विश्व की प्राचीन सभ्याताओं में से भारत की सभ्यता ही एकमात्र ऐसी सभ्यता है जो अपनी सतत्ता बनाये हुये है भारतीय वांगम्यों का आदि ग्रन्थ ऋग्वेद विश्व का प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है। इस ग्रन्थ का निर्माण करने वाली सभ्यता का क्षेत्र इसी ग्रन्थ की क्रित्चाओं के आधार पर भारत का सप्त सैन्धव क्षेत्र माना जाता है यह प्राचीन सात नदियों का क्षेत्र पश्चिमोत्तर भारत था। इस सभ्यता के विकास क्रम में ऋग्वेद की क्रिचाओं को अग्नि के समक्ष पढकर जब शब्द उच्चारण के बल पर फल की प्राप्ति की अपेक्षा और उसके लिये यहाँ किये गये अनुष्ठानों का प्रारम्भ हुआ तो इस कार्य हेतु ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं को यर्जुर्वेद के रूप में संकलित किया गया। यजुर्वेद पर आधरित यह अनुष्ठान और विशिष्ट ऋिचाओं के उच्चारण पर विशिष्ट फल की प्राप्ति की व्याख्याओं के लिये लिखे गये ब्राह्मण ग्रन्थ ही मीमांसा दर्शन के प्रारम्भिक आधार थे। इस काल के मनुष्यों की उत्पन्न जिज्ञासाओं का सामाधान करते हुये मीमांसकों ने जहाँ वेदों को शाश्वत और स्वंयभू मानने की घोषणा की वहीं उन्होंने वेदों की हर ऋिचाओं के सही उच्चारण पर वान्छित फल की प्राप्ति की घोषणा भी की। शब्द में ही शक्ति है यह बताते हुये मीमांसकों ने तार्किक आधार पर अपने दर्शन की प्रस्तुति की। भारत में मानव सभ्यता के उषा काल में ही ऋग्वेद को आदिग्रन्थ मानने वाली सभ्यता का प्रथम दर्शन मीमांसा दर्शन इसी प्रकार प्रारम्भ हुआ। दर्शन के स्वरूप में अपने गठन के उपरान्त से यह दर्शन सदियों तक भारतीय सभ्यता का मुख्य दर्शन बना रहा बाद में बौद्धों व वेदान्तों की चुनौती से इसका वर्चस्व कम हुआ।
प्रस्तुत पुस्तक में भारत के आदि दर्शन मीमांसा दर्शन के उदय की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, उत्पत्ति, विकासक्रम को बताते हुये एंव उसके आदि प्रत्ययों की उत्पत्ति को स्पष्ट करते हुये मीमांसा दर्शन की व्याख्या की गयी है साथ ही कालान्तर में वेदान्तियों और बौद्ध दर्शन द्वारा मीमांसा दर्शन को मिली चुनौतियों का वर्णन करते हुये मीमांसा दर्शन के बौद्धिक विकासक्रम को स्पष्ट किया गया है प्रस्तुत पुस्तक में यह भी बताया गया है कि वर्तमान युग में भारतीय सभ्यता के समक्ष उपस्थित चुनौती का सामना करने के लिये एक बार फिर मीमांसा दर्शन ने अपनी भूमिका निभाई। समकालीन युग के दार्शनिक दयानन्द सरस्वती ने मीमांसा दार्शनिक के रूप में वेदों की व्याख्या करते हुये भारतीय समाज के जागरण में जो योगदान दिया है उसका वर्णन भी पुस्तक में किया गया है।
भारत के आदि दर्शन मीमांसा दर्शन का प्रस्तुत परिशीलन भारत में दर्शन के विकास को समझने का और उसके आदि दर्शन के उदय का एक प्रमुख आधार प्रस्तुत करता है यही बात इस पुस्तक को वैशिष्टय प्रदान करती है।
डॉ. जितेंद्र 'दक्ष'दर्शनशास्त्र के विद्वान हैं उन्होंने तंत्र बाद एक अध्ययन विषय पर शोध कर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है शोच उपरांत उन्होंने सादात डिग्री कॉलेज सिरसी में प्रवक्ता पद पर कार्य किया वह विभिन्न शोध योजनाओं के अंतर्गत कार्य कर चुके हैं वर्तमान में वह भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के अंतर्गत भारतीय संस्कृतिः एक समीक्षा विषय पर शोध कार्य में संलग्न है तथा उनकी एक पुस्तक "तंत्रदर्शन और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि" समदर्शी प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित हो चुकी है। प्रस्तुत पुस्तक "भारत का आदि दर्शन मीमांसा दर्शन" भारतीय दर्शन में मीमांसा दर्शन का एक प्रमुख स्थान है। इस पुस्तक में लेखक ने सरल एक सरस भाषा में दर्शन की व्याख्या की है। आशा है पाठकों को पसन्द आयेगी और मीमांसा दर्शन के ज्ञान को लाभ उठायेंगे। इनका जन्म जिला मंभल के ग्राम - खानपुरबंद डाकखाना असमोली में हुआ था और शिक्षा दीक्षा जिला मुरादाबाद में हुई है वर्तमान में यह नगर विलारी में जिला मुरादाबाद में अपनी पत्नी कविता और बच्चों अंश कुमार दक्ष और वंश कुमार दक्ष के साथ रहते हैं मोवाइल : 8920045614, Email: [email protected]
भूमिका
'भारत का आदि दर्शन: मीमांसा दर्शन' युवा दार्शनिक डॉ. जितेन्द्र दक्ष की महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह पुस्तक भारतीय ज्ञान परम्परा को नए परिवेश में देखने के लिए निर्णायक है। भारत का आदि दर्शन विश्वभर में अनुकरणीय रहा है। भारत को विश्वगुरू इसी आदि दर्शन के कारण कहा गया। भारत ने अपने दर्शन और चिंतन के कारण ही पूरी दुनिया में अपना नाम बनाया। यह पुस्तक छोटी है लेकिन इस विषय के विद्यार्थी, शोधार्थी एवं आलोचकों के लिए निर्णयक सामग्री है। इस पुस्तक को पढ़कर समझा जा सकता है कि जितेन्द्र दक्ष ने इस पुस्तक के निर्माण में कड़ी मेहनत की है। वह अपनी भूमिका में लिखते हैं- "भारतीय वांग्मयों की परम्परा में वेदों की ऋचाओं की व्याख्या करते हुये विकसित होने वाले ब्राह्मण ग्रन्थों को जब उपनिषदों के दर्शन से चुनौती मिलने लगी तो ब्राह्मण ग्रन्थों के पक्ष में तर्क करते हुये शब्द को ही सर्वशक्तिमान घोषित करता हुआ भारत का आदि दर्शन मीमांसा दर्शन विकसित हुआ।"
दो शब्द
विश्व की प्राचीन सभ्याताओं में से भारत की सभ्यता ही एकमात्र ऐसी सभ्यता है जो अपनी सतत्ता बनाये हुये है भारतीय वांगम्यों का आदि ग्रन्थ ऋग्वेद विश्व का प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है। इस ग्रन्थ का निर्माण करने वाली सभ्यता का क्षेत्र इसी ग्रन्थ की ऋिचाओं के आधार पर भारत का सप्त सैन्धव क्षेत्र माना जाता है यह प्राचीन सात नदियों का क्षेत्र पश्चिमोत्तर भारत था। इस सभ्यता के विकास क्रम में ऋग्वेद की ऋिचाओं को अग्नि के समक्ष पढकर जब शब्द उच्चारण के बल पर फल की प्राप्ति की अपेक्षा और उसके लिये यहाँ किये गये अनुष्ठानों का प्रारम्भ हुआ तो इस कार्य हेतु ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं को यर्जुर्वेद के रूप में संकलित किया गया। यजुर्वेद पर आधरित यह अनुष्ठान और विशिष्ट ऋिचाओं के उच्चारण पर विशिष्ट फल की प्राप्ति की व्याख्याओं के लिये लिखे गये ब्राह्मण ग्रन्थ ही मीमांसा दर्शन के प्रारम्भिक आधार थे। इस काल के मनुष्यों की उत्पन्न जिज्ञासाओं का सामाधान करते हुये मीमांसकों ने जहाँ वेदों को शाश्वत और स्वंयभू मानने की घोषणा की वहीं उन्होंने वेदों की हर ऋिचाओं के सही उच्चारण पर वान्छित फल की प्राप्ति की घोषणा भी की। शब्द में ही शक्ति है यह बताते हुये मीमांसकों ने तार्किक आधार पर अपने दर्शन की प्रस्तुति की। भारत में मानव सभ्यता के उषा काल में ही ऋग्वेद को आदिग्रन्थ मानने वाली सभ्यता का प्रथम दर्शन मीमांसा दर्शन इसी प्रकार प्रारम्भ हुआ। दर्शन के स्वरूप में अपने गठन के उपरान्त से यह दर्शन सदियों तक भारतीय सभ्यता का मुख्य दर्शन बना रहा बाद में बौद्धों व वेदान्तों की चुनौती से इसका वर्चस्व कम हुआ।
आमुख
भारतीय वांग्मयों की परम्परा में वेदों की ऋचाओं की व्याख्या करते हुये विकसित होने वाले ब्राह्मण ग्रन्थों को जब उपनिषदों के दर्शन से चुनौती मिलने लगी तो ब्राह्मण ग्रन्थों के पक्ष में तर्क करते हुये शब्द को ही सर्वशक्तिमान घोषित करता हुआ भारत का आदि दर्शन मीमांसा दर्शन विकसित हुआ। सुत्रकाल में जैमिनि ऋषि द्वारा मीमांसा-सुत्र रचकर इसे दर्शन के रूप में सर्वप्रथम विकसित किया। इस पर लिखा शवर का भाष्य ही आज हमारे मीमांसा दर्शन को जानने का प्रमुख स्त्रोत है। प्रस्तुत पुस्तक भारत के इस आदि दर्शन के बारे में जानकारी उपलब्ध कराते हुए उसे बोद्धों और वेदन्तियों से मिलने वाली चुनौति और मीमांसा के दार्शनिकों द्वारा उनके जवाब को भी बताते हुए मीमांसा दर्शन के वर्तमान काल में मीमांसा दर्शन के दार्शनिक दयानन्द सरस्वती तक का सक्षिप्त व्योरा प्रस्तुत करने का एक प्रयास है। अपनी प्रस्तुत पुस्तक हेतु में सर्वप्रथम अपने गुरु "डॉ. राकेश सक्सेना" को नमन करता हूँ, जिन्होंने मुझे इस विषय पर शोधपरक पुस्तक लिखने के लिये प्रेरित किया और पुस्तक लेखन में भी मेरा पर्याप्त सहयोग किया। मेरे लिये वहुत हि सम्मानित और आदरणीय प्रो. रमा जी जिन्होंने इस पुस्तक की भुमिका को सहर्ष स्वीकार किया ऐसी विदुषी प्रो. रमा जी का मैं हृदय से आभारी हूँ इससे पुस्तक की गरिमा बढ़ गई है। रमा जी का बहुत-बहुत आभार। मैं अपनी पत्नी 'कविता दक्ष' का भी आभारी हूँ, जिन्होंने मेरे ऊपर से नियमित कार्यों की जिम्मेदारी का बोझ समाप्त कर लेखन के लिए पंर्याप्त समय उपलब्ध कराया।
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