भारतीय दर्शनों के वन्य संस्कृत तथा प्राकृत दोनों ही भाषाओं में पाये जाते • है। जैन परम्परा तो संस्कृत के समान हो प्राकृत को भी महत्व देती है। इस कारण यहाँ मुख्य विषय पर आने से पूर्व भारतीय आर्य भाषाओं का निम्नलिखित सामासिक परिचय प्राप्त कर लेना प्रासंगिक प्रतीत होता है।
भारतीय बाङ्यम में संस्कृत और प्राकृत दोनों का भाषाएँ चिरकाल से, बक्षुण्ण रूप में, प्रवाहित होतो रही है। ऋग्वेद के त्रऋचाओं के दर्शन से यह अवगत होता है कि उस समय भी अनेक भागओं का अस्तित्व या एक देवी और दूसरी मनुष्यों के द्वारा गृहीत। काव्य का प्रथम स्थान स्तुति के रूप में उप- सब्ब होता है। यह एक शैली यो जिसके आधार पर काव्य का भेद मिलता है। आर्यों की मापा के अतिरिक्तएक मृध भाषा भी थी जो वैदिक कायों में बायों' के द्वारा उच्चारण आदि पर विशेष ध्यान दिए बिना ही व्यवहार में लाई गई थी, स्वभावतः यह भाषा मृदु किन्तु संस्कृत नहीं। यही कारण था कि इस भाषा का प्रयोग करने वाले अर्वेदिक माने गये और अनार्य होने से स्वभावतः शत्रु की कोटि में बा गये। किन्तु, मूल प्राकृत संस्कृत के साथ ही प्रचलित थी। फिर भी इसका बाध्य बादि ईसा से ६०० वर्ष से पूर्व का सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। इसी का संदेत बास्मोकीय रामायण में हनुमान से सीता के साथ बार्तालाप के प्रसंग में है- द्विजातियों द्वारा व्यवहुत संस्कृत का प्रयोग करने पर मुझे रावण मानने को सीता बाध्य हो जाएंगी। अतः प्राकृत भाषा का हो व्यवहार करना उचित है।
पालि भी काव्य भाषा के रूप में जन रंजन की दृष्टि से स्वीकृत हुई जो इसी का उपभेद है, किन्तु काव्य की रचना पालि में नगण्य ही रही।
प्राकृतों का क्रमिक इतिहास देखने से यह भो कहने को बाध्य होना पड़ता है कि पालि प्राकृत का ही एक रूप है जो विकास क्रम में आयी है, मागधी प्राकृत का ही एक रूपान्तर है, जिसे पालि के रूप में अभिहित किया गया है। प्राकृत, काल-गति के अनुसार, विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं का समूह है जो समय और स्थान के नवीन परिधान के साथ नूतन नाम में अवतीर्ण होतो रहती है। अतः प्राकृत के भेद का माप करना सर्वया सम्भव नहीं है। नाट्य-शास्त्र आदि के आधार पर विशिष्ट देश भेद के कारण मागधी, महाराष्ट्री आदि नाम से प्राकृत गिनाई गई है। पालि अपभ्रंश और प्राकृत में, प्राकृत एक ऐसो कड़ी है जो इन दोनों के साथ प्रकृति या विकृति के रूप में सम्बद्ध है। पालि को यदि पाल राज वंश एव बौद्ध धर्म मात्र से सम्बद्ध रूप में माने तो इसके क्षेत्र एवं ग्रन्य नगण्य नहीं है। काव्य के जिन प्रयोजनों का निर्देश आलंकारिक बावायों ने किया है वे प्रयोजन प्राकृत काव्यों में भी अविकल रूप से उपलब्ध हो रहे है। इतना सत्य है कि प्राकृत जन भाषा हो रही और वह देश के प्रत्येक कोने में व्याप्त थी ।
यहाँ प्रबन्ध का मुख्य आधार "भयण पराजय चरिउ" अपभ्रंश का एक खण्ड काव्य है। अतः इस प्रसंग में यह विचारणीय है कि इस काव्य का प्रधान रस किसको स्वीकार रिया जाय। नाटक में आनायों ने प्रथमतः आठ हो रस स्वीकार किए है। किन्तु आगे चलकर एक अन्य रस को भी स्थिति माननी पड़ी जिसे शान्त रस के द्वारा अभीहोत किया गया है। रजोगुण तमोगुण से बिहोन सत्त्वावस्यापन्न वित्त के ध्याह्यार्थ ज्ञान से शून्य की स्थिति में शान्त रस की स्थिति मानी गई है।
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