संस्कृत काव्यशास्त्र भारतीय मनीषा का अप्रतिम और अभूतपूर्व देन है जिसमें काव्य संबंधी सूक्ष्म से सूक्ष्मतर चिंतन हुआ, जो कि सार्वकालिक और सार्वभौमिक है। संस्कृत के काव्यशास्त्रियों ने काव्य के हरेक अंगों-उपांगों पर वाद-विवाद-संवाद किया और अपने-अपने दृष्टिकोणों से काव्य को परखा। भारतीय इतिहास में इसकी सुदीर्घ और वृहत परंपरा रही है जिसका समयकाल ६वीं शताब्दी से लेकर १७वीं शताब्दी तक माना जाता है। इन ग्यारह सी वर्षों में भामह, दंडी, कुंतक, वामन, आनंदवर्धन, राजशेखर, मम्मट, विश्वनाथ, पंडित राज जगन्नाथ जैसे प्रकांड विद्वान हुए। इनमें से प्रायः सभी विद्वानों ने काव्य को अपने देशकाल के अनुसार परिभाषित किया है जो उनकी मौलिक चिंतना शक्ति की उपज थी। १७वीं शताब्दी तक आते-आते संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परंपरा प्रायः समाप्त सी हो गयी। साहित्य चिंतन के क्षेत्र में यह दौर टीकाओं और भाष्यों का माना जाता है। हिन्दी साहित्य में इस समय को रीतिकाल के नाम जाना जाता है। रीतिकाल में भी काव्य सम्बन्धी लक्षण ग्रंथ लिखे गए परंतु यह लक्षण ग्रंथ संस्कृत काव्यशास्त्र के काव्य सम्बन्धी मान्यताओं का बहुत हद तक उल्था हैं। इसके मूल कारणों में प्रतिभा सम्पन्न विद्वानों की कमी, विकसित गद्य का अभाव और चिंतन के ठहराव की कमी है। रीतिकाल के आचार्यों ने अपनी काव्यशास्त्रीय मान्यताओं को कविता में कहा है। शास्त्र के ज्ञान को काव्य में कहने के पीछे कुछ कारण थे जिसमें मूलतः रसिक समाज को आसान भाषा में काव्य की समझ पैदा कराना था जिसका निर्वहन इन आचार्यों ने पूर्णरूप से किया है। रीतिकालीन आचार्यों द्वारा रचित लक्षण ग्रंथ का आधार उस समय के सर्वाधिक ख्यातिलब्ध ग्रंथ आचार्य मम्मट कृत 'काव्यप्रकाश', आचार्य विश्वनाथ कृत 'साहित्य दर्पण', जयदेव कृत 'चंद्रालोक', अप्पयदीक्षित कृत 'कुवलयानन्द', भानुदत्त कृत 'रस मंजरी' और 'रसतरंगिणी' आदि थे। रीतिकाल के अधिकांश आचार्यों ने इन्हीं काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों को आधार बनाकर अपने लक्षण ग्रंथो का निर्माण किया है। इन दो काव्यशास्त्रीय धाराओं के बीच में जो रिश्ता है उस रिश्ते की पड़ताल करना ही मेरे शोध का मूल ध्येय है। मेरे शोध का विषय सम्पूर्ण संस्कृत काव्यशास्त्र के साथ-साथ रीतिकाल के काव्य लक्षण ग्रंथ हैं। इस विषय में काव्य के सभी अंगों की चर्चा करते हुए उनका तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। काव्यशास्त्र और रीतिकालीन लक्षण ग्रन्थों का समग्र विवेचन इस शोध के विषय क्षेत्र में समाहित है। आचार्य भरत से लेकर पंडित राज जगन्नाथ तक संस्कृत काव्यशास्त्र में आए परिवर्तनों और उत्तरोत्तर विकास की खोज तथा काव्यगत चिंतना का चरमोत्कर्ष भी शोध के विषय क्षेत्र में अंतर्निहित है। रीतिकाल तक आते-आते संस्कृत काव्यशास्त्र में प्रतिभा के पतन के क्या कारण रहे हैं? क्यों रीतिकालीन आचार्यों को व्रज भाषा में लक्षण ग्रंथ लिखने की जरूरत पड़ी जबकि वह संस्कृत जानते थे और संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परंपरा से परिचित थे? रीतिकाल के भापायी, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक कारण उस समय के वौद्धिक मनीषा को किस प्रकार प्रभावित कर रही थी? रीतिकालीन आचार्यों ने क्यों संस्कृत काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में से सर्वाधिक अनुकरण परवर्ती आचार्यों का ही किया? इन तमाम प्रश्नों से इस पुस्तक में टकराने की कोशिश की गई है। रीतिकालीन आचार्य अपने समय से कितना टकरा पाये हैं और अपने समकाल में रचित कविता के उपर्युक्त कितनी सटीक काव्य परिभाषा दे पाये हैं इस पुस्तक में इसी जिज्ञासा को संतुष्ट करने का प्रयत्न किया गया है।
संस्कृत काव्यशास्त्र भारतीय मनीषा का अप्रतिम और अभूतपूर्व देन है जिसमें काव्य संबंधी सूक्ष्म से सूक्ष्मतर चिंतन हुआ, जो कि सार्वकालिक और सार्वभौमिक है। संस्कृत के काव्यशास्त्रियों ने काव्य के हरेक अंगों-उपांगों पर वाद-विवाद-संवाद किया और अपने-अपने दृष्टिकोणों से काव्य को परखा। भारतीय इतिहास में इसकी सुदीर्घ और वृहत परंपरा रही है जिसका समयकाल ६वीं शताब्दी से लेकर १७वीं शताब्दी तक माना जाता है। इन ग्यारह सौ वर्षों में भामह, दंडी, कुंतक, वामन, आनंदवर्धन, राजशेखर, मम्मट, विश्वनाथ, पंडित राज जगन्नाथ जैसे प्रकांड विद्वान हुए। इनमें से प्रायः सभी विद्वानों ने काव्य को अपने देशकाल के अनुसार परिभाषित किया है जो उनकी मौलिक चिंतना शक्ति की उपज थी। १७वीं शताब्दी तक आते-आते संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परंपरा प्रायः समाप्त सी हो गयी।
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