धर्म के चिन्ह भले ही भिन्न-भिन्न हों लेकिन सभी मर्मों की आत्मा एक ही है। धर्म प्रवर्तक भले ही अलग-अलग हों पर सबकी मूल शिक्षायें लगभग एक ही हैं। धार्मिक व्यक्ति वे हैं जो चिन्हों एवं प्रवर्त्तकों के लिए नहीं लड़ते बल्कि उनकी मूल शिक्षाओं को ग्रहण कर अपनी आत्मा का विकास करते हैं।
मानव आत्मा है या शरीर? शरीर के रूप में मनुष्य जन्म लेता है। लेकिन समय के साथ मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है। आत्मा के रूप में मानव शरीर से पहले भी है, शरीर में भी रहता है और शरीर के समाप्त हो जाने पर भी रहता है। अस्तित्व शरीर का नहीं आत्मा का है। अनन्त मनुष्यों के पीछे जो जन्म लेते हैं और मरते हैं एक मानव की आत्मा है जो अनन्त है, शाश्वत है जिसे शास्त्रों में आदि पुरुष कहा गया है। हर मनुष्य अपने भीतर छिपी हुई उस अनन्त आत्मा को जान लेना चाहता है क्योंकि यही उसकी निर्यात है, यही उसकी यात्रा का लक्ष्य है, यही उसका गंतव्य है, यही उसकी सफलता का एवरेस्ट है, यही उसकी स्वतंत्रता का आयाम है, यही उसके जीवन की परिपूर्णता है। इसी के लिए वह बेचैन है, चेष्टाशील है। अचेतन और चेतन मन से खोई हुई यही उसकी सम्पत्ति है जिसे वह प्राप्त कर लेना चाहता है। यही उसकी खोई हुई आत्मा है जिसके बिना वह बेचैन है। इसी का अभाव उसे सताता है जिसको बह बाहरी सम्पदा से भरना तो चाहता है पर भर नहीं पाता। इस आन्तरिक अभाव को न तो वैज्ञानिक भर पाता है, न राजनीतिज्ञ और न बाहरी सम्पदा। इसे तो भर पाता है मनुष्य के लिए कोई आध्यात्मिक पुरुष, कोई धार्मिक पुरुष जो उसके चित्त में धर्म के रहस्य को उद्घाटित कर सके, उसकी आन्तरिक सम्पदा की कंजी उसे प्रदान कर दे, जो उसकी अन्तरात्मा के रहस्यों का उद्घाटन कर सके और उसे प्रेय से हटाकर श्रेय दे सके। अतः धर्म न तो पुस्तकों से सीखा जा सकता है न मंदिर से, न मस्जिद से। धर्म में दीक्षित होना सम्भव है केवल एक आध्यात्मिक पुरुष से।
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