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काव्यदीपिका- 'प्रभा' हिन्दी टीका सहित: Kavyadeepika- 'Prabha' with Hindi Commentary

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Item Code: HAE496
Author: Kanti Chandra Bhattacharya
Publisher: Parimal Publication Pvt. Ltd.
Language: Hindi and Sanskrit
Edition: 2024
ISBN: 9788171109333
Pages: 165
Cover: HARDCOVER
Other Details 9x6 inch
Weight 354 gm
Book Description
भूमिका

मनुष्य मननशील प्राणी है, "मत्या फर्माणि सीव्यति इति मनुष्यः" यह मनुष्य शब्द की व्युत्पत्ति है- अर्थात् मननकर, सोच समझ कर किसी कार्य को करना मनुष्य का स्वभाव है, अन्य प्राणी वर्ग जहाँ कर्तव्याकर्तव्य का बिना विचार किये ही सहसा कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं वहाँ मनुष्य पद वाच्य प्राणी की यह विशेषता है कि वह क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए, बया धर्म है या क्या अधर्म है, यह सब विचार करके ही किसी कार्य में प्रवृत्त होता है। इसीलिए नीतिकारों ने भी कहा है कि "धमों हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः" यद्यपि अन्य आहार निद्रा भय मैथुन बादि सभी विषयों में मनुष्य और पशु समान ही हैं, परन्तु एक धर्म-कर्तव्या- कर्तव्य विचार ही ऐसा गुण है, जो पशुओं से मनुष्य को पृथक् करता है, यद्यपि कुछ आन्तरिक गुण भी भय राग द्वेष आदि भी पशु और मनुष्य में समान ही हैं, परन्तु वे इन गुणों को नियन्त्रित करने के लिए इनके ऊपर या इनका शासक विवेक-विचार मनुष्य के पास हैं, जिससे वह इन मूलप्रवृत्तियों का भी समुचित उपयोग करता है, और अपना कर्तव्याकर्तव्य समझता है। इसको इस तरह समझिये कि प्राणिमात्र के अन्तःस्तल में वर्तमान रागात्मिका भावना है वह आकीट-अर्थात् एक छोटे कीड़े से लेकर देवताओं तक सभी के अन्दर है, जिस तरह मनुष्य में राग-द्वेष है, वैसे पशु पक्षी में भी है, मनुष्य जिस तरह अपने अनुकूल वेदनीय पदार्थ में अनुराग करता, या प्रतिकूल पदार्थ से द्वेष करता है, ठीक यही हालत पशुओं में भी है, (पशु) गाय को यदि आप हरी- हरी घास दिखायेंगे तो वह अवश्य बड़े प्रेम से आपकी ओर बढ़ेगी, क्योंकि यह उसका प्रिय खाद्य है, और उसके अनुकूल है इसके विपरीत यदि आप डंडा लेकर क्रोष से उसकी ओर बढ़ेंगे तो वह आपसे दूर ही भागेगी, यह परिस्थिति उसके प्रतिकूल है, इन राग, द्वेष भयादिभावों में मनुष्य व पशुओं की अनुकूल या प्रतिकूल वेदनीयता समान ही परिलक्षित होती है, परन्तु जहाँ इन प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण की बात आती है, वहाँ पशु-पक्षी इस ओर मौन हैं, यह भार या कर्तव्य फिर मनुष्य पर आ पड़ता है, मनुष्य का जैसा स्नेह अपने बच्चों में है ठीक वैसा ही स्नेह गाय का भी अपनी बछिया पर है, फर्क इतना ही है मनुष्य पहले अपने वच्चों को खिलाकर खाता है, तो गाय को इतना विचार नहीं करना पड़ता वह हरी घास बछड़े का भी चट कर जायेगी, उसे यह ख्याल नहीं कि मैं यदि बछड़े की भी घास खा लूंगी तो बछड़ा भूखा न रह जाय, यह एक अलग से जिम्मेदारी कर्तव्य या विवेक का भार मनुष्य पर था जाता है, इसको आप मानवता कहें या धर्म कहें या सद्विचार कहें।

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