मीरा का तर्क और बुद्धि से मत सुनना।
मीरा का कुछ तर्क और बुद्धि से लेना देना नहीं है।
मीरा को भाव से सुनना, भक्ति से सुनना, श्रद्धा की आंख से देखना।
हटा दो तर्क इत्यादि को, किनारे सरका कर रखा दो।
थोड़ी देर के लिए मीरा के साथ पागल हो जाओ।
यह मस्तों की दुनिया है।
यह प्रेमियों की दुनिया है।
तो ही तुम समझ पाओगे, अन्यथा चूक जाओगे।
मीरा कहती है खूब रस बहर रहा है, खूब रस बढ़ रहा है, खूब परमात्मा बरस रहा है! फाग हो रही है। ऐसी फाग तुम्हारे जीवन में भी हो सकती है। मीरा पर हम विचार इसीलिए करेंगे कि शायद मीरा को सुनते सुनते तुम्हारे हृदय को भी पुल लग जाए। बगिया से कोई गुजरता है, तो चाहे फूलों को न भी छुए तो भी वस्त्रों में थोड़ी फूलों को न भी छए तो भी वस्त्रों में थोड़ी फूलों की गंध समा जाती है। माली फूल तोड़ कर बाजार ले जाता है, लौट कर पाता है कि हाथ फूलों की सुवास से भर गए हैं।
मीरा को सुनते सुनते शायद रस की एकाध दो बूंद तुम्हारे चित्त में भी पड़ जाएं। और ध्यान रखना, रस की एक एक बूंद एक एक सागर है। एक बूंद तुम्हें सदा को डुबाने को काफी है। क्योंकि फिर अंत नहीं आता। एक बूंद आई कि सिलसिला शुरू हुआ। पहली बूंद आई कि सिलसिला शुरू हुआ। पहली बूंद ही कठिन बात है। फिर तो सब सरल हो जाता है।
खोलना अपने हृदय को। इन आने वाले दस दिनों में नाचना, गाना, आनंदित होना, ऊंचे चढ़ चढ़ कर देखने की कोशिश करना।
भक्ति है नाचा हुआ धर्म। और धर्म नाचता हुआ न हो तो धर्म ही नहीं। इसलिए भक्ति ही मौलिक धर्म है आधारभूत।
धर्म जीता है भक्ति की धड़कन से। जिस दिन भक्ति खो जाती है उस दिन धर्म खो जाता है। धर्म के और सारे रूप गौण हैं। धरम के और सारे ढंग भक्ति के सहारे ही जीते हैं।
भक्त है तो भगवान है। भक्त नहीं तो भगवान नहीं। भक्त के हटते ही धर्म केवल सैद्धांतिक चर्चा मात्र रह जाती है फिर उसमें हृदय नहीं घड़कता फिर उसमें रसधार नहीं बहती फिर उसमें रसधार नहीं बहती फिर नाच नहीं उठता।
और यह सारा अस्तित्व भक्त का सहयोगी है, क्योंकि यह सारा अस्तित्व उत्सव है। यहां परमात्मा को जानना हो तो उत्सव से जानने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। आंसू भी गिरें, तो आनंद में गिरें। पीड़ा भी हो, तो उसके प्यार की पीड़ा हो।
देखते है। चारों तरफ प्रकृति को! उत्सव ही उत्सव है। नाद ही नाद है। सब तरह के साज बज रहे हैं। पक्षियों में, पहाड़ों में, वृक्षों में, सागरों में सब तरफ बहुत बहुत ढंगों और रूपों में परमात्मा होली खेल रहा है।कितने रंग फेंकता है तुम पर! कितनी गुलाल फेंकता है तुम पर! और अगर तुम नहीं देख पाते, तो सिवाय तुम्हारे और कोई जिम्मेवार नहीं।
प्रस्तावना
मीरा के इन पदों में प्रवेश के पहले इस बात को खूब खयाल में ले लो, क्योंकि ये सारे पद मीरा के प्रेम के पद हैं । मीरा प्रेम का रुबाब लेकर बजाती है । बड़ा रस है इनमें । आसू भी बहुत है । प्रेम भी बहुत हैं । आनंद भी बहुत है । सबका अदभुत समन्वय है । क्योंकि भक्त आनंद से भी रोता है, क्योंकि जितना मिला वह भी क्या कम है! भक्त विरह में भी रोता है, क्योंकि जो मिला उससे और मिलने की यास जग गई है । भक्त धन्यवाद में भी रोता है, क्योंकि जितना मिला है वह भी मेरी पात्रता से ज्यादा है । और भक्त अभीप्सा में भी रोता है कि जब इतना दिया है तो अब और मत तरसाओ, और भी दो ।
तो इन आसुओ में तुम आनंद के आसू भी पाओगे, विरह के आसू भी पाओगे, अनुग्रह के आसू भी पाओगे, अभीप्सा के आसू भी पाओगे । इन आसुओ में बड़े स्वाद हैं । और मीरा से सुंदर आसू तुम और कहां पा सकोगे? ये भजन ही नहीं हैं, ये गीत ही नहीं है इनमें मीरा ने अपना हृदय ढाला है । अगर तुम सावधानी से प्रवेश करोगे इन शब्दों में, तो तुम मीरा को जीवित पाओगे । और जहां मीरा को जीवित पा लिया, वहां से कृष्ण बहुत दूर नहीं हैं । जहां भक्त है वहां भगवान है । भक्त को समझ लिया तो भगवान के संबंध में श्रद्धा उत्पन्न होती है । भगवान तो दिखाई पड़ता नही अदृश्य है । भक्त दृश्य है ।
कृष्ण को जानना हो, मीरा को सेतु बनाओ । और मीरा से अपूर्व सेतु तुम कहीं पा न सकोगे । क्योंकि भक्त तो पुरुष भी हुए है, लेकिन पुरुष अंतत पुरुष है । उसके प्रेम में भी थोड़ी परुषता होती है । रोता भी है तो झिझक कर रोता है शरमाता शरमाता । नाचता भी है तो संकोच से । पुकारता भी है परमात्मा को तो चारों तरफ देख लेता है कोई सुनता तो न होगा! यह स्वाभाविक है । स्त्री हृदय जब पुकारता है तो निसंकोच पुकारता है । पुकार स्वाभाविक है वहां । स्त्री हृदय जब रोता है तो उसे संकोच नहीं होता । आसू सहज हैं, स्वस्फूर्त है ।
ये भजन मीरा ने बैठ कर नहीं लिखे है, जैसे कवि लिखते हैं । ये नाचते नाचते पैदा हुए है । इनमें अभी भी उसके शर की झंकार है । ये अभी भी ताजा हैं । ये कभी बासे नहीं पड़ेंगे । जो बैठ बैठ कर कविताएं लिखता है, उसकी कविताएं तो जन्मने के पहले ही मर गई होती हैं । जन्म ही नहीं पाती हैं, या मरी हुई ही जन्मती हैं । ये गीत कविता की तरह नहीं लिखे गए है । यही इनका गौरव है, गरिमा है । यही इनकी महिमा है । ये पैदा हुए है नाचते नाचते किसी धुन मे, नाचते नाचते अनायास! इनके लिए कोई प्रयोजन नही था, कोई चेष्टा नहीं थी ।
मीरा कोई कवि नहीं है । मीरा भक्त है । कविता तो ऐसे ही आ गई है, जैसे तुम राह पर चलो और तुम्हारे पैर के निशान धूल पर बन जाएं । बनाने नहीं चाहे थे, बनाने निकले नहीं थे, सोचा भी नही था राह से गुजरे थे, धूल पर निशान बन गए आकस्मिक हुआ । धूप मे चले थे पीछे पीछे छाया चली । छाया चलाने को न चले थे । छाया पीछे चले, इसकी कोई योजना भी न थी, न कोई विचार किया था । ऐसे ही ये गीत पैदा हुए हैं । मीरा तो नाचने लगी । मीरा तो नाचती चली । ये पगचिह्न बन गए ।
इन पगचिह्नों में अगर तुम गौर से उतरो, प्रेम से उतरो, सहानुभूति से उतरो, तो तुम्हें मीरा के ही पैर नहीं, मीरा के पैरों के भीतर जो नाच रहा था, उसकी भी भनक मिलेगी । इन शब्दों में मीरा के ही शब्द नहीं मीरा के हृदय में जो विराजमान हो गया था उसका स्वर भी लिपटा है । ये मीरा ने अकेले गाए, ऐसा मानो ही मत । अकेले मीरा ये गा ही नहीं सकती । ऐसे अपूर्व गीत अकेले गाए ही नहीं जाते । ये परमाल। ने मीरा के साथ साथ गाए हैं । मीरा तो जैसे बांसुरी थी, गाए परमात्मा ने ही है । मीरा तो जैसे केवल माध्यम थी, ये बहे तो उसी से है । इस भाव को लेकर हम इन अपूर्व शब्दो मे उतरें ।
अनुक्रम
1
भक्ति एक विराट प्यास
9
2
मनुष्य अनखिला परमात्मा
33
3
मीरा से पुकारना सीखो
59
4
समन्वय नहीं साधना करो
85
5
हे री! मैं तो दरद दिवानी
113
6
संन्यास है दृष्टि का उपचार
139
7
भक्ति का प्राण प्रार्थना
171
8
जीवन का रहस्य मृत्यु में
201
भक्ति चाकर बनने की कला
231
10
प्रेम श्वास है आत्मा की
261
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