Look Inside

भारतीय संस्कृति का इतिहास: (The History of Indian culture)

FREE Delivery
Express Shipping
$22
Express Shipping: Guaranteed Dispatch in 24 hours
Quantity
Delivery Ships in 1-3 days
Item Code: HAA138
Publisher: Vijay Kumar Govindram Hasanand
Author: पं० भगवद्दत्त: (P. Bhagavddat)
Language: Hindi
Edition: 2019
ISBN: 9788170771379
Pages: 224
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 240 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description
<meta http-equiv="Content-Type" content="text/html; charset=windows-1252"> <meta name="Generator" content="Microsoft Word 12 (filtered)"> <style> <!-- /* Font Definitions */ @font-face {font-family:Mangal; panose-1:2 4 5 3 5 2 3 3 2 2;} @font-face {font-family:"Cambria Math"; panose-1:2 4 5 3 5 4 6 3 2 4;} @font-face {font-family:Calibri; panose-1:2 15 5 2 2 2 4 3 2 4;} /* Style Definitions */ p.MsoNormal, li.MsoNormal, div.MsoNormal {margin-top:0in; margin-right:0in; margin-bottom:10.0pt; margin-left:0in; line-height:115%; font-size:11.0pt; font-family:"Calibri","sans-serif";} p.msochpdefault, li.msochpdefault, div.msochpdefault {mso-style-name:msochpdefault; margin-right:0in; margin-left:0in; font-size:12.0pt; font-family:"Times New Roman","serif";} p.msopapdefault, li.msopapdefault, div.msopapdefault {mso-style-name:msopapdefault; margin-right:0in; margin-bottom:6.0pt; margin-left:0in; text-align:justify; line-height:12.0pt; font-size:12.0pt; font-family:"Times New Roman","serif";} .MsoChpDefault {font-size:12.0pt;} @page WordSection1 {size:595.3pt 841.9pt; margin:1.0in 1.0in 1.0in 1.0in;} div.WordSection1 {page:WordSection1;} --> </style>

पं. भगवद्दत्त

 

आपका जन्म अमृतसर में 27 अक्टूबर 1863 को लाला चन्दलाल के यहाँ हुआ था। बी.ए. करने के पश्चात् आप सर्वात्मना वैदिक अध्ययन और शोध में लग गए। कुछ काल डी.ए.वी. कॉलेज लाहौर में अध्यापन करने के पश्चात् महात्मा हंसराज के अनुरोध से आप उसी कॉलेज के अनुसंधान विभाग में आ गए तथा 19 वर्ष तक इसी कार्य में लगे रहे। इस अवधि में आपसे कॉलेज का संग्रह किया और अनेक ग्रन्थों का लेखन एवं संपादन किया। देश विभाजन के पश्चात् आप दिल्ली आ गए और पंजाबी बाग में रह कर पुन: लेखन एवं शोध में लग गए। परोपकारिणी सभा ने 1923 में आपको अपना सदस्य मनोनीत किया। 22 नवम्बर 1968 को आपका निधन हो गया।

 

पुस्तक के संबंध में

 

आर्य समाज में वैदिक शोध का प्रवर्तन सच्चे अर्थों में पं. भगवद्दत्त का लेखन माना जा सकता है। उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर वैदिक साहित्य की विविध विधाओं का ऐतिहासिक सर्वेक्षण एवं मूल्यांकन कर वैदिक विद्वत्-समुदाय को चकित कर दिया।

इसमें पाश्चात्य विद्वानों तथा उनके अंध अनुयायी भारतीय इतिहासकारों की कालगणनाओं तथा समूचे इतिहास को मात्र दो-तीन सहस्राब्दियों में सीमित कर देने के दुष्प्रयत्नों का खण्डन किया गया है। साथ ही पुराणोक्त राजवंशावलियों की सहायता से भरत खण्ड के अत्यन्त प्राचीन इतिहास को क्रमबद्ध और व्यवस्थित किया गया है।

वस्तुत: हमें भारतीय-परम्परा का ज्ञान भूल-सा रहा है, अत: लेखन ने उसके पुनर्जीवन का यह प्रशंसनीय प्रयास किया है। इस पुस्तक में भूमि सृजन से आरम्भ करके उत्तरोत्तर-युगों के क्रम से घटनाओं का उल्लेख है। अति विस्तृत विषय को यहां थोड़े स्थान में ही लिपिबद्ध किया गया है, अत: यह पुस्तक भारतीय संस्कृति का दिग्दर्शन मात्र है। इसे पढ़ कर साधारण छात्र औन विद्वान दोनों लाभ उठा सकेंगे।

 

भूमिका

 

भारतीय सरकार के इण्डियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (I.A.S) ट्रेनिंग स्कूल में पाँच वर्ष तक मुझे भारतीय-संस्कृति पर व्याख्यान देने का अवसर मिला । अगले पृष्ठ उन्हीं व्याख्यानों का हिन्दी में संक्षेप हैं । चिर-काल से मुझे यह अनुभव हो रहा था कि योरोपीय लेखकों ने भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास का जो कलेवर खड़ा किया है, वह तर्क, विज्ञान और यथार्थ-इतिहास की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । अत: मैंने परम्परागत सर्वस्जीकृत- काल-क्रमानुसार भारतीय इतिहास और उसके विभिन्न अंकों का पढना आरम्भ कर दिया । गत चालीस वर्ष के अविश्रान्त-परिश्रम ने इसी मार्ग को ठीक पाया । फलत:यह इतिहास उसी मार्ग पर चलकर लिखा गया है । निश्चय ही भारतीय विद्वान् अति प्राचीन काल से अपना इतिहास लिखते और सुरक्षित करते रहे हैं । केवल मुसलमानी-शासन के दिनों में यह परम्परा कुछ उच्छिन्न हुई ।

I.A.S स्कूल में पढ़ने वाले योग्य छात्र और विशेष कर फारेन सर्विस के छात्र प्रति वर्ष यही कहते थे कि भारतीय-संस्कृति विषयक-योरोपीय विचार वे अंग्रेजी पुस्तकों में थोड़ा-बहुत पढ़ चुके हैं । संसार के विभिन्न देशों के लोग दूतावासों के उनसे पूर्ववर्ती सज्जनों से प्रश्न करते रहते हैं कि इस विषय पर भारतीय-मत बताओ, अत: भारतीय पक्ष का ज्ञान उनके लिए परम आवश्यक हो गया है ।

वस्तुत: भारतीय छात्रों को भारतीय-परम्परा का ज्ञान भूल-सा रहा है. अत: उसका पुनर्जीवन आवश्यक है । फिर भी योरोपीय लेखकों द्वारा कल्पित तिथियों और तद्विषयक उनके विचार भी मैंने यत्र-तत्र लिख दिये हैं ।

इस इतिहास में भूमि-सजन से आरम्भ करके उत्तरोत्तर-युगों के कम से घटनाओं का उल्लेख है । यह कम बनावटी नहीं यथार्थ है । भारतीय संस्कृति इसके बिना समझ ही नहीं आ सकती । इन पृष्ठों में दी गई काल-गणना आदि के प्रमाण मद्रचित वैदिक वाङ्मय का इतिहास. भारतवर्ष का वृहद् इतिहास तथा भाषा का इतिहास में मिलेंगे ।

इस इतिहास के पहले सत्ताईस अध्यायों में जो कुछ लिखा गया है, उसका अधिकांश भाग प्राचीन लेखों का अनुवादमात्र है । मैंने अपनी ओर से लिखने का प्रयास बहुत थोड़ा किया है । अनेक स्थानों पर प्रत्येक वाक्य के लिए मूल ग्रन्यों के प्रमाण उपस्थित किये जा सकते हैं । पर ग्रन्थ के अधिक विस्तृत होने के भय से ऐसा किया नहीं गया । अर्वाचीन कालों और विचार धाराओं का इतिहास भी सप्रमाण ही है ।

कला-विषयक सत्ताईसवें अध्याय: में पूर्व-लिखित कुछ बातें स्वस्थ विस्तार से दोहराई गई हैं, ऐसा करना आवश्यक था । अति विस्तृत विषय को यहाँ थोड़े स्थान में ही लिपिबद्ध किया गया है । अत: यह पुस्तक वैदिक भारतीय संस्कृति का दिग्दर्शन-मात्र है । इसे पढ़कर साधारण छात्र और विद्वान् दोनों लाभ उठा सकेंगे ।

मैं श्री बापट जी प्रिंसिपल और श्री जे.डी. शुक्ल जी I.C.S. उपप्रिंसिपल का हार्दिक धन्यवाद करता हूँ, जिनकी कृपा से मैं I.A.S. श्रेणियों में व्याख्यान देता रहा और इस विषय का विस्तृत अध्ययन कर पाया ।

पूर्वलिखित पक्तियाँ, रविवार 9.10.55 को लिखी गई थीं । उस समय इस ग्रन्थ का संक्षिप्त पूर्व रूप प्रकाशित होने वाला था, पर कारण विशेष से वह प्रकाशित नहीं हुआ । अब श्री गोविन्दराम हासानन्द दूकान के स्वामी श्री विजयकुमार जी ने मुझे बाध्य किया कि मैं इसे प्रकाशित कराऊँ । मैंने कहा कि ग्रन्थ का परिमार्जन और परिवर्धन आवश्यक हो गया है । उन्होंने यह स्वीकार कर लिया । तदनुसार ग्रन्थ का पर्याप्त भाग दोबारा लिखा गया और कई नए अध्याय: जोडे गए ।

इस ग्रन्थ के प्रकाशन में आर्य संस्कृति के अनन्य उपासक पूज्य श्री नारायण स्वामी जी का महान् योगदान है । उनका सतत प्रोत्साहन और स्वच्छ स्नेह मेरा मार्ग विस्तृत करता है । गत दो वर्ष में यह तीसरा ग्रन्थ है, जिसमें उनका सहयोग प्राप्त हुआ है । डालमिया दादरी सीमेंट के प्रमुख प्रबन्धक श्री राजेश्वर जी भी वैदिक विज्ञान के प्रति मेरा उत्साह बढाते हैं इन सबका मैं आभारी हूँ ।

यह ग्रन्थ भारत के प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री जी के शासनकाल में प्रकाशित हो रहा है । उनके नेतृत्व में अभी सात दिन हुए, जब भारत ने पाकिस्तान के छल, कपट के युद्ध के ऊपर एक महान विजय प्राप्त किया है । पर उस छल के घोर मेघ अभी छाए हुए हैं ।

 

प्रकाशकीय

 

वैदिक वाङ्मय की चर्चा हो या संस्कृत साहित्य की, या इन्हीं जैसे किसी विषय पर संगोष्ठी हो, या लिखना हो तो पण्डित भगवद्दत जी के नाम का उल्लेख अवश्य होता है । विश्वभर के वैदिक-संस्कृत साहित्यकार, इतिहासकार, पुरातत्वविद् उनकी प्रतिभा का लोहा मान चुके हैं और आने वाले दिनों में भी मानेंगे । इन विषयों पर उन्होंने गवेषणात्मक एवं प्रमाणिक लेखनी चलाई है । उन्होंने अपनी रचनाओं को लिखने में अथक परिश्रम किया है ।

वैदिक- भारतीय संस्कृत वाङ्मय के साथ-साथ विश्व साहित्य का भी उन्होंने गहन अध्ययन किया था । फिर कहीं जाकर उन्होंने लिखना प्रारम्भ किया । तभी तो उनकी लिखी रचनाओं को सराहा और बहुत चाव से पड़ा जाता है । बड़े-बड़े विद्वान, लेखक. शोधकर्ता आदि अपने शोध, लेखन-वाचन में उनकी रचनाओं के उद्धरणों को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हैं । उनकी सभी रचनाएँ शोध पर आधारित हैं । '' भारतीय संस्कृति का इतिहास ''उनकी प्रसिद्ध रचना है । पण्डित जी ने इसमें भारतीय संस्कृति का इतिहास खंगाला है और ' गहरे पानी पैठ ' की भाति उन्होंने इसमें संस्कृति के मूल तत्वों का विस्तार से विवेचन किया है । इसमें वैदिक काल से लेकर अधुनातन काल तक की वैदिक- भारतीय संस्कृति का कालक्रम एवं प्रमाणिक विवेचन किया गया है । पण्डित जी बहुत ही स्वाध्याशील थे । जब तक किसी विषय में वह स्वयं पूरी तरह से सराबोर नहीं हो जाते थे, तब तक उस विषय पर वह अपनी लेखनी नहीं चलाते थे । वे वैदिक मान्यताओं का सारे संसार में प्रचार-प्रसार करने के लिए आजीवन प्रयासरत रहे । इसलिए उन्हें महर्षि दयानन्द के अनुयायियों में वर्णाश्रम धर्म के पालन में आ रही शिथिलता को लेकर बडी चिन्ता थी । तभी तो वह इस पुस्तक में लिखते हैं-'' आर्य परिवारों में वैदिक संस्कार-प्रथा अति शिथिल हो रही है । इस प्रकार वर्णाश्रम मर्यादा का बहिष्कार किया जाता है । सायं-प्रात: सन्ध्या आदि न करके सायं समय क्लबों में जाकर अनेक अंग्रेजी पढ़े अपने समय का यथार्थ लाभ प्राप्त न कर जीवन नष्ट करते हैं।ये पंक्तियाँ उन्होंने आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व लिखी थीं । आज उन्हें हम सच होता देख रहे हैं । सभी लोग वैदिक भारतीय संस्कृति को जानें-मानें एवं स्वाध्यायशील बनें, इस पुनीत भावना के साथ इसे प्रकाशित कर रहे हैं ।

सन्ध्या आदि न करके सायं समय क्लबों में जाकर अनेक अंग्रेजी पढ़े अपने समय का यथार्थ लाभ प्राप्त न कर जीवन नष्ट करते हैं।ये पंक्तियाँ उन्होंने आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व लिखी थीं । आज उन्हें हम सच होता देख रहे हैं । सभी लोग वैदिक भारतीय संस्कृति को जानें-मानें एवं स्वाध्यायशील बनें, इस पुनीत भावना के साथ इसे प्रकाशित कर रहे हैं ।

 

विषय-सूची

जीवन परिचय: पं० भगवद्दत्त

7

भूमिका

13

प्रकाशकीय

16

अध्याय: एक

भूमिसृजन

17

अध्याय: दो

कृतयुग

20

अध्याय: तीन

आर्य और भारतवर्ष

22

अध्याय: चार

कृतयुग का अदिकाल

28

अध्याय: पाँच

देवयुग

35

अध्याय: छह

देवयुग की विशेष देन

45

अध्याय: सात

त्रेता आरम्भ

50

अध्याय: आठ

त्रेता के अन्त तक

59

अध्याय: नौ

भारत में आयुर्वेद का अवतार

66

अध्याय: दस

द्वापर से भीष्म पर्यन्त

73

अध्याय: ग्यारह

महाभारतयुद्धकाल

87

अध्याय: बारह

आर्षकाल की समाप्ति

97

अध्याय: तेरह

वैज्ञानिक आविष्कार

103

अध्याय: चौदह

जैनमत-तीर्थंकर पार्श्वनाथ

108

अध्याय: पन्द्रह

भागवत मत

116

अध्याय: सोलह

शुङ्ग और काण्वकाल

128

अध्याय: सत्रह

भारतीय संस्कृति का विभिन्न देशों पर प्रभाव

131

अध्याय: अठारह

पञ्चतन्त्र-इसका विश्वव्यापी प्रभाव

141

अध्याय: उन्नीस

आन्ध्र और शक-काल

144

अध्याय: बीस

गुप्त साम्राज्य

151

अध्याय: इक्कीस

तर्क-संघर्ष का उत्कर्ष

157

अध्याय: बाईस

गुप्तों के पश्चात् हर्षवर्धन तक

165

अध्याय: तेईस

वैदिक संस्कृति के विकार और अवान्तर विकार

172

अध्याय: चौबीस

इस्लाम मत का भारत आगमन

174

अध्याय: पच्चीस

दशम शती के मध्य से संवत् 12000 तक

182

अध्याय: छब्बीस

प्राकृतों और अपभ्रंशों का साम्राज्य

189

अध्याय: सत्ताईस

भारतीय कलाएँ

194

अध्याय: अट्ठाईस

प्रान्तीय भाषाओं की उत्पत्ति और भक्तिधारा

202

अध्याय: उनतीस

वर्तमान युग और आर्य संस्कृति

209

अध्याय: तीस

वर्तमान स्थिति में वैदिक संस्कृति के प्रति निरुत्साहकर तथ्य

220

 

 

 

 

 

**Contents and Sample Pages**












Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at [email protected]
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through [email protected].
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy

Book Categories