पुस्तक के विषय में
एक बार पंजाब के श्री लाला लाजपत राय, भाई परमानंद तथा (स्वर्गीय भरत सिंह के चाचा) सरदार अजीत सिंह (तीनों आर्य समाजी) को सरकार ने चुपचाप रातों रात उठा लिया। और किसी को पता न चलने पर इस तरह बरमा में (मांडले ले गए जिसका पता बाद में चला।) काफी देर तक नजरकैद रखा था और सन् 1907 में छोड़ दिया था। उस अवधि में सूरत शहर में श्री रासबिहारी घोष की अध्यक्षता में कांग्रेस का अधिवेशन होनेवाला था, आर्य समाजियों ने सोचा कि समाज का उत्सव मानाया जाए लाला लाजपतराय को जो हाल ही में जेल से छूटे थे उन्हें सूरत कांग्रेस में जाते हुए अहमदाबाद उतार लिया जाए और उनकी अध्यक्षता में तीन दिन का उत्सव काफी धूमधाम से मनाया जाए। और जनता में जागृति लाई जाए। श्रीयुत लालाजी को निमंत्रण भेजा गया और लालाजी ने उसको स्वीकार कर लिया। चुस्त आर्यसमाजी होने के कारण वे काफी उत्साहित हुए। अब तमाम तरह की वर्वस्था करने के लिए अमेरिका से हाल ही लौटे स्वामी शंकरानंद-जो लंबे-चौ़ड़े, छह फीट ऊँचे और शरीर से अलमस्त थे-उन्हें बुलाया गया। और वे तुरंत आ भी गए। इस सबके लिए सेक्रेटरी चाहिए था, लेकिन सेक्रेटरी होने के लिए कोई भी राजी नहीं था। सारे लोग ब्रिटिश गवर्नमेंट से डरते थे क्योंकि आर्यसमाज पर गवर्नमेंट की कड़ी नजर थी। सरकार का मानना था कि आर्यसमाज एक क्रांतिकारी बॉडी है। सभा में सौ-डेढ़ सौ लोग एकत्रित हुए थे, लेकिन सेक्रेटरी बनने के लिए कोई तैयार नहीं था। उस समय मेरा क्रांतिकारी स्वभाव जो अभी तक सुपुष्त स्थिति में था वह उभरकर एकदम बाहर आ गया। सब के बीच मैं खड़ा हो गया और मैंने अपना नाम सेक्रेटरी के लिए सुझाया। मेरी बात सुनकर तो सब स्तब्ध रह गए। मुझे सलाह देने लगे कि आप गवर्नमेंट सरवेंट हैं, इसलिए आपको सेक्रेटरी बनने की सलाह देना उचित नहीं है, आपको काफी नुकसान उठाना पड़ेगा। नौकरी भी खोनी पड़ेगी। उस समय का मेरा उत्साह जबरदस्त था। मैंने सब कुछ सोच-विचार रखा था, इसलिए मैं दृढ़ रहा और कहा कि जो भोगना पड़ेगा उसे भोगने की मेरी तैयारी है ही, बस!
प्रकाशकीय
भारतीय स्वाधीनता-आंदोलन की लय ने पूरे भारतीय मानस को नई प्रेरणादायी गांधी-चिंतन ज्योति से भर दिया था। भारतीय चिंतन परंपराओं में जो भी मूल्यवान था-गांधीजी उसी की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति थे। देश के मानस ने पहली बार इतने बड़े संत-योद्धा का साक्षात्कार किया था। प्रेरणानायक गांधीजी ने सोए भारतीय जनमानस को नवजागरण का मंत्र देकर जागृत किया। देश का जन-जन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शोषण तंत्र से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर उठा। गांधी विचार प्रवाह में आकर डॉ. श्री मणिधर प्रसाद जैसे देशभक्त देश के मुक्ति-संग्राम में कूद पड़े। उनका समूचा जीवन महात्मा गांधी के आदर्शों की छाया में ही खिला और फला-फूला था। गांधी जी ने जिन-जिन नए मूल्यों, प्रतिमानों को जनता के समक्ष रखा था उन्हें आत्मसात करने के सफल प्रयत्नों की यह अमिश्रित कथा है। एक खास अर्थ में यह गांधी के सत्यनिष्ठ-सेवक की तप-कथा है।
दरअसल डॉ. मणिधर ने अपने जीवन में घटनेवाली महत्त्वपूर्ण घटनाओं की एक डायरी लिखी थी । उस डायरी ने इला रमेश भट्ट को इतना प्रभावित किया कि डॉ. मणिधर की महानता की ओर तो उनका ध्यान गया ही, उनके मानस में यह बीज- भाव का संकल्प भी जन्मा कि इस डायरी को नए युवकों, प्रबुद्ध पाठक समाज के लिए उपलब्ध कराया जाए ताकि यह नई पीढ़ी उस समय के इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा राजनीति से साक्षात्कार कर सके। आज हम भारतीय स्वाधीनता-आंदोलन और गांधी जी के जीवन-तप-त्याग को भूल गए हैं और उत्तर आधुनिकतावाद की झोंक में पड़कर देशभक्ति का पद गाली बन गया है। देशभक्ति एक सतही, छिछला, भावुकता से भरा प्रत्यय बनकर रह गया है। आज तो हमारी स्मृति को ही मिटाने का एक बड़ा भारी षड्यंत्र चल रहा है ताकि हमें विस्मृति के अंधकार में धकेलकर औपनिवेशिक आधुनिकता की पराधीनता से भरी चिंतना में घेरकर रखा जा सके। आज इस असहनीय स्थिति ने बाजारवाद और भूमंडलीकरण की राजनीति में 'तीसरा देश' घोषित कर हमें अपने जाल में घसीट लिया है। भारत फिर से पश्चिमवाद, अमेरिकावाद का उपनिवेश बनने जा रहा है। इस चुनौती भरे समय में हमें गांधी जी की याद आना स्वाभाविक है। इस विषम स्थिति से गांधी जी ही हमें मुक्ति की दिशा और दृष्टि दे सकते हैं । गांधी जी की सार्थकता आज भी हमारे लिए कम नहीं हुई है। आज भी हमारा भारत गांधी जी के उजड़े स्वप्नों का देश है-जिसमें हमारे पुरखों की पवित्र आत्मा निवास करती है। इस स्थिति-परिस्थिति में विदुषी इला बहन की यह प्रेरणा-स्मृति 'महात्मा की छाया में' को विशेष आदर के साथ पाठक समाज को ग्रहण करना होगा। इला बहन ने 'भूमिका' में बहुत संयमित ढंग से कहा है कि' 12 मार्च, 1930 को गांधीजी ने पैदल ऐतिहासिक दांडी कूच शुरू की । इससे पहले वे रोज आश्रम में हृदयस्पर्शी भाषण देते थे । मणिधर जी नियम से उन भाषणों को पढ़ते थे । उन पर मनन करते थे । गांधीजी से रूबरू तो वे बहुत बार नहीं हुए थे, लेकिन समकालीन गांधी साहित्य ही उनका प्रेरणास्रोत होता था ।'
विदुषी कवि-कलाविद् ज्योत्स्ना मिलन जी ने मनोयोगपूर्वक 'महात्मा की छाया में' पुस्तक का सर्जनात्मक अनुवाद गुजराती से हमारे पाठक समाज के लिए किया है। मैं उनके प्रति हृदय से कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। आज का संत्रस्त, कुंठाग्रस्त, बेचैन मानव-समाज इस पुस्तक में बहुत कुछ ऐसा पाएगा, जो उसे अपनी व्याधियों से मुक्त होने के लिए मार्ग दिखाएगा । इसी विश्वास के साथ पुस्तक पाठक समाज को सौंपता हूँ ।
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Hindu ( हिंदू धर्म ) (12487)
Tantra ( तन्त्र ) (987)
Vedas ( वेद ) (705)
Ayurveda ( आयुर्वेद ) (1890)
Chaukhamba | चौखंबा (3352)
Jyotish ( ज्योतिष ) (1442)
Yoga ( योग ) (1092)
Ramayana ( रामायण ) (1389)
Gita Press ( गीता प्रेस ) (731)
Sahitya ( साहित्य ) (23027)
History ( इतिहास ) (8219)
Philosophy ( दर्शन ) (3376)
Santvani ( सन्त वाणी ) (2532)
Vedanta ( वेदांत ) (121)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist