वरुण कुमार का साहित्यिक पक्ष भी उतना ही मजबूत है। इस पुस्तक में शामिल 'निर्मल वर्मा की कथा भाषा', 'आधुनिक काव्य की बढ़ती गद्यात्मकताः कुछ विचार', 'समीक्षा के भाषिक आयाम' ... इसके अप्रतिम उदाहरण हैं। हर लेख में निराला, महादेवी वर्मा, प्रसाद, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर और उनकी काव्य पंक्तियाँ बार-बार आती हैं। हिंदी साहित्य का पूरा संसार शामिल है। दुष्यंत कुमार से लेकर नए नए लेखक मंगलेश डबराल, कृष्णा सोबती, भीष्म साहनी, अरुण कमल आदि। और सिर्फ नाम के लिए नहीं, उनकी काव्य प्रवृत्तियाँ, भाषिक संरचना, उनके गद्य या पद्य में समाहित दर्शन और विचार से लेकर उसकी व्याकरणिक संरचना तक। ऐसा तभी संभव है जब साहित्य आपकी रगों में दौड़ता हो और ऐसा व्यक्ति ही साहित्य और भाषा को संपूर्णता में बढ़ाने की सोच सकता है। 'आधुनिक काव्य की बढ़ती गद्यात्मकता कुछ विचार' इतना गंभीर विश्लेषण है कि आइंस्टाइन के फार्मूले की तरह पहली बार में आपके सिर से गुजर सकता है। आश्चर्य होता है कि क्या साहित्य का विश्लेषण इतना माइक्रो लेवल पर ऐसे औजारों से भी हो सकता है? शमशेर बहादुर सिंह की एक प्रसिद्ध कविता है "एक नीला दरिया बरस रहाध और बहुत चौड़ी हवाएँ हैं/मकानात हैं जंगल/मगर किस कदर उबड़ खाबड़ ।" उसकी मात्राएँ व्याकरण के आधार पर ऐसा विश्लेषण वरुण कुमार जैसा विद्वान ही कर सकता है! यह सब संभव है क्योंकि उनका अध्ययन संसार विशाल है। और सोने में सुहागा है उनकी भाषा, साहित्य और समाज की समझ ।
जन्म दिसम्बर १६६४, मुंगेर (बिहार)।
हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार निर्मल वर्मा की कथा भाषा पर पीएचडी। यूजीसी की राष्ट्रीय योग्यता परीक्षा (NET) १६८७ में उत्तीर्ण ।
वर्तमान में रेल मंत्रालय, नई दिल्ली में निदेशक, राजभाषा के पद पर कार्यरत। इसके पूर्व गृह मंत्रालय के केंद्रीय हिंदी डॉ. वरुण कुमार प्रशिक्षण संस्थान, नई दिल्ली में निदेशक एवं उसके पूर्व इंडियन बैंक में प्रबंधक राजभाषा। विभिन्न संस्थाओं में राजभाषा की लगभग चौंतीस वर्षों की सेवा ।
कम्प्यूटर पर हिंदी का प्रयोग, अनुवाद के व्यवहारिक पहलुओं, भाषा-प्रशिक्षण आदि में सक्रियता। इन विषयों पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन। पुस्तकों और मैनुअलों का अनुवाद ।
समाज, सरकार, साहित्य और भाषा के अंतर्संबंधों पर विशेष चिंतन एवं लेखन । आकाशवाणी और दूरदर्शन से कार्यक्रमों का प्रसारण। देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं यथा आलोचना, ज्ञानोदय, हंस, तद्भव, समकालीन भारतीय साहित्य, गगनांचल, गर्भनाल, बहुमत, जनसत्ता आदि में कविताएँ, कहानियाँ, आलोचनात्मक रचनाएँ प्रकाशित ।
भाषा और साहित्य से संबंधित विभिन्न विषयों पर साहित्य अकादेमी, दिल्ली, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा समेत अनेक संस्थाओं में व्याख्यान। बैंक और रेल में पत्रिकाओं का संपादन ।
यह पुस्तक उन बेचौनियों और शंकाओं का परिणाम है जो मैं साहित्य के सहज पाठक और जिज्ञासु के रूप में लम्बे समय से महसूस करता रहा हूँ। इसमें शामिल निबंध उन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने की कोशिश में लिखे गए हैं। ये बेचौनियाँ और शंकाएँ हैं कृति के फार्म और उसकी भाषा को लेकर। हिंदी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन जगत में इनके प्रति उदास करने वाली उदासीनता है। यह उदासीनता आज के तरह-तरह के विमर्शों के शोर से भरे 'विमर्शवादी' समय में बढ़ती ही जाती है। यह उदासीनता कविता की अपेक्षा गद्य की विधाओं, विशेषकर कथा की विधाओं को लेकर बहुत अधिक है। गद्य की विधाओं में कोई लेखक कैसे अपनी कहानियों-उपन्यासों में कलात्मक प्रभाव की सृष्टि करता है, उस प्रभाव की सृष्टि में भाषा और शिल्प क्या भूमिका निभाते हैं, इसपर हमारी आलोचना का ध्यान काफी कम जाता है। कथाकृतियों के शिल्प और भाषा के संबंध में जो कुछ अध्ययन देखने को मिलते हैं उनमें प्रायः भाषा के बारे में स्वतंत्र निष्कर्ष निकाले होते हैं, उनसे पाठक की इस जिज्ञासा का समाधान नहीं हो पाता कि उन तथ्यों, प्रवृत्तियों, झुकावों का कृति की कलात्मक उपलब्धि में आखिर क्या योगदान है। उन निष्कर्षों का उपयोग आलोचकीय स्थापनाओं तक पहुँचने में, या आलोचकीय स्थापनाओं के समर्थन में सबूत के तौर पर बहुत कम उपयोग हो पाता है। इस पुस्तक में शामिल किए गए लेखों का महत्व इसी दृष्टि से है। गद्य की समीक्षा में एक समीक्षक के लिए भाषाई उपकरणों का क्या महत्व है, इन निबंधों में उसकी भी प्रतीति मिल सकेगी, ऐसा लेखक का विश्वास है।
उपर्युक्त चिंताओं के अतिरिक्त इस संग्रह में शामिल कुछ निबंध हिंदी भाषा, साहित्य और समाज व सरकार के आप उपर्युक्त चिंताओं के अतिरिक्त इस संग्रह में शामिल कुछ निबंध हिंदी भाषा, साहित्य और समाज व सरकार के आपसी संबंधों की चिंता से भी उपजे हैं- हिदीभाषी समाज और उसकी भाषा में रचे साहित्य का कैसा संबंध है, देश की भाषा से देश की सरकार का कैसा संबंध है, उनमें कौन सी प्रवृत्तियाँ और शक्तियाँ सक्रिय हैं और वे हिंदी भाषा की अवस्था और इसके भविष्य को क्या रूप दे रही हैं।
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