भारत सदियों से विदेशियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है । समय समय पर अनेक विदेशी यात्री भारत-भ्रमण के लिए आए, जिनमें से एक प्रमुख यात्री, इब्नबतूता अरब देश से 14वीं शताब्दी में यहां आया था । भारत में मौलाना बदरुहद्दीन तथा अन्य पूर्वी देश में शेख शमसुद्दीन कहलाने वाले इस इतिहास-प्रसिद्ध यात्री का वास्तविक नाम अबु अब्दुल्ला मुहम्मद था । यह 22 वर्ष की उम्र में विश्व-भ्रमण के लिए निकला और लगातार 30 वर्ष तक घूमता रहा । इब्नबतूता ने अपनी यात्रा के वृतांत में उस सदी के भारत के शासकों, सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं, रीति -रिवाजों आदि का रोमांचक आखों देखा हाल वर्णित किया । उसने तत्कालीन भारतीय इतिहास की अन्य बातों पर भी प्रकाश डाला है जिनसे कुतबउद्दीन ऐबक की दिल्ली विजय-तिथि, वंगाल के मुसलमान गवर्नरों का शासनकाल, तुगलक वंश का तुर्क जातीय होना, कोरोमंदल तट के मुस्लिम शासकों का वृत और तत्कालीन भारतीय मुद्रा आदि विषयों की जानकारी मिलती है ।
इब्नबतूता ने अपनी यात्रा का सत्त वृतांत मूल रुप सै अरबी भाषा में लिखा था । तत्पश्चात इसका अनुवाद उर्दू कै साथ फ्रेंच, जर्मन और अंग्रेजी में भी हुआ । इसका हिन्दी अंनुवाद पहली वार सन् 1933 में श्री कासी विद्यापीठ, बनारस द्वारा प्रकाशित किया गया था । उसी अनुवाद का पुनर्मुद्रण ट्रस्ट ने इस पुस्तक के रूप में किया है ।
प्राक्कथन
वर्षों की बात है, जब पुरातत्व विभाग की एक रिपोर्ट पढ़ते समय बतूता से मेरा सर्वप्रथम परिचय हुआ था । उसी समय से मैं इसकी खोज में था; परंतु कुछ तो आलस्यवश और कुछ अन्य कार्यो में लग जाने के कारण, फिर बहुत दिन तक मैं इस पुस्तक को न देख सका । अब कोई तीन वर्ष हुए, यह पुस्तक भाग्यवश मुझको मिल गई .औंर इसमें तत्कालीन भारतीय समाज का सुचारु चित्र अंकित देख मैंने हिंदी भाषा-भाषियों को भी इसका रसास्वादन कराना उचित समझा ।
भारतीय इतिहास में यह पुस्तक अत्यंत महत्व की समझी जाती है । सन् 1809 से-जब इसका सर्वप्रथम परिचय फ़्रैच विद्वानों द्वारा सभ्य संसार को हुआ था-आज तक, जर्मन, अंग्रेजी आदि अन्य विदेशी भाषाओं में इस पुस्तक के समूचे, अथवा स्थलविशेषों के बहुत से अनुवाद होने पर भी हमारे देश में उर्दू को छोड़ अन्य किसी भाषा में इसका अनुवाद नहीं है । इस बड़ी कमी की पूति करने के विचार से ही मैंने यहां केवल भारत भ्रमण देने का प्रयत्न किया है।
पुस्तक की मूल भाषा अरबी से अनभिज्ञ होने के कारण, इस पुस्तक को मैंने, अर्थ से लेकर इति तक अन्य अनुवादों के आश्रय से ही लिखा है । इस विषय में श्री मुहम्मद हुसैन तथा श्री मुहम्मद हयात-उल-हसन महोदय की उर्दू कृतियों से और गिब्ज महोदय के 'अंग्रेजी अनुवाद' से यथेष्ट सहायता ली गई है । आवश्यकतानुसार स्थान स्थान पर नोटों को लाभदायक बनाने के विचार से कनिंगहम के 'प्राचीन भारत का भूगोल' (नवीन संस्करण) नामक ग्रंथ से भी कई बातें उद्धृत की गई हैं । इस प्रकार पुस्तक को उपादेय तथा रोचक बनाने के लिए मैंने यथासंभव कोई बात उठा नहीं रखी । अपने इस प्रयास में मैं कहां तक सफल हुआ हूं इसका निर्णय पाठकों पर निर्भर है ।
नगरों इत्यादि के संबंध में दिए हुए नोटों में मुझसे भूल होना संभव है । यदि विज्ञ पाठकों ने इस संबंध में मेरी कुछ सहायता की तो अगली आवृत्ति में त्रुटियां सुधार दी जाएंगी ।
जहां तहां अरबी तथा फारसी अंशों का अनुवाद कर देने के कारण, श्री जहीर आलम चिश्ती बी.ए., एल.एल.बी.; श्री मुहम्मद राशिद एम.ए., एल.एल.बी.; श्री बदरउद्दीन, बीए., एलएलबी; और श्री रघुनंदन किशोर बीए., एलएलबी. का, मैं अत्यंत ही अनुगृहीतहूं । इंडियन म्यूजियम के क्यूरेटर की क़ृपा से मु. तुगलक का चित्र तथा प्रिय मित्र बाबू लक्ष्मीनाराणजी (वकील) की कृपा से पुस्तक के अन्य चित्र उपलब्ध हुए हैं, राव चि. क़ृष्ण जीवन और श्री विनायकराव (गुरुकुल इंद्रप्रस्थ) ने अत्यंत परिश्रम से भारत का मानचित्र (गिब्ज के. अनुसार) तैयार किया, अत: ये सब धन्यवाद के पात्र हैं । अंत में मैं प्रकाशक महोदयों को भी धन्यवाद देना आवश्यक समझता हूं क्योंकि उन्हीं ने पुस्तक को प्रकाशित कर मेरा परिश्रम सार्थक बनाया है ।
भूमिका
भारत में मौलाना बदरुद्दीन तथा अन्य पूर्वी देशों में शैख शमसुद्दीन कहलाने वाले, इतिहास-प्रसिद्ध यात्री 'इब्नबतूता' का वास्तविक नाम 'अबू अब्दुल्ला मुहम्मद' था । 'इब्नबतूता' तो इसके कुल का नाम था, परंतु भाग्य से अथवा अभाग्य से, आगे चलकर संसार में यही नाम सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ । यह जाति का शैख था । इसका वंश संसार के इतिहास में, सर्वप्रथम, साइरैनेसिया तथा मिल के सीमांत प्रदेशों में, पयर्टक-जाति के रूप में प्रकट होने वाली लवात की बर्बर जाति के अंतर्गत था । परंतु इसके पुरखे कई पीढियों से मोराको प्रदेश के टैंजियर नामक स्थान में बस गए थे, और इसी नगर में 'शैख अगुल्ला' दिन (पुत्र) मुहम्मद बिन पुत्र) इब्राहीम के यहां 24 फरवरी 1304 ई. को इसका जन्म हुआ ।
इसके पिता क्या करते थे? इसका बाल्यकाल किस प्रकार बीता? इसने कहां तक शिक्षा पाई तथा किन किन विषयों का अध्ययन किया? इन प्रश्नों के संबंध में इसने कुछ भी नहीं लिखा है । केवल दिल्ली-सम्राट के सम्मुख स्वयं इसी के कहे हुए वाक्य के आधार पर कि 'हमारे घराने में तो केवल काजी का ही काम किया जाता है' और इसके अतिरिक्त यात्रा-विवरण में दिए हुए इस कथन के कारण कि 'इसका एक बंधु स्पेन देश के रौन्दा नामक नगर में काजी था', ऐसा अनुमान किया जाता है कि स्वदेश में इसकी गणना मध्यम वर्गीय उच्च कुलों में की जाती होगी; और इसने कुलोचित साहित्य एवं धर्मग्रंथों का भी अवश्य ही अध्ययन किया होगा । इस पुस्तक में दी हुई इसकी अरबी भाषा की कविता तथा अन्य कवियों के यत्र तत्र उद्धृत एक-दो चरणों से प्रतीत होता है कि यह प्रकांड पंडित न था। परंतु इस संसार-यात्रा में स्थान स्थान पर मुसलमान-संप्रदाय के धर्माचार्यों तथा साधु-महात्माओं के दर्शन करने को उत्कट अभिलाषा से इसकी धार्मिक प्रवृत्तियों का भलीभांति परिचय मिल जाता है। इसी धर्मावेश के कारण इस नवयुवक ने मातृभूमि तथा माता-पिता का मोह छोड़कर 22 वर्ष की (जो सौर वर्ष के अनुसार केवल 21 वर्ष 4 मास होती थी) थोड़ी सी अवस्था में ही, मक्का आदि सुदूर पवित्र स्थानों की यात्रा करने की ठान ली और 725 हिजरी में रजब मास की दूसरी तिथि (14 जून 1325) को बृहस्पतिवार के दिन यक्तिंचित धन लेकर ही संतुष्ट हो, उछाह भरे हुए चित्त से, माता-पिता को रोते हुए छोड़कर, बिना किसी यात्री-निर्धन साधु तथा धनी व्यापारी-का साथ हुए, अकेला ही, सुदूर मक्का और मदीना की पवित्र यात्रा करने चल दिया ।
स्पेन और मोराको से लेकर सुदूर चीन-पर्यत-उत्तरी अफ्रीका तथा समस्त पूर्वी एवं मध्य एशिया के प्रदेशों ने इस समय तक मुसलमान धर्म अंगीकार कर लिया था; केवल लंका और भारत ही इसके अपवाद थे, परंतु यहां (अर्थात भारत में भी अधिकांश भाग में मुसलमान ही स्वच्छंद शासक बने हुए थे । मक्का तथा मदीना की अपने जीवन में कम- से-कम एक बार यात्रा करना प्रत्येक सामर्थ्य वाले मुसलमान का धर्म होने के कारण इन सुदूरस्थ देशों की जनता को देशाटन करने के लिए एक तो वैसे ही धार्मिक प्रोत्साहन मिलता था, दूसरे, उससमय, धनी तथा निर्धन, प्रत्येकवर्ग के मुसलमानों को धार्मिक कृत्य में सहायता देने के लिए हर देश में अलग अलग संस्थाएं बनी हुई थीं जो यात्रियों के लिए प्रत्येक पड़ाव पर अतिथिशाला, सराय तथा मठ आदि में भोजनादि का, धर्मात्माओं द्वारा दिए हुए दान-द्रव्य से, उचित प्रबंध करती थीं; और कहीं कहीं तो चोर-डाकुओं इत्यादि से रक्षा करने के लिए साधु-संतों के साथ सशस्त्र सैनिक तक कर दिए जाते थे । इन सब सुविधाओं के कारण, तत्कालीन मुसलमान जनता 'एक पंथ दो काज' वाली कहावत को मानो चरितार्थ करने के लिए ही पुण्य के साथ साथ देशाटन का आनंद भी लूटती थी, और प्रत्येक पड़ाव पर उत्तरोत्तर बढ़ने वाले यात्रियों के समूह-के-समूह देश देश से एकत्र होकर पवित्र मक्का और मदीना की यात्रा करने चल देते थे ।
इस धार्मिक हेतु के अतिरिक्त, मध्ययुग में एशिया, अफ्रीका तथा यूरोप के मध्य स्थल- मार्ग द्वारा व्यापार होने के कारण, तत्कालीन संसार के राजमार्गो पर कुछ एक सुविधाओं के साथ चहल-पहल भी वनी रहती थी और सभ्य संसार के अधिक भाग पर मुसलमानों का आधिपत्य होने के कारण देशों का समस्त व्यापार भी प्राय: मुसलमान व्यापारियों के ही हाथों में था । वर्तमान काल की अपेक्षा ये सब सुविधाएं नगण्य होने पर भी, उस समय की परिस्थिति एवं अराजकता को देखते हुए कहना पड़ता है कि इन व्यापारियों द्वारा भी अकेले-दुकेले मुसलमान यात्रियों को धार्मिक भ्रातृ-भाव के कारण, अवश्य ही यथेष्ट सहायता मिलती होगी ।
हां, तो इन्हीं मध्ययुगीय राजमार्गो द्वारा बतूता ने भी अपनी प्रसिद्ध ऐतिहासिक यात्रा प्रारंभ की थी । घर से कुछ टूर अकेले चलने के पश्चात तिलिमसान (तैलेमसैन) नामक नगर से कुछ ही आगे इसका और ट्यूनिस के दो राजदूतों का साथ हो गया, परंतु यह स्थायी न था और कुछ ही पड़ाव चलने पर उनमें से एक का देहांत हो जाने के कारण, यह ट्यूनिस के व्यापारियों के साथ हो लिया और फिर अलजीरिया, ट्यूनिस होते हुए समुद्र के किनारे किनारे सूसा और स्फाव आदि नगरों की राहसे 5 अप्रैल 1326 ई. को एलैंक्जैंड्रिया' जा पहुंचा ।
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