हिन्दी ज्ञानेश्वरी: Jnaneshvari

FREE Delivery
Express Shipping
$27
$36
(25% off)
Express Shipping: Guaranteed Dispatch in 24 hours
Quantity
Delivery Ships in 1-3 days
Item Code: NZA914
Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan, Varanasi
Author: संत ज्ञानेश्वर (Sant Gyaneshwar)
Language: Hindi
Edition: 2009
Pages: 468
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 420 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description

पुस्तक के बारे में

श्री एकनाथ महाराज द्वारा ज्ञानेश्वरी संशोधन के बाद

ज्ञानेश्वरी के सम्बन्ध में लिखे गये पद्य

शालिवाहन के शक संवत् १५०६ में तारणनाम संवत्सर में, जनार्दन स्वामी के शिष्य एकनाथ महाराज ने गीता पर लिखी टीका'ज्ञानेश्वरी'को मूल पाठ गीता के साथ मिला कर शुद्ध किया । यह ग्रन्थ मूलरूप में ही शुद्ध था, किन्तु लोगों द्वारा किये गये पाठ- भेदों के कारण कहीं-कहीं कुछ असंगत बातें आ गयी थीं। उसमें संशोधन कर ज्ञानेश्वरी को शुद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है। श्री एकनाथ महाराज कहते हैं कि जिनकी गीता पर लिखी टीका पढ़ने से, अत्यंत भावप्रधान एवं गीतार्थ ज्ञान की इच्छा रखकर पढ़ने वाले को गीता का सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है, उन निष्कलंक श्री ज्ञानेश्वर महाराज को मेरा नमस्कार। बहुत दिन के बाद आने वाले इस पर्व का संयोग भाद्रपद की कपिला षष्ठी को प्राप्त हुआ। उस दिन गोदावरी के तट पर पैठण नामक क्षेत्र में ज्ञानेश्वरी का पाठ शुद्ध करने का कार्य सम्पन्न हुआ। ज्ञानेश्वरी के पाठ में जो मराठीसेवी अपना पद्य जोड्ने का प्रयत्न करेगा, वह अन्त के थाल में मानों नरेली (नारियल की खाली खोपड़ी)रखेगा।

भूमिका

मुगलों के शासन के पूर्व ज्ञानदेवकालीन महाराष्ट्र एक सुखसम्पन्न राष्ट्र था। उस समय वहाँ यादव वंश का रामदेवराय यादव शासन की बागडोर सँभाले हुए था। महाराष्ट्र के लिए वह सुख एवं समृद्धि का काल था और जनता स्वराज्य के सुख का अनुभव कर रही थी। राजा को विद्या तथा कलाओं के प्रति अनुराग था। हेमाद्रि पण्डित सरीखा धुरंधर राजकर्त्ता उसका प्रधानमंत्री था तथा हेमाडपंत जैसा विद्वान उसकी सभा में महत्वपूर्ण पद पर आसीन था। उसने अनेक कलाओं को प्रश्रय दिया तथा राष्ट्र की संस्कृति के संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह ठीक है कि तब तक महाराष्ट्र में इस्लामी आक्रमण की शुरुआत नहीं हुई थी किन्तु हिंदूधर्म अब उतना चुस्त नहीं रह पाया था । उसकी पहले की तेजस्विता समाप्त हो चुकी थी । लोग धर्म का अंतरंग स्वरूप भूल चले थे और बाह्य आडंबरों के मोहजाल में फँस रहे थे। इस अवस्था का लाभ उठाकर जैन, लिंगायत आदि धर्म-संप्रदाय किसी न किसी बहाने सिर उठाने का प्रयास कर रहे थे। इस स्थिति का सामना करने की दृष्टि से उस समय तीन संप्रदाय प्रचलित थे- वैष्णव संप्रदाय, नाथ संप्रदाय तथा भागवत संप्रदाय । इनमें से नाथ संप्रदाय नितांत उदार था तथा इसे अधिकांश लोगों का समर्थन प्राप्त था। भागवत धर्म ही पंढरपुर का वारकरी संप्रदाय है। इन संप्रदायों की एक विशेषता यह थी कि इनमें परस्पर द्वेषभाव नहीं था। संत ज्ञानेश्वर पहले नाथ संप्रदाय में दीक्षित थे, किन्तु अपने व्यापक मानवतावादी दृष्टिकोण के कारण उन्होंने वारकरी पंथ की स्थापना की। इस पंथ का उद्देश्य था अद्वैत भक्ति। भले ही यह पंथ चातुर्वर्ण्य का पोषक था किन्तु परमार्थ के मामले में वह किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं रखता था।

ज्ञानेश्वरजी की गणना महाराष्ट्र के नितांत लोकप्रिय एवं श्रेष्ठ संतों में होती है। नाथपंथी साधुओं के सम्पर्क एवं उत्तर- भारत के प्रवास के कारण उन्होंने मराठी के साथ-साथ हिन्दी जनमानस में भी प्रवेश कर लिया था। सामान्य जनता के लिए उन्होंने 'श्रीमद्भागवत'की सरल एवं सुबोध मराठी में टीका लिखी। यह ग्रन्थ अपने पदलालित्य एवं भाषामाधुरी आदि गुणों के कारण मराठी का उच्चकोटि का मालिक ग्रन्थ बन गया। इस ग्रन्थ के अतिरिक्त उन्होंने'अनुभवामृत', 'चांगदेव पासष्टी'एवं एक हजार के लगभग अभंग लिखे । संत ज्ञानेश्वर ने साधारण जनता में जिस चेतना को जगाने का प्रयास किया, उसे प्रत्यक्ष जीवन में साकार करने के लिए नामदेवजी ने अत्यन्त निष्ठा से काम किया।

ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठलपंत के पूर्वज पैठण के निकट आपेगाँव के निवासी थे। विट्ठलपंत को बचपन से ही वेदों के अध्ययन में रुचि थी। वे स्वभाव से विरागी प्रवृत्ति के पुरुष थे। संत समागम में उन्हें विशेष आनन्द प्राप्त होता था। शायद इसीलिए वे विवाह के प्रति उदासीन थे । बाल्यावस्था में ही वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़े थे। यात्रा के दौरान जब वे पूना के निकट आलंदी नामक गाँव में पहुँचे, तो वहाँ उनकी भेंट सिधोपंत से हुई जो वहाँ के पटवारी थे। सिधोपंत विट्ठलपंत के चालचलन एवं निर्मल व्यवहार से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनसे अपनी कन्या के विवाह का प्रस्ताव किया। विट्ठलपंत ने प्रस्ताव तो सुन लिया लेकिन तुरंत कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। लेकिन कहते हैं कि विट्ठलपंत को इस विवाह के बारे में स्वप्न में साक्षात्कार हुआ था। उसके अनुसार, उन्होंने विवाह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। लेकिन उनका मन गृहस्थी में नहीं लगा। उन्हें मन ही मन अपनी गलती पर पश्चात्ताप हो रहा था। इसी बीच विट्ठलपंत ने अपनी पत्नी तथा सास-ससुर के साथ पंढरपुर की यात्रा की और फिर वहाँ से वे आपेगाँव चले गये । इस बीच उनके माता-पिता का देहावसान हो गया। विट्ठलपंत अब घर के प्रति और भी अधिक उदासीन हो गये। एक दिन वे घर से गंगास्नान का बहाना करके जो निकले तो वापस नहीं लौटे। वे सीधे काशी पहुँचे। वहाँ वे श्री श्रीपादस्वामी से मिले और उनसे संन्यास की दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने बताया कि मैं अविवाहित हूँ।

समय बीत रहा था और विट्ठलपंत की पत्नी रुक्मिणी अपने पति की याद में परमेश्वर का चिंतन करती हुई समय काट रही थीं । इसी बीच उनके कान में कहीं से भनक पड़ी कि विट्ठलपंत ने काशी जाकर संन्यास ग्रहण कर लिया है। उसने अपने धार्मिक अनुष्ठान और व्रत आदि और भी तेज कर दिये। इसे संयोग नहीं तो और क्या कहा जाए कि उसी समय श्रीपादस्वामी अपने कुछ शिष्यों के साथ तीर्थयात्रा पर निकले थे और यात्रा के क्रम में आलंदी आ पहुँचे थे । आलंदी में जिस मारुति के मंदिर में वे ठहरे हुए थे, उसी मंदिर में विट्ठलपंत की पत्नी रुक्मिणी नित्य दर्शन के लिए आती थीं। उसने श्रीपादस्वामी को भक्तिभाव से नमस्कार किया । श्रीपादस्वामी के मुख से सहसा निकल पड़ा- 'पुत्रवती भव'। उस अवस्था में भी रुक्मिणी को हँसी आ गयी । स्वामीजी ने उससे हँसने का कारण पूछा तो वह बोली, ' मेरे पति तो काशी जाकर संन्यास ले चुके हैं । आपका आशीर्वाद भला किस तरह फलीभूत होगा?' स्वामीजी ने रुक्मिणी से उसके पति की हुलिया पूछी और रुक्मिणी ने जो वर्णन किया उसे सुनकर उन्हें लगा कि हो न हो, यह वही आदमी है जो' चैतन्याश्रम स्वामी' के नाम से दीक्षित है । उन्हें स्वयं पर ग्लानि होने लगी कि मैंने बिना अच्छी तरह जाँच-पड़ताल किये, एक गृहस्थ को संन्यासाश्रम मैं दीक्षित कर दिया। वे रुक्मिणी को साथ लेकर उसके माँ-बाप के पास गये और बाद मैं काशी जाकर चैतन्याश्रम स्वामी से पूरा विवरण पूछा। उन्होंने उसे गृहस्थाश्रम- धर्म निभाने की आज्ञा दी। विट्ठलपंत पुन: गृहस्थ बन गये। उनके इस प्रकार गृहस्थाश्रम में पुन: प्रवेश पर समाज को गहरी आपत्ति हुई। उनका कहना था कि इससे संन्यासाश्रम तथा गृहस्थाश्रम दोनों ही कलंकित हुए हैं। लेकिन समाज की प्रताड़ना से विट्ठलपंत पहले से भी अधिक -गंभीर और अध्ययनरत हो गये। इधर पतिव्रता रुक्मिणी ने अल्पसमय में ही तीन पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया। पहले निवृत्तिनाथ का जन्म हुआ, फिर ज्ञानदेव का, फिर सोपानदेव और अन्त में मुक्ताबाई।

उधर ब्राह्मण समाज द्वारा बहिष्कृत कर दिये जाने के कारण विट्ठलपंत की आर्थिक अवस्था अत्यंत शोचनीय हो गयी थी। उन्हें किसी भी घर से भिक्षा नहीं मिलती थी। तृण और पत्ते खाने की नौबत आ गयी थी। उनके बच्चों की आयु भी बढ़ रही थी। गनीमत यही थी कि उनके बच्चे कुशाग्र बुद्धि के होने के कारण वे उनकी पढ़ाई-लिखाई की ओर से निश्चित थे। लेकिन जब निवृत्तिनाथ की आयु सात वर्ष की हो गयी, तो विट्ठलपंत को उसके यज्ञोपवीत की चिंता सताने लगी। उन्होंने ब्राह्मण समाज से प्रार्थना की कि मुझ पर लगाया गया प्रतिबंध हटा लिया जाए और मुझे समाज में पुन: स्वीकार कर लिया जाए। किंतु उनकी प्रार्थना जब किसी ने स्वीकार नहीं की तो वे अपने परिवारजनों के साथ त्र्यंबकेश्वर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपना एक नित्यक्रम बना लिया था। वे मध्यरात्रि में उठकर कुशावर्त्त में स्नान करते और तब अपने परिवार जनों के साथ ब्रह्मगिरि की परिक्रमा करते। उनका यह क्रम लगभग छह माह तक अखंड चलता रहा और शायद आगे भी चलता रहता लेकिन एक दिन एक विलक्षण घटना घटी। जिस समय वे लोग परिक्रमा कर रहे थे, उसी समय एक बाघ कूदता-फाँदता वहाँ आ पहुँचा। उसे देखते ही सारे लोग घबरा गये और इधर-उधर हो गये। उनके बड़े पुत्र निवृत्तिनाथ भी अंजनी पर्वत की एक गुफा में छिप गये। उसी गुफा में नाथ संप्रदाय के आचार्य श्री गहिनीनाथ अपने दो शिष्यों के साथ तपश्चर्या कर रहे थे। निवृत्तिनाथ उनके चरणों पर गिर पड़े। उन्होंने निवृत्तिनाथ को 'राम कृष्ण हरि'का मन्त्र दिया और कृष्ण की उपासना का प्रचार-प्रसार करने की सलाह दी।

काल का चक्र अपनी गति से अखंड चल रहा था, किन्तु विट्ठलपंत अपने पुत्रों का यज्ञोपवीत न हो सकने के कारण दुःखी थे । अपने परिवार के साथ वे आपेगाँव भी गये और वहाँ के ब्राह्मणों से, अपने बच्चों के यज्ञोपवीत के सम्बन्ध में चर्चा की । लेकिन ब्राह्मणों ने विट्ठलपंत की एक न सुनी। उलटे उन्हें अपराधी घोषित कर उन्हें मृत्युदंड का प्रायश्चित्त करने की आज्ञा दी। ब्राह्मणों की आज्ञा शिरोधार्य कर एक दिन विट्ठलपंत ने अपने बच्चों को भगवान भरोसे छोड़ दिया और पत्नी को साथ लेकर प्रयाग चले गये, जहाँ उन्होंने जलसमाधि ले ली। विट्ठलपंत का बलिदान तत्कालीन रूढ़िवादी एवं स्वार्थलोलुप समाजपतियों के वहशीपन पर करारा व्यंग्य है।

विट्ठलपंत के लड़के इधर-उधर भीख माँग कर किसी प्रकार जीवन-यापन कर रहे थे, किन्तु प्रतिभाशाली होने के कारण, साधारण जनसमुदाय उनसे अत्यन्त प्रभावित हुआ। कुछ ब्राह्मण उनका शुद्धिकरण चाहते तो थे, किन्तु उन्हें इस बात की आशंका थी कि इससे अन्य लंपट किस्म के लोग भी जब चाहे संन्यासी बन जायेंगे और जब चाहे गृहस्थाश्रम में आकर सांसारिक सुख का भोग करेंगे। यह जान लेने पर विट्ठलपंत और उनकी पत्नी ने जलसमाधि ले ली। ब्राह्मण कुछ दयालु हो गये किन्तु उनके बच्चों की शुद्धि के लिए क्या उपाय किया जाए यह बात उनकी बुद्धि में नहीं आ रही थी । वैसे, चारों बालक ब्राह्मणोचित सभी कर्मों में पारंगत थे। उनके मन में तो उन बच्चों के प्रति केवल घृणाभाव था जिसे वे ठीक तरह से व्यक्त नहीं कर पा रहे थे । 'निवृत्ति', 'ज्ञानदेव'जैसे नामों का वे उपहास करने लगे। तभी एक आदमी अपने भैंसे को लेकर उधर से ही गुजर रहा था । उसकी ओर संकेत करते हुए एक कठबुद्धि वाले पण्डित ने कहा, '' नाम में ही क्या रखा है?' इस भैंसे का भी नाम 'ग्यान्या'है ।''इस पर ज्ञानेश्वर ने कहा,'' आप ठीक ही तो कह रहे हैं । उसकी और मेरी आत्मा एक ही है।''ज्ञानदेव चुपचाप भैंसे के पास जाकर खड़े हो गये । उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, '' हे ज्ञान के देवता, आप समागत पंडितों को अपने श्रीमुख से वेदमंत्रों का उच्चारण कर यह प्रमाणित कर दें कि हम शुद्ध हैं।''

ज्ञानदेव की बातें सुनकर पंडितों का समूह अट्टहास कर उठा और दूसरे ही क्षण भैंसा गंभीर स्वर में वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगा। यह एक ऐसा चमत्कार था, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी।

अंत में पंडितों ने डरते-डरते कहा, ''बेटा ज्ञानदेव, निःसंदेह तुम लोग शुद्ध हो । हम सब एक मत से इसे स्वीकार करते हुए तुम्हें शुद्धिपत्र दे रहे हैं । हम सब अज्ञानी कर्मकांडी हैं । तुम लोगों के प्रति किये गये व्यवहार के लिए क्षमा चाहते हैं।''

लेकिन इतना सब होने के बाद भी पैठण के पंडितों ने अपनी कुटिलता का परिचय दे ही दिया। उन्होंने विट्ठलपंत के चारों बच्चों को उनके पिता के कलंक से तो मुक्त कर दिया किन्तु शुद्धिपत्र में यह शर्त भी जोड़ दी कि इनमें से कोई भी बालक विवाह और संतानोत्पत्ति नहीं करेगा, क्योंकि इससे हिदू समाज के प्रदूषित होने का खतरा है।

ज्ञानेश्वर ने इस आज्ञा को शिरोधार्य किया। उन्होंने भाइयों को समझाया कि समाज के नियमों का उल्लंघन करना हानिकारक है। अब तीनों भाई ब्रह्मचर्याश्रम का पालन करते हुए रहने लगे। मुक्ताबाई भी ब्रह्मचारिणी होकर जीवन-यापन करने लगी । बाद में ये भाई-बहन पैठण से नेवासे पहुँचे। कहते हैं कि वहाँ एक स्त्री अपने पति का शव गोद में रखकर विलाप कर रही थी। ज्ञानेश्वर ने जब उस स्त्री से उसके पति का नाम पूछा तो उसने अपना नाम सच्चिदानंद बतलाया। उन्होंने आश्चर्य से कहा, ''क्या सत् चित् और आनंद की मृत्यु हो सकती है? मृत्यु तो उसे स्पर्श भी नहीं कर सकती।'' इतना कहकर उन्होंने उसके शरीर पर ज्यों ही हाथ फेरा त्यों ही वह उठ कर खड़ा हो गया। वही व्यक्ति आगे जाकर सच्चिदानंद बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुआ और उसने ही 'ज्ञानेश्वरी'को लिपिबद्ध किया । 'ज्ञानेश्वरी'का लेखन शक संवत् १२१२ या वि०सं० १३४७ में नेवासे के महालया मंदिर में संपन्न हुआ। उस समय उनकी आयु केवल १५ वर्ष थी ।

'ज्ञानेश्वरी'के बाद 'अमृतानुभव'की रचना हुई । नेवासा में अपना यह कार्य पूरा कर ज्ञानदेव अपने भाई और बहन के साथ आलंदी पहुँचे । किन्तु उनकी कीर्ति उनसे पहले ही वहाँ पहुँच चुकी थी। वहाँ के प्रसिद्ध योगिराज चांगदेव उनसे आकर मिले । इसप्रसंग पर ज्ञानेश्वरजी ने उन्हें ६५ ओवियों का जो उपहार भेजा वह 'चांगदेव पासष्टी'के नाम से प्रसिद्ध है ।

ज्ञानेश्वरजी अपने लेखन-कार्य की संपन्नता का श्रेय अपने गुरु निवृत्तिनाथ की कृपा को देते हैं। मराठी के प्रसिद्ध लेखक श्री पंढरीनाथ प्रभु ने ज्ञानेश्वरजी की इस कृतज्ञता का वर्णन इन शब्दों में किया है,'' मैं वाचन-पठन नहीं करता, शब्दों के नाप- तौल की कला नहीं जानता, सिद्धांतों का प्रतिपादन या अलंकार के सम्बन्ध में कोई ज्ञान नहीं रखता, फिर भी गुरु निवृत्तिनाथ की कृपा के कारण गीता जैसे ग्रंथ की भावार्थ अभिव्यक्ति का कार्य मैं कर सका ।''

विनम्र होने के साथ ही उनमें परम आत्मविश्वास भी था। ग्रंथनिर्मिति के संबंध में उनका वक्तव्य भले ही आत्मश्लाघा से भरा हुआ लगे, किन्तु उसमें उनका आत्मविश्वास ही झलकता है। उन्होंने कहा था, ''मेरी ओवी में एक साथ साहित्य और शतरस उसी प्रकार दृष्टिगोचर होंगे जैसे किसी स्त्री में लावण्य, सद्गुण, कुलीनता, पातिव्रत्य आदि।''

ज्ञानदेव किसी जाति या पंथ के प्रतिनिधि नहीं थे, बल्कि उनका हृदय समस्त प्राणिमात्र के कल्याण की चिंता मे व्याकुल रहता था। प्रोफेसर कामथ के अनुसार, ''ज्ञानदेव का हृदय सकल चराचर सृष्टि के विषय में अनुपम प्रीति भावना से ओतप्रोत था। परम पुरुष की अद्भुत शक्ति का विलक्षण भाव उनकी प्रतिभा को हो चुका था। ज्ञानदेव के रूप में साक्षात् ज्ञानभास्कर ही सहयाद्रि के पर्वतों पर उदित हुए थे।''

अपने ग्रंथ के माध्यम से जनता-जनार्दन में उसका प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से ज्ञानेश्वरजी ने तीर्थयात्रा करने का निश्चय किया । उस समय उनके मन में यह विचार आया कि नामदेव को भी साथ में ले लिया जाए। इसलिए उनसे आग्रह करने के लिए वे पंढरपुर गये । जब ज्ञानेश्वरजी ने उनसे यात्रा पर चलने का आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि मैं तो पूर्ण रूप से पंढरी के अधीन हूँ अत: आप उन्हीं से पूछिए।

यह तीर्थयात्रा काफी लंबी रही। इसमें प्रयाग, काशी, गया, अयोध्या, गोकुल- वृन्दावन, द्वारका, गिरनार आदि स्थलों के उन्होंने दर्शन किये और वहाँ के लोगों को दैवी प्रभाव से चमत्कृत किया। वहाँ से जब सब लोग पंढरपुर पहुँचे,1 तो नामदेव ने वहाँ एक बहुत बड़ा समारोह किया, जिसमें अनेक संत महात्मा सम्मिलित हुए थे ।

ज्ञानदेव ने नामदेव का हाथ क्या पकड़ा, वे भावी जीवन में उनके मार्गदर्शक भी बने। नामदेव उन्हीं के आदर्शो पर चले। उन दोनों का कहना था, ''जाति-पाँति के बंधन तोड़ दो, अपने कर्तव्य का अनुशासन स्वीकार करो, ज्ञान, कर्म और भक्ति के समभाव से सबको अपनाओ, सर्वत्र जीवन का शोध करो, संसार को आनन्द से भर दो...''

ज्ञानेश्वर और नामदेव की यह राह आगे चलकर कबीर और नानकदेव ने भी अपनायी । ज्ञान के दरवाजे सभी के लिए खोलने के लिए उन्होंने लोकभाषाओं का आश्रय लिया। ज्ञानेश्वर और कबीर इन दोनों का जन्म अलग- अलग कालखंडों में हुआ था किन्तु आज के संदर्भ में वे दोनों ही अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं। माचवेजी के शब्दों में, '' दोनों के जीवन में बड़ा साम्य है । संन्यासी के पुत्र होने के कारण ज्ञानेश्वर को सनातनी तथा रूढ़िग्रस्त समाज से उसी तरह अपमान और उपेक्षा सहनी पड़ी जैसे कबीर को। ज्ञानेश्वर के पिता को संन्यासी होने पर पुत्र प्राप्त हुआ, इसलिए उन्हें गंगा में कूदकर देहांत प्रायश्चित्त सहना पड़ा।''

कबीर पर तो नाथ संप्रदाय का असर बहुत स्पष्ट है। बौद्ध दर्शन के शून्य का उल्लेख कबीर में आता है ।

भारी कहु तो बहू डराऊँ ।

हलका कहूँ तो झूठ ।

मैं का जानूँ राम को ।

नैन कबहूँ न दीठ ।

ज्ञानदेव और नामदेव ने समाज-सुधार का वृहत् कार्य जिस दर्शन के आधार पर किया उसके प्रवर्त्तक ज्ञानदेव थे, प्रचारक नामदेव थे तथा प्रणेता कबीर थे । नामदेव ने ज्ञानेश्वर की जलायी हुई समाज-सुधार की मशाल को किस प्रकार आगे बढ़ाया उसका वर्णन डॉ० कामथ ने इन शब्दों में किया है-''ज्ञानदेव की महासमाधि के बाद नामदेव ने जनता को एक नया संदेश देने के लिए नामदेव भक्ति के रंग में सराबोर, नाचते-गाते, ज्ञानदीप जलाते (नाचू कीर्तनाचे रंगीज्ञानदीप लावू जगी)उत्तर की ओर चल पड़े। यह ईश्वर का घर है । वह संपूर्ण चराचर सृष्टि में समाया हुआ है । यहाँ अपना, पराया कुछ नहीं है। जो कुछ है, वह एक ही ईश्वर के विविध स्तरों का दर्शन है- सगुण कहो या निर्गुण कहो, ईश्वर एक ही है।''

'ज्ञानेश्वरी'मूलतय: गीता का भाष्य है। ज्ञानेश्वरजी शंकराचार्य के अद्वैतवाद से अत्यधिक प्रभावित थे। अत: कुछ लोग 'ज्ञानेश्वरी'को शंकरभाष्य का अनुवाद-मात्र समझने की भूल कर बैठते हैं। कितु वस्तुस्थिति यह नहीं है। ज्ञानेश्वरजी पर उपनिषदों तथा नाथपंथीय तत्वज्ञान का भी गहरा प्रभाव था।

ज्ञानदेव के तत्वज्ञान में उनके अपने जीवन के अनुभवों का निचोड़ मिलता है । उनके अनुसार देह अनित्य है, किन्तु आत्मा नित्य है। आत्मा निरपेक्ष है। आत्मस्वरूप ज्ञान और अज्ञान से परे है। ज्ञान, अज्ञान का नाश तो करता है कितु इस प्रक्रिया में स्वयं भी नष्ट हो जाता है । उसका उदय ही उसका अस्त है । किसी शायर ने क्या खूब कहा है-

'गुल--रंगी' ये कहता है कि खिलना हुस्न खोना है

मगर ग़ुँच: समझता है निखरता जा रहा हूँ मैं ।

ज्ञानेश्वरजी के अनुसार इस जगत में जो कुछ भी हुआ है, वह सब ईश्वर ही है । यह सारा जगत ईश्वर का ही विश्वरूप है । ईश्वर का विश्वरूप देखना दिव्य दृष्टि के बिना असंभव है । गीता में कृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान कर विश्वरूप का दर्शन कराया और बाद में कृष्णस्वरूप हो गये। विश्वरूप समेट लेने के बाद यह निश्चित हो गया कि जगत ईश्वर का ही अंग है। स्वयं स्फूर्तिवाद के प्रतिपादक होते हुए भी ज्ञानेश्वर को मायावाद का आश्रय लेना पड़ा । उन्होंने संसार को मायावादी कहा है और उसे पार कर लेने के लिए ईशस्तुति करने की सलाह दी है । उन्होंने मायावाद को सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत नहीं किया बल्कि इसलिए किया कि जगत नाशवान है और उसके प्रपंच में फँसने के बाद परमात्मा की प्राप्ति असंभव है । ज्ञानेश्वरजी के अनुसार ईश्वर को मनुष्य के रूप में देखना संकुचित मनोवृत्ति का परिचायक है । अत: उसे ब्रह्म से पिपीलिका तक देखना ही ज्ञान का द्योतक है, क्योंकि ईश्वर सहज, स्वयंभू है ।

२५ अक्टूबर सन् १२९६ई० गुरुवार की दोपहर में ज्ञानदेव समाधि में जाने के लिए तैयार हुए । उस समय उनकी आयु मात्र २१ वर्ष थी । कहा जाता है कि स्वयं पांडुरंग ने उन्हें तिलक लगाया, गले में माला पहनायी। नामदेव ने समाधिस्थल की सफाई की । इसके बाद ज्ञानदेव का एक हाथ साक्षात पांडुरंग ने तथा दूसरा हाथ निवृत्तिनाथ ने पकड़ा । ज्ञानदेव समाधिस्थल पर बैठकर इष्ट की स्तुति करने लगे ।

स्तुति समाप्त होते ही ज्ञानेश्वर ने अपनी आँखें बन्द कर लीं । निवृत्तिनाथ ने ऊपर से पत्थर की पटिया रखकर उसे ढँक दिया । यह दृश्य देखकर नामदेव पछाड़ खाकर गिर पड़े और बेहोश हो गये ।

इस घटना का वर्णन संत नामदेव ने इन शब्दों में किया है- '' मेरी पीड़ा को कौन जान सकता है? प्रेम विगलित होकर मेरी आँखों से अश्रुधारा बह निकली। शब्दों ने परम मौन में व्याघात पहुँचाने से इनकार कर दिया। मैंने स्वयं अपना जीवन उड़ कर जाते देखा। वे अनुभवों के आध्यात्मिक यथार्थ के सागर थे। वह अध्यात्म के गुह्य सत्य थे जो अपने श्रव्य शब्दों में आविर्भूत हुए थे। उन्होंने मानवता को कर्म- अकर्म की शिक्षा दी । उनकी यशोगाथा त्रैलोक्य में देदीप्यमान है। उन्होंने असंदिग्ध रूप से सिद्ध कर दिया कि अमरत्व वस्तुत: मनुष्य की चेतना में वास करने वाली सामान्य-सी वस्तु है। ज्ञानदेव समाधि में लीन हो गये और ब्रह्म से तदाकार हो गये ।"

इसके एक-दो वर्ष बाद ही क्रमश: सोपानदेव, मुक्ताबाई और निवृत्तिनाथ ने भी समाधि ले ली ।

सात सौ वर्ष पूर्व ज्ञानेश्वर परमब्रह्म में लीन हो गये, किन्तु ज्ञान की जो ज्योति उन्होंने प्रज्वलित की, वह आज भी जल रही है। उन्होंने अपनी ओवियों में समाज के जिन दुःखों को उकेरा है, वह केवल इसलिए कि वे उसे समाज के कोने-कोने तक पहुँचाना चाहते थे, क्योंकि वे जानते थे कि वे दुःख भले ही समाज द्वारा थोपे गये हों, लेकिन उन्हें भगवान के अलावा और कोई दूर नहीं कर सकता।वेदों ने तो शूद्रों और स्त्रियों को अपने ज्ञान से वंचित ही कर रखा था।''ज्ञानेश्वर ने महाराष्ट्र के लिए एक नया जीवन-दर्शन पढ़ा। विविध मानव-मूल्यों में संतुलन और समन्वय साध कर मराठी जनता के जीवन को संरक्षण और संवर्धन प्रदान किया। ज्ञानदेव और उनके अनुयायी सभी संत वैदिक हैं, किंतु वेदों का कर्मकांड उनमें नहीं है। उनकी भक्तिधारणा प्रवृत्तमार्गी है, किंतु फलाकांक्षा से मुक्त है। वे आतुर भक्त हैं, किन्तु उनकी भक्ति भय पर आधारित नहीं है।...इसीलिए परमतत्त्व के पारसस्पर्श-से निखरा हुआ यह भागवतधर्म न केवल मराठी जनता अपितु सभी भारतीयों का उत्तराधिकारी बन गया है।"

ऐसे अमूल्य ग्रंथ को हिंदी में लाने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ, इसे मैं ईश्वर की इच्छा का भाग समझता हूँ । यह अनुवाद मैंने ब्र० भू० विनायक नारायण जोशी(साखरे महाराज) कृत 'सार्थ ज्ञानेश्वरी'से किया है, जिसके लिए मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।

 

विषय-सूची

1

अर्जुन-विषाद योग

1

2

सांख्य योग

16

3

कर्मयोग

37

4

ज्ञान-कर्म-संन्याय योग

52

5

कर्म संन्यास योग

65

6

ध्यान योग (अभ्यास योग)

76

7

ज्ञान विज्ञान योग

101

8

अक्षर ब्रह्मयोग

113

9

राजविद्या राजगुह्य योग

127

10

विभूति योग

154

11

विश्वरूप दर्शन योग

172

12

भक्ति योग

208

13

क्षेत्रक्षेत्रज्ञ योग

220

14

गुणत्रय विभाग योग

277

15

पुरुषोत्तम योग

298

16

दैवासुर संपद्विभाग योग

329

17

श्रद्धात्रय विभाग योग

355

18

मोक्ष संन्यास योग

377

Sample Pages


Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at [email protected]
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through [email protected].
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy

Book Categories