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मैं जादू हूँ चल जाऊँगा (आनंद बक्शी के अनसुने नग्मे): Main Jadu Hun Chal Jaunga (Unheard Songs of Anand Bakshi)

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Item Code: HBC913
Author: Rakesh Anand Bakshi
Publisher: Penguin Books India Pvt. Ltd.
Language: Hindi
Edition: 2024
ISBN: 9780670094714
Pages: 192 (Throughout B/w Illustrations)
Cover: PAPERBACK
Other Details 8x5 inch
Weight 146 gm
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Book Description
पुस्तक परिचय

आनंद बक्शी की लिखी सबसे पहली कविता की यह प्रथम पंक्ति है और इसके बाद गीत-संगीत में ही अपना करियर बनाने के लिए जिंदगी की जद्दोजेहद, काम और निजी जीवन में हर जगह कविताओं के ही दर्शन होने लगे और काव्य भी ऐसा कि हर समस्या, हर गम, हर मुश्किल में प्रेम से सराबोर गीत उनका रास्ता आसान बनाते चले गए।

आनंद बक्शी साहब यह जानते थे कि प्रेम के बिना जिंदगी बेरंग और बेनूर होती है, इसलिए उन्होंने अपने अधिकांश गीतों में प्रेम का पैगाम दिया है।

इस काव्य संकलन में प्रकाशित बक्शी साहब के गीतों, कविताओं, ग़ज़लों इत्यादि सभी में प्रेम के इंद्रधनुषी रंग मौजूद हैं। इनमें रूमानियत के रंग भी हैं। आनंद बक्शी साहब ने अपनी इन कविताओं के द्वारा लोगों के जीवन की अमावस रातों को चाँदनी रातों में तब्दील करने की भरपूर कोशिश की है। यह काव्य संग्रह जीवन में पलायन करने की बजाय साहसी बनकर मुकाबला करने और जीतने की प्रेरणा देने में सक्षम है।

लेखक परिचय

आनंद बक्शी लोकप्रिय भारतीय कवि और फिल्मी गीतकार थे। 21 जुलाई 1930 को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) में जन्मे आनंद बक्शी का परिवार 1947 में लखनऊ आ बसा था। उन्होंने रॉयल इंडियन नेवी में बतौर कैडेट काम किया। लेकिन नेवी में विद्रोह के बाद वह गायक बनने बम्बई (अब मुंबई) पहुँचें। सबसे पहले उन्हें 1958 में भगवान दादा की फिल्म भला आदमी में गीत लिखने का अवसर मिला। इसके बाद अपने चालीस वर्षों से ऊपर के करियर में उन्होंने लगभग छह सौ फिल्मों के लिए चार हजार से अधिक गीत लिखे। फ़िल्मी गीतों में वे बक्शी के स्थान पर सरनेम बख़्शी लिखा करते थे। उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए चालीस बार नामांकित किया गया, जिसमें वे चार बार विजयी रहे। 30 मार्च 2002 को उनका निधन हुआ।

भूमिका

आनंद प्रकाश बख़्शी अक्तूबर 1947 में एक बार पहले भी बंबई आ चुके थे, जब बख़्शी परिवार को नायगाम में सुपरिटेंडेंट के ऑफिस में अपने रिफ्यूजी सर्टिफिकेट रजिस्टर कराने थे।

'मुझे गाने का शौक़ बचपन से था, लेकिन मैं गीतकार बनने का सपना लिए सन 1950 में बंबई आया था।'

मैं दादर स्टेशन पर उतरा। मेरे पास अपनी बचत के तीन-चार सौ रुपए थे और कुछ कविताएँ। उनमें से कुछ कविताएँ कई साल बाद फ़िल्मी गानों के तौर पर रिकॉर्ड हो गईं थीं। मेरी हिम्मत, मेरा हौसला, मेरी प्रतिभा और मेरी ज़रूरत मेरे साथ थी। मुझे यक़ीन था कि दो साल नेवी और तीन साल आर्मी की ट्रेनिंग ने मुझे कहीं भी ज़िंदा रहना सिखला दिया है।

दादर स्टेशन पर पहले दिन लोगों की इतनी भीड़ देखकर मैं हैरान रह गया, दहशत में आ गया। यहाँ तो मैं किसी को नहीं जानता था। इतनी भीड़ मैंने न तो पिंडी में देखी थी और न ही फ़ौजी ज़िंदगी में कभी देखी थी। जब फ़ौजी वर्दी में होता था तो अजनबी भी इज़्ज़त करते थे। पर यहाँ तो किसी ने मुझ पर नज़र नहीं डाली। ऐसा लग रहा था कि जैसे सब अपनी मंज़िल पर जाने के लिए बदहवास थे। मुझे अकेलेपन का अहसास हुआ। लगा कि इस बड़े शहर में मैं कैसे रहूँगा इसलिए मैंने अपने बंसी वाले से मदद माँगी। स्टेशन से बाहर निकलने से पहले मैंने एक प्रार्थना लिखी - ताकि मुझे वो हौसला और हिम्मत दें।

प्रस्तावना

हिंदुस्तान को गीतों का मुल्क़ कहते हैं, इसलिए कि यहाँ की अनगिनत जुबानों में हर मौके के लिए अनगिनत लोकगीत हैं, लेकिन मुझे कभी-कभी लगता है कि अगर ये अनगिनत गीत नहीं भी होते तो हिंदुस्तान को गीतों का मुल्क़ कहने के लिए अकेले आनंद बख़्शी साहब ही काफी थे।

वो जज़्बात का कौन-सा मोड़ है, वो अहसास की कौन-सी मंज़िल है, वो धड़कनों की कौन-सी रूत है, वो मुहब्बत का कौन-सा मौसम है, वो ज़िंदगी का कौन-सा मुकाम है, जहाँ सुरों के बादलों से आनंद बख़्शी के गीत के चाँद झलकते न हों। आनंद बख़्शी आज के लोक-कवि हैं। आनंद बख़्शी आज के समाज के शायर हैं।

ब्रिटिश नेशनल म्यूजियम में जहाँ मिस्र की बरसों पुरानी ममी रखी हैं, जहाँ हिंदुस्तान के बादशाहों के शराब के प्याले और खंजर रखे हैं, जहाँ रोम की तहज़ीब के निशानात रखे हैं। वहाँ एक बहुत बड़ा हॉल है, जहाँ मशहूर अँग्रेज़ लेखकों की पांडुलिपियाँ, रफ़-बुक और नोट-बुक रखी हैं। वहाँ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ हैं, विलियम शेक्सपीयर हैं, ऑस्कर वाइल्ड हैं, चार्ल्स डिकेन्स हैं, कीट्स हैं और वहाँ एक शो केस में बीटल्स के हाथ का लिखा हुआ गीत 'यस्टरडे' भी रखा हुआ है। इससे दो बातों का पता चलता है। एक तो ये कि वो क़ौम बीटल्स की इज़्ज़त करती है। दूसरा ये कि उस क़ौम में इतनी ख़ुद-एहतमादी है, आत्मविश्वास है कि वो शेक्सपीयर के साथ पॉल मैकार्टनी की इज़्ज़त करने में अपने आपको गैर- महफूज़ नहीं समझती है। मुझे दुःख से कहना पड़ता है कि हमारे एकेडिमिया में, हमारे बुद्धिजीवियों में ये आत्मविश्वास अभी तक नहीं आया है।

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