। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के ही विद्यालय में तथा माध्यमिक शिक्षा सुभाष कालेज,बांगरमऊ,जिला उन्नाव में पूरी करने के बाद आपने लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया । प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्त्व की एम.ए. प्रथम भाग की परीक्षा में राधा कुमुद मुखर्जी मेरिट स्कालरशिप तथा एम. ए. परीक्षा में गोपालदास मेमोरियल स्वर्णपदक प्राप्त किया ।
पी-एच. डी. के शोध प्रबंध 'संस्कृत बौद्ध साहित्य में भारतीय जीवन' की प्रो.वी. पी. बापट,प्रो. वी वी,मीराशी,प्रो. के. डी. बाजपेयी,भदन्त आनन्द कौसल्यायन तथा डॉ० धर्मरक्षित आदि ने भूरि-भूरि प्रशंसा की । आपका दूसरा शोध ग्रंथ 'अश्वघोष कालीन भारत' को उत्तर प्रदेश शासन ने पुरस्कृत किया । लखनऊ विश्वविद्यालय ने 1976 में 'ज्योग्राफिकल डाटा इन बुद्धिस्ट लिटरेचर इन इण्डिया' पर आपको शिक्षा जगत की उच्चतम उपाधि डी. लिट्. प्रदान की।
लखनऊ विश्वविद्यालय में ही आप प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्त्व विभाग में प्रवक्ता,रीडर तथा प्रोफेसर के पद पर आसीन हुए । आपके एक दर्जन ग्रन्थ छप चुके है । उसमें 'संस्कृत बौद्ध साहित्य में भारतीय जीवन','अश्वघोष कालीन भारत 'बोधिसत्त्व डॉ० अम्बेडकर अवदान', 'बौद्ध संस्कृति', 'आदि वंश कथा' और 'बौद्ध धर्म की युग यात्रा :बुद्ध से अम्बेडकर तक 'आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है । 250 से अधिक शोध निबंध राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके है और सेमिनारों-संगोष्ठियों में पढ़े जा चुके है । ऑल इण्डिया ओरियंटल कांफ्रेंस,भारतरत्न बाबा साहेब डॉ० बी.आर. अम्बेडकर जन्म शताब्दी समारोह की राष्ट्रीय एवं प्रदेशीय समिति,हिन्दी समिति उत्तर प्रदेश,आकाशवाणी एवं दूरदर्शन केन्द्र लखनऊ की पारमर्शदात्री समितियों के तथा राज्य योजना आयोग उत्तर प्रदेश के आप सम्मानित सदस्य रहे हैं ।
आपके लोक मंगल कार्यों तथा पर्यावरणीय उच्च आदर्शों के कारण वर्ल्डपीस फाउण्डेशन तथा दि ग्लोबल ओपेन युनिवर्सिटी,मिलान,इटली एवं इण्डियन इस्टीट्यूट ऑफ इकोलॉजी एण्ड इन्वायरन्मेण्ट,नई दिल्ली द्वारा सम्मिलित रूप से फेलोशिप प्रदान करके सम्मानित किया गया ।
प्रो० लाल. डॉ० राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय,फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) के कुशल कुलपति रहे हैं । सेवानिवृत्ति के बाद आप शोध,लेखन कार्य तथा सामाजिक व बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के कार्यों में संलग्न हैं ।
प्रकाशकीय
महान व्यक्तित्वों और विचारधाराओं का एक गुण यह भी होता है कि वह न केवल अपने क्षेत्र बल्कि समाज के अन्य क्षेत्रों पर भी अपनी प्रभावी छाप छोडते हैं । उनसे न केवल समकालीन परिवेश प्रभावित होता है बल्कि भविष्य पर भी उनका असर दिखता है । भगवान बुद्ध ने जिस महान धर्म व चिंतन की नींव डाली,उससे विश्व आज तक लाभान्वित हो रहा है । ऐसे कालजयी चिंतन के प्रचार-प्रसार में पालि व ब्राह्मी जैसी जनभाषाओं के उपयोग ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । लगभग ढाई हजार वर्ष पहले जब भगवान बुद्ध ने इन जनभाषाओं में अपने उपदेश दिये तो बौद्धिक वर्ग की भाषा संस्कृत थी । स्वाभाविक रूप से समाज के बने-बनाये जड़ ढाँचे के खिलाफ जब उन्होंने आवाज उठाई होगी तो जहाँ एक ओर आम जनता में नये सिरे से स्पंदन हुआ होगा,वहीं दूसरी ओर बड़ी और मजबूत सत्ताओं ने उपेक्षा की होगी । जनता के बीच जल्दी ही अधिकाधिक लोकप्रिय होने के कारण व्यापक स्तर पर बौद्ध धर्म के संदर्भ में राज दरबारों ने अपनी नीतियाँ बदलीं और उसे गले लगाया । राजभाषा संस्कृत में बौद्ध धर्म से सम्बंधित चिंतन-मनन भी तभी शुरू हुआ होगा । उदाहरण के लिए 'अवदान शतक' को लिया जा सकता है,जो बौद्ध इतिहास और संस्कृति को समर्पित संस्कृत ग्रंथों में सर्वाधिक प्राचीन (पहली शताब्दी ई० पू० या उससे पूर्व)माना जाता है । जो भी हो,आज जो प्राचीन संस्कृत साहित्य उपलब्ध है,उसके अनेक गन्थों में व्यापक स्तर पर बौद्ध धर्म का उल्लेख मिलता है जो न केवल तत्कालीन समाज की विभिन्न गतिविधियों बल्कि बौद्ध धर्म के संदर्भ में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है । भारतीय मनीषा खासकर बौद्ध धर्म के असाधारण विद्वान और प्रखर चिंतक डॉ० अँगने लाल ने संस्कृत साहित्य में बौद्ध धर्म सम्बंधी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक सामग्री पर इस पुस्तक के रूप में जो शोध कार्य किया है,वह कई दृष्टियो से असाधारण है । उन्होंने बौद्ध धर्म की ऊँचाइयों को संस्कृत साहित्य के दृष्टिकोण से देखने के महत्त्व को न केवल समझा बल्कि इसके लिए पूरे-संस्कृत साहित्य की गहरी पडताल भी की । कहना न होगा कि भारतीय संस्कृति की विशालता को समझने का एक सर्वप्रमुख स्रोत-संस्कृत साहित्य-भी है और किसी भी धर्म या दार्शनिक चिंतन का अध्ययन उसकी उपेक्षा की कीमत पर संभव नहीं है । जिन प्रमुख संस्कृत ग्रंथों में बौद्ध धर्म सम्बधी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विवरण मिलते हैं,वे मूलत:दूसरी-तीसरी शताब्दी के अधिक हैं । इनमे तत्कालीन समाज,राष्ट्र,अर्थव्यवस्था,उद्योग,व्यापार,शिक्षा,साहित्य,कला,भूगोल और औषधि विज्ञान आदि के संदर्भ में भी उपयोगी जानकारी मिलती है । इस विवरण का सदुपयोगइस पुस्तक में बौद्ध संस्कृति व इतिहास के साथ-साथ बहुत सुंदरता के साथ किया गया है ।
बौद्ध धर्म के संदर्भ में जिस तरह डॉ० अँगने लाल जी ने विशेष रूप से संस्कृत साहित्य की पडताल की है,महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं और इस पुस्तक के रूप में उन्हें सँजोया है,इसके लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनके प्रति अत्यत आभार व्यक्त करता है । आशा है यह पुस्तक न केवल इतिहास व संस्कृति के विद्वानों व शोध छात्रों के बीच विशिष्ट पहचान बनायेगी बल्कि जागरूक पाठकों को भी रुचेगी ।
निवेदन
अतीत और वर्तमान के साथ चलने वाले समाज या व्यक्ति चाहे जितने महत्त्वपूर्ण और व्यापक हों,सामान्य या औसत की श्रेणी से आगे नहीं बढ़ पाते । महान वे होते हैं,जो अपने वर्तमान को ही नहीं बल्कि भविष्य को भी प्रभावित करते हैं । बौद्ध धर्म एक ऐसी ही चिंतन धारा है,जिसने तमाम बदलावों के बावजूद दुनिया को हमेशा प्रभावित किया और आज भी मानव कल्याण की दिशा में उसका योगदान अप्रतिम है । संक्षेप में बौद्ध धर्म आर्य चतुष्टय,आष्टांगिक मार्ग,प्रतीत्य समुत्पाद और त्रिरत्न जैसे क्षेत्रों में विभाजित है और इनके अवगाहन के बिना इस महान मानवतावादी दर्शन को समझा नहीं जा सकता ।
विभिन्न भाषाओं के माध्यम से भगवान बुद्ध के यह सद्विचार दुनिया के कोने-कोने में पहुँचे । संस्कृत जैसी प्राचीन भाषा में भी,जिसमें इस महान देश की संस्कृति का काफी अंश उपलब्ध है,बौद्ध धर्म की उपेक्षा न कर सका और उसमें भी प्राचीन बौद्ध इतिहास,शिक्षा व परम्पराओं से सम्बंधित विस्तृत जानकारी मिलती है । कुछ ऐसे प्रमुख संस्कृत ग्रंथ इस प्रकार हैं:- महावस्तु अवदान शतक,ललित विस्तर,दिव्यावदान,सद्धर्म पुण्डरीक,सुखावती व्यूह,करुणा पुण्डरीक,अश्वघोष रचित बुद्ध चरित व सौन्दर्यानंद और वज्रसूची आदि । यह अधिकतर दूसरी-तीसरी शताब्दी ई०पू० के हैं यानी बौद्ध धर्म के अस्तित्व में आने के बाद के दो-तीन सौ वर्षो बाद के,जब वह अपने चरमोत्कर्ष पर था । बौद्ध साहित्य मूलत:पाली,ब्राह्मी व खरोष्ठी आदि में अधिक है । ऐसे में इस संस्कृत बौद्ध साहित्य में उसकीं उपलब्धता से सम्बंधित सामग्री की प्रामाणिकता मुखर होती है । ये संस्कृत ग्रंथ बौद्ध इतिहास के साथ-साथ तत्कालीन समाज,भूगोल,अर्थव्यवस्था,रोजगार,शिक्षा व साहित्य आदि पर भी पर्याप्त प्रकाश डालते हैं । ऐसे में इनकी उपादेयता और महत्त्व असंदिग्ध है ।
प्राचीन भारतीय इतिहास और खासकर बौद्ध वाङ्मय के निष्णात विद्वान डा,अँगने लाल,ने जो लखनऊ विश्वविद्यालय में लम्बे समय तक प्राध्यापन के साथ-साथ डा,राम मनोहर लोहिया विश्वविद्यालय,फैजाबाद के कुलपति भी रहे हैं,जिन्होंने संस्कृत साहित्य को गहरे से खँगाला है और खासकर बौद्ध धर्म सम्बंधी विवरण के साथ-साथ तत्कालीन इतिहास को पुस्तकाकार किया है । इसके लिए उन्होंने कितनी मेहनत की होगी,इसका अनुमान लगाना पुस्तक पर एक निगाह डालते ही कठिन नहीं है । इसके प्रथम अध्याय में जहाँ तत्कालीन भौगोलिक जानकारी है,वहीं दूसरे में ऐतिहासिक तथ्य । पुस्तक का तीसरा अध्याय राजनीति व शासन पद्धति को समर्पित है और चौथे अध्याय में वह उसविषय पर आते हैं,जिसके लिए मूलत:उन्होंने यह शोध कार्य किया है । यह अध्याय तत्कालीन धर्मो व दार्शनिक चिंतन धाराओं को समर्पित है । पाँचवाँ अध्याय तत्कालीन सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालता है और छठा आर्थिक स्थितियों को मुखर करता है । पुस्तक के सातवें,आठवें व नवें अध्याय शिक्षा,साहित्य,कला व आयुर्वेद आदि को समर्पित हैं । यह समूची सामग्री बौद्ध इतिहास व संस्कृति के साथ-साथ जिस तरह से तत्कालीन समाजों के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को आत्मसात् करती चलती है,वह तुलनात्मक अध्ययन और तार्किक नतीजों तक पहुँचने के दृष्टिकोण से अत्यंत उपादेय है ।
इस महत्त्वपूर्ण शोध कार्य और इसके प्रकाशन की अनुमति के लिए मैं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की ओर रो डॉ,अँगने लाल जी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कामना करता हूँ कि भारतीय संस्कृति व इतिहास के प्रति उनकी यह समर्पण-यात्रा चिरंजीवी और यशस्वी हो । आशा है,न केवल भारतीय इतिहास व संस्कृति में अवगाहन कर रहे विद्वानो व शोध छात्रों के बीच इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना का यथोचित आदर होगा बल्कि जिज्ञासु पाठकों के बीच भी इसे पर्याप्त लोकप्रियता मिलेगी ।
भूमिका
धर्में स्थितोऽसि विमले शुभबुद्धिसत्व
सर्वज्ञतामभिलषन् हृदयेन साधो ।
मह्यांशिर:सूज महाकरूणाग्रचेता,
मह्यां ददस्व मम तोषकरो भवाद्य1 ॥
जिस सत्य के लिए रूपावती ने एक नवजात शिशु की प्राण-रक्षा अपने दोनों स्तनों को काट कर की' वह सत्य,न राज्य के लिए,न भोगों के लिए,न इन्द्रत्व के लिए,न चक्रवर्ती-पद के लिए और न अन्य किसी इच्छा से ही प्रेरित हुआ था,उस सत्य के पीछे एक भावना थी-अप्राप्त सम्यक् संबोधि को संबोधि प्राप्त कराऊँ,जो इन्द्रिय लोलुप है,उन्हें इन्द्रिय-निग्रह और आत्म दमन सिखाऊँ,जो अमुक्त हैं,उन्हें मुक्त करूँ,जो निस्सहाय हैं,उन्हें आश्रय दूँ और जो दुःखी हैं उनके दुःखों की निवृत्ति करूँ 3।
इसी सत्य से प्रेरित होकर और दुःखी मनुष्य के आर्तनाद को न सह सकने के कारण बोधिसत्व सिद्धार्थ सम्यक-सबुद्ध होकर घर- घर,गांव-गांव पदचारिका करते रहे । सत्य,करुणा,मैत्री,समता,अहिंसा,और बन्धुता मानवता की मूर्ति गौतम बुद्ध ने जिस मार्ग को चलाया,वह सारनाथ से सभ्य जगत की सीमाओं को छूकर जंगलों और रेगिस्तानों तथा पहाड़ी की गुफाओं में भी अपनी मनोरम आभा से परितप्त लोकयांत्रिक को विश्राम और विलासिता से विराम देता रहा। उनके विभिन्न कारुणिक रूपों का चित्रण अवदान-कथानकों में किया गया है । अवदानशतक और दिव्यावदान ऐसे ही महान नथ हैं । ललित विस्तर,महावस्तु सदधर्मपुण्डरीक करुणापुण्डरीक सुखावती व्यूह,बुद्धचरित्र सौन्दरनन्द और वज्रसूची भी ऐसे ही ग्रन्धरत्न हैं,जिनमें उन महामानव और उनके महान शिष्यों के वचनामृत मनोरम कहानियों में ग्रथित हैं । वे धर्म ग्रन्थ हैं परंतु उनका विषय बुद्ध,धर्म और संघ तथा भिक्षु-जीवन तक ही सीमित नहीं है अपितु उनसे समाज,राष्ट्र,अर्थ,व्यवसाय,उद्योग,शिक्षा,साहित्य,कला औषधि-विज्ञान तथा भूगोल के विभिन्न अंगों पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है ।
प्राय:१९ वीं शताब्दी के अंत से ही इरा साहित्य ने विश्व के प्रसिद्ध पुराविदों का ध्यान आकृष्ट कर लिया था । सेनार्ट,लेफमैन,विन्टरनीज,कीथ,कावेल टॉमस,नारीमैन राजेन्द्र लाल मित्रा,बेनीमाधव बरूवा,बिमलचरन ला,वासुदेवशरण अग्रवाल,राधा गोविन्द बसाक और नलिनाक्षदत्त आदि विद्वानों ने इस विशद साहित्य का अवगाहन कर उससे बहुमूल्य सामग्री प्रस्तुत की है । यद्यपि डा० बसाक और प्रो० नीलकण्ठ शास्त्री ने भी इस साहित्य का अध्ययन किया,परन्तु ये अध्ययन एकांगी और अपूर्ण हैं । इस शोध में ग्रन्थ विशाल संस्कृत बौद्ध वाड,मय के ग्रन्थरत्नों- महावस्तु (सेनार्ट संस्करण),अवदानशतक (स्पेयर संस्करण),ललित विस्तर (लेफमैन और मित्रा संस्करण),दिव्यावदान (पी०एल० वैद्य,मिथिला विद्यापीठ संरकरण),सद्धर्म पुण्डरीक,(नलिनाक्षदत्त कलकत्ता संस्करण),(सुखावती व्यूह)(एफ० मैक्समूलर,आक्सफोर्ड संस्करण),करुणा-पुण्डरीक हायशरत चन्द्र दास,बुद्धिस्ट टेक्स-सोसायटी संस्करण)और अश्वघोष रचित बुद्धचरित और सौन्दरनन्द (सूर्यनारायण चौधरी,पूर्णिया,बिहार संस्करण),वज्रसूची लेबर,बर्लिन संस्करण)का अध्ययन कर ईसा की प्रथम तीन शताब्दियों का सुस्पष्ट और समाहित चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है ।
अश्वघोष और उनके नथ प्राचीन भारतीय इतिहास में अत्यंत प्रसिद्ध हैं,बुद्ध चरित और सौन्दरनन्द उनके प्रसिद्ध काव्य ग्रन्थ हैं । बुद्ध चरित में बुद्ध का जीवन और उनके धार्मिक सिद्धान्त काव्यशैली में प्रतिपादित किये गये हैं ।
सौन्दरनन्द में सुन्दरी और नन्द के राग-विराग का चित्रण तथा नन्द को बुद्ध धर्म में दीक्षित करने का उपाख्यान दिया गया है । कीथ के अनुसार "यदि अनुश्रुति का प्रमाण स्वीकृत कर लिया जाय तो अश्वघोष के समय का निर्धारण कनिष्क के समय पर आधारित होगा, जिसके लिये लगभग १०० ई० के समय का अनुमान अब भी ठीक प्रतीत होता है ।" विन्टरनीज महोदय भी चीनी और तिब्बती प्रमाणों के आधार पर अश्वघोष को कनिष्क का समकालीन (ईसा की द्वितीय शताब्दी)मानते हैं' । कनिष्क का समय विवादग्रस्त हैं यद्यपि अधिकांश विद्वान उसे ईसा की प्रथम शताब्दी (७८ ई०)में रखते हैं । अश्वघोष को भी इसीलिए अधिकांश विद्वान ईसा की प्रथम शताब्दी में ही रखते हैं ।
'उपलब्ध अवदान ग्रन्थों में अवदान शतक सबसे प्राचीन प्रतीत होता है । ऐसा कहा जाता है कि तृतीय शताब्दी ई० के पूर्वार्द्ध में चीनी भाषा में उसका अनुवाद किया गया था । अवदान शतक में "दीनार 'शब्द का प्रयोग होने से उसका समय १०० ई० से पूर्व नहीं हो सकता३ ।' ' परन्तु दीनार शब्द के प्रमाण पर हीविन्टरनीज महोदय उसका समय ईसा की दूसरी शताब्दी मानते हैं । नारीमैन भी उसे दूसरी शताब्दी मे ही रखते है' । यह तो ज्ञात ही है कि प्राचीन भारत में विमकदफिसस के समय से भारतीय सिक्के रोमन सिक्कों (डिनेरियस ऑरियस)से प्रभावित हुए थे । कनिष्क के समय ये सिक्के प्रचलित ही थे । गुज युग में भी दीनार का प्रचलन होता रहा । अवदान शतक सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं,इसीलिये इसका समय सिक्को के आधार पर ईसा की पहली शताब्दी अथवा उसके कुछ पहले माना जा सकता है, जबकि महायान धर्म का उदय हो चुका था ।
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