कविकालिदास द्वारा विरचित उत्तम कोटि का यह एक संग्रह-ग्रंथ है । इस ग्रन्थ का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय मुहूर्त्त है । परन्तु मुक्तों के साथ-साथ धर्मशास्त्र तथा ज्योतिष के सिद्धान्त एवं संहिता- भाग के कुछ अंशों का भी स्थान-स्थान पर दिग्दर्शन कवि ने बड़ी कुशलता से कराया है । यथा कालमान आकाशीय उत्पात, श्राद्धकाल-निर्णय, वर्णाश्रम-धर्मकर्म-व्रत-निर्णय, युद्धयात्रा, कोटचक्र एवं अश्व-गज-कुलाल प्रभृति अन्य चक्रों का विशद विवेचन किया गया है ।
इस ग्रंथ में राजसत्ताध्याय त्रिविध यात्राप्रकरण एवं विवाह प्रकरण अति महत्वपूर्ण और विस्तृत हैं । इनमें दुर्लभ विषयों का संग्रह किया गया है । विविध कार्यों के लिए तथा अशुद्धि ज्ञात करने हेतु अनेक चक्रों का भी उल्लेख किया गया है ।
इस मथ के अवलोकन से मुहूर्त्तों का सम्बन्ध संहिता स्कन्ध से है-इस धारणा की पुष्टि होती है । ग्रंथ की भाषा सरस किन्तु क्लिष्ट है । इस ग्रन्ध की संस्कृत और हिन्दी-टीका ने ग्रन्थ को सुगम एवं सुबोध कर दिया है । टीकाओं के द्वारा कथ के गूढ़ विषयों को भी सरलतापूर्वक जाना जा सकता है ।
लेखक परिचय
डॉ० पाण्डेय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग में अध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं । आपने त्रिस्कन्ध- ज्योतिष में मौलिक रचना, सम्पादन एवं अनुवाद के माध्यम से विविध ग्रन्थों पर कार्य किया है ।
ग्रहलाघव पर आपने सर्वप्रथम नवीन उदाहरण प्रस्तुत कर हिन्दी अनुवाद एवं मल्लारि की संस्कृत व्याख्या सम्पादित की । इसके अतिरिक्त संस्कृत में चन्द्रगोलविमर्श नामक मौलिक ग्रन्थ है, जिसका प्रकाशन शिक्षामन्त्रालय, भारत सरकार ने करवाया ।
इसके अतिरिक्त मानसागरी मुहूर्तचिन्तामणि एवं ज्योतिर्विदाभरण का अनुवाद किया ।
आपने सर्व भारतीय काशिराज न्यास से प्रकाशित होने वाले वामन और कूर्म पुराणों में महत्वपूर्ण योगदान किया है ।
आजकल सिद्धान्त एवं फलित ज्योतिष सम्बन्धी प्रयोगात्मक अनुसंधान में भी संलग्न है ।
भूमिका
नम: पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नम:
ज्योतिर्गणाना पतये दिनाधिपतये नम:
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम:
नमो नम: सहस्रांशो आदित्याय नमो नम:
ज्योतिषशास्र को वेदपुरुष का कहा गया । छ: वेदांग में इसका उन्नत स्थान है । इसे समस्त ज्योतिष्पिण्डों का नियमन करने वाला खगोल शाख तथा काल को परिमाण में मापने वाला कालविधान शाख आदि नामों से भी जाना जाता है । वस्तुत: ज्योतिषशास्त्र के लिए अब तक जितनी परिभाषायें बनी हैं, सभी अधूरी तथा ज्योतिष शास्त्र की ऊँचाई के समक्ष वामन हैं। ज्योतिषशास्त्र का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि एक सीमित परिभाषा द्वारा नहीं व्यक्त किया जा सकता । इसीलिए प्राचीन आचार्यों ने कहीं भी इसकी सम्पूर्ण परिभाषा न लिखकर सिद्धान्त, संहिता और होरा नामक ज्योतिष के तीनों स्कन्धों की पृथक्-पृथक् परिभाषा दी है । संहिता भाग के विस्तार को दर्शाने हेतु वराहमिहिर ने बृहत् संहिता में संहितापदार्थाः-शीर्षक के अन्तर्गत संहिता स्कन्ध में वर्णित विषयों की अनुक्रमणी प्रस्तुत की है । उन्होंने भी यही सोचा होगा कि संहिता को परिभाषा में बाँधकर इसे सीमित करना उचित नहीं है । वस्तुत: ज्योतिष शास्त्र भारतीय संस्कृत वाङ्मय में एक अद्भुत विज्ञान है, जिसके अन्तर्गत ग्रह-गणना एवं काल-गणना के अतिरिक्त मानवीय प्रमुख आवश्यकताओं का भी विवेचन किया गया है । यथा ग्रहचार, ग्रहण एवं काल सम्बन्धी इकाइयों के विभाजन के अतिरिक्त ग्रहों का प्राणिमात्र पर प्रभाव, विविध संस्कारो एवं प्रमुख कार्यों के लिए शुद्धतम समय (मुहूर्त्त) का निर्धारण, वायु, वृष्टि एवं भूकम्प का ज्ञान, दैवी उत्पातों एवं आकाशीय नक्षत्रों के आधार पर देश पर सम्भावित विपदा का पूर्वाभास, पशु-पक्षियों की चेष्टाओं का ज्ञान, वृक्षों एवं कृषि सम्बन्धी विशिष्ट शान, गृह-दुर्ग, जलाशय एवं देवालय का निर्माण विधान, भूमिचयन, रोगशान, रोगशमन, रलपरिचय, शस्रनिर्माण, वजलेप प्रवृति आदि विषयों का विवेचन भी ज्योतिष शास्त्र के अन्तर्गत किया गया है। इस प्रकार अतिविस्तृत क्षेत्र को देखकर आचार्यों ने ग्रह गणित भाग को सिद्धान्तस्कन्ध नाम से पृथक् कर दिया। ग्रहगणना सम्बन्धी समस्त सिद्धान्तों कालपरिभाषा, काल के भेदों- प्रभेदों एवं यन्त्रों का प्रतिपादन सिद्धान्तस्कन्ध के अन्तर्गत कर दिया गया है । ग्रहजन्य प्रभाव एवं उनके ज्ञान की विधि, जातक के भावी शुभाशुभ का शान आदि होराशाख के अन्तर्गत निरूपित किया गया है । शेष (पूर्वोक्त) समस्त विषयों का ज्ञान संहिता स्कन्ध के अन्तर्गत किया है ।
मुहूर्त्तों की भी गणना संहिता के अन्तर्गत ही की गई है । कुछ आचार्यो ने मुहूर्त की गणना होराशास्त्र के अन्तर्गत की है । कुछ ग्रन्थ ऐसे भी उपलब्ध हैं, जिनमें मुहूर्त के साथ-साथ प्रश्न एवं होराशास्त्र से सम्बन्धित विषयों का भी प्रतिपादन किया गया हे । मुहूर्त्त शाख का इतिहास भी अति प्राचीन है। वैदिक काल से ही मुहूर्त्तों का व्यवहार होता आ रहा है । १ विविध यज्ञों एवं संस्कारों के सम्बन्ध में मास-नक्षत्र एवं अयन के संयोग से उपयुक्त काल के अन्वेषण एवं निर्धारण की प्रक्रिया उपलब्ध है । पश्चात् शनै:शनै सभी कार्यो के लिए मुहूर्त्तों का विधान हो गया तथा मुहूर्त्तों की लोकप्रियता भी बढ़ती गई। सभी संस्कारों के साथ-साथ कृषिकर्म (हलप्रवहण, बीजोप्ति, धान्यच्छेदन, कणमर्दन अन्न स्थापन आदि) व्यवसाय, वस्तुओं का क्रय-विक्रय, पशुओं का क्रय-विक्रय, ऋण का आदान-प्रदान, औषधि निर्माण, विक्रय, प्रयोग, यात्रा, राजाभिषेक, गृह-देवालय, जलाशय का निर्माण आदि समस्त व्यावहारिक कार्य मुहूर्तों द्वारा सम्पन्न होने लगे । आज के इतिहासकारों का कहना है कि भारतीय ज्योतिष को आज तक अपने अस्तित्व को बनाये रखने में मुहूर्त्तों का बहुत बड़ा योगदान है । मुहूर्तों की मांग ने ज्योतिषियों को ज्योतिष शाख की अध्ययन परम्परा को प्रचलित रखने को बाध्य किया। परिणामत: ज्योतिष का अध्ययनाध्यापन चलता रहा तथा इस शाल से सम्बन्धित ग्रन्थ निरन्तर प्रकाशित .होते रहे । मुहूर्तों की लोक-प्रियता का एक उदाहरण यह भी है कि संहिता स्कन्ध से पृथक् होकर स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में मुहूर्त विषय सम्पादित होने लगे । यथा-रत्नमाला, रत्नकोष राजमार्त्तण्ड, विद्वज्जनबल्लभ आदि। पश्चात् मुहूर्त्त सम्बन्धी यन्त्रों के नामों में मुहूर्त शब्द भी जुड़ने लगे । यथा- मुहूर्त्ततत्त्व, मुहूर्त्तमार्त्तण्ड, मुहूर्तचूड़ामणि, मुहूर्त्तचिन्तामणि आदि ।
मुहूर्त्तों का उद्देश्य कार्य की निर्विम्नता पूर्वक सिद्धि के लिए शुद्धतम काल का निर्धारण करना ही है । जिसके लिए एक विस्तृत एवं विभिन्न प्रकार के परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। मुहूर्त्त के निर्धारण में काल की विभिन्न परिभाषायें, ग्रहों के उदयास्त एवं बेध, वार, नक्षत्र, राशि एवं लग्नों के उदयास्त तथा सूर्य और चन्द्रमा के संयोग से उत्पन्न होने वाले तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण का अवलोकन करना होता है । नक्षत्रों एवं राशियों की विभिन्न संज्ञायें हैं; यथा-स्थिर, चर, उग्र, सूर आदि। कार्य की प्रकृति के अनुसार ही इनका चयन किया जाता है। वार, तिथि और नक्षत्रों के संयोग से विविध प्रकार के शुभ एवं अशुभ योग उत्पन्न होते हैं । यथा-सिद्धियोग, रवियोग, यमघण्टयोग, विषयोग, भद्रा आदि। सभी अशुभ योगों के एवं दोषों से रहित तथा कार्य के लिए विहित पंचाङ्गों (तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण) की उपलब्धि होने पर अभीष्ट कार्य सम्बन्धी समय स्थिर किया जाता है । यही मुहूर्त्त-निर्धारण कहलाता है ।
विषय सूची
मानप्रकरणम्
योगोत्पत्तिप्रकरणम्
भद्राप्रकरणम्
पर्वप्रकरणम्
ग्रहगोचरप्रकरणम्
उत्पातप्रकरणम्
संस्कारप्रकरणम्
उपवीतप्रकरणम्
विद्यारम्भविवेकप्रकरणम्
राजसत्ताध्याय:
त्रिविधयात्राध्यायप्रकरणम्
विवाहप्रकरणम्
विवाहप्रकणोत्तरार्धम्
वस्त्रालङ्कारधारणाध्याय
प्राकाराध्याय:
गृहप्रवेशे देवताप्रतिष्ठाप्रकरणम्
गृहप्रवेशप्रकणम्
अग्न्याधानादिविशेषसंस्कारप्रकरणम्
मिश्रप्रकरणम्
वर्णाश्रमकर्मसाधनप्रकरणम्
कालनिर्णयप्रकरणम्
ग्रन्थाध्यायनिरूपणम्
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