आधुनिकता सामाजिक जीवन से साक्षात्कार की एक वैज्ञानिक मूल्य-दृष्टि है जो किसी भी चीज का निर्धारण तार्किक एवं वस्तुनिष्ठ आधारों पर करती है।
आधुनिकता से पहले मनुष्य के जन्म से लेकर समाज के साथ उसके सारे संबंधों को परखने की एक सनातन समझ थी जिसमें परिवर्तन और ऐतिहासिकता का अभाव सा था। आधुनिक विमर्श ने परम्परा को न केवल मध्ययुगीन मूल्यों से अलग किया बल्कि उसे नवीनता और परिवर्तनशीलता से जोड़कर एक नया चिंतन प्रस्तुत किया है।
हिंदी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल की शुरुआत भारतेंदु युग से मानी जाती है। साहित्य को 'संतों की कुटिया और सामंतों की चित्रशाला' से निकाल कर यथार्थ जीवन के खुले मैदान में प्रस्तुत करने के कारण ही इस युग के साहित्य में एक ओर जहाँ कविता की विषय-वस्तु, भाषा शैली और छंद विधानों में युगांतकारी परिवर्तन देखने को मिलता है वहीं दूसरी ओर नई गद्य विधाओं का भी प्रवर्तन हुआ। जनजागरण की भावना से अनुप्राणित और नवजागरण के संदेशवाहक के रूप में विख्यात स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी काव्यधारा को श्रृंगारकालीन परंपराओं और रूढ़ियों के बंधन से मुक्त कर राष्ट्रीय चेतना एवं समाज सुधार की ओर मोड़ने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। साहित्य को उसके दरबारीपन से मुक्त करने के अपने प्रयास के कारण ही इस युग का साहित्य लोकजीवन से जुड़ता चला गया। देश दुर्दशा के सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक कारणों, अन्य सामाजिक समस्याओं के यथार्थपरक चित्रण एवं राष्ट्रीयता का सूत्रपात करने के बावजूद इस युग के साहित्य में ब्रज भाषा की प्रधानता ही बनी रही। आधुनिक युग बोध के साथ खड़ी बोली की कविता की व्यवस्थित परंपरा द्विवेदी युग में खास कर महावीर प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में और मैथिलीशरण गुप्त से प्रारंभ हुई, लेकिन परंपरा के मूल्यांकन के नाम पर अतीत खोज एवं उपेक्षित काव्य विषयों की खोज में सीमित होने के कारण इस युग के साहित्य की परिधि का विस्तार नहीं हो पाया।
यह भी इतिहास का विचित्र विरोधाभास है कि अपने आरंभिक काल में ही छायावाद को हिंदी आलोचना के कोप का शिकार होना पड़ा। लेकिन वास्तव में छायावाद हिंदी का यह महत्वपूर्ण काव्यान्दोलन है जिसने न केवल खड़ी बोली हिंदी को साहित्य में स्थापित करने का ऐतिहासिक कार्य किया बल्कि अपनी पूर्व परंपरा से स्वस्थ्य जीवन मूल्यों को ग्रहण कर, परंपरागत रूढ़ियों का अतिक्रमण कर एक नवीन मार्ग निर्मित करने का भी प्रयास किया। भक्तिकाल के बाद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और कालजयी रचनाएं इसी युग में आई हैं। इतना ही नहीं स्कूल एवं कॉलेजों में हिंदी के पठन पाठन को प्रोत्साहन भी इसी युग में मिलना शुरू होता है। इसलिए छायावाद को आधुनिक काव्यधारा के केंद्र बिंदु के रूप में स्वीकार किया गया है। छायावादी रचना दृष्टि की चरम परिणती 'कामायनी' एवं 'राम की शक्तिपूजा' जैसी रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त हुई। लेकिन एक निश्चित समय अंतराल के बाद छायावादी काव्य प्रवृतियों की मौलिकता धीरे-धीरे अपना रंग खोने लगी थी। पंत ने छायावाद का 'युगांत' घोषित करके 'युगवाणी' के रूप में प्रगतिवादी मूल्यों को अपना लिया था तो छायावाद के सबसे महत्त्वपूर्ण कवि निराला 'तोड़ती पत्थर' जैसी कविताओं के माध्यम से प्रगतिशीलता की तलाश मेंलग गए ।
20 वीं शताब्दी के चौथे दशक में जो राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन हो रहा था उसे न तो छायावादी भाषा में बांधा जा सकता था न ही उसे सांस्कृतिक मानसिकता में अभिव्यक्त किया जा सकता था। छायावाद के गर्भ से ही 1930 के आसपास नवीन यथार्थवादी सामाजिक चेतना से युक्त जिस साहित्य का जन्म हुआ उसे प्रगतिवाद की संज्ञा दी गई। प्रगतिवाद साहित्य को सोद्देश्य मानता है। लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में उसकी अध्यक्षता करते हुए कालजयी रचनाकार प्रेमचंद ने 'साहित्य के उद्देश्य' पर जो विचार प्रकट किए वो विचार न केवल कल्पना एवं मनोरंजन प्रधान साहित्य से अलग यथार्थवादी साहित्यिक प्रवृतियों का घोषणा पत्र बना बल्कि आज भी साहित्य के मूल्यांकन में प्रेमचंद के साहित्य संबंधी विचारों का बहुत गहरा प्रभाव दिखाई देता है। नामवर सिंह लिखते हैं कि “छायावाद यदि इस सदी के सांस्कृतिक पुनर्जागरण की उपज था तो प्रगतिवाद राजनीतिक जागरण की।" हालाँकि आगे चलकर सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति को रचना का प्रमुख उद्देश्य मानने के बावजूद अनुभव से अधिक विचारधारात्मक प्रतिबद्धता ने प्रगतिवाद को सीमित कर दिया। लेकिन छायावाद से प्रगतिवाद इस अर्थ में विशिष्ट था कि छायावादी जीवन दृष्टि जहाँ अधिकांशतः कविता के क्षेत्र में ही व्याप्त होकर रह गई थी वही प्रगतिवादी आंदोलन में साहित्य के विभिन्न विधाओं का पर्याप्त विकास हुआ।
साहित्य में मौलिकता और नवीनता के लिए प्रयोग हर युग के रचनाकारों ने किया है। लेकिन 1943 में 'तार सप्तक' का प्रकाशन आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास की एक ऐसी महत्वपूर्ण घटना थी जिसने न केवल प्रयोगवाद की अवधारणा का सूत्रपात किया बल्कि प्रगतिवादी काव्य-सिद्धांत की अनेक स्थापनाओं को चुनौती भी दी। जीवन दर्शन और काव्य दर्शन, व्यक्ति और समाज के संबंध से लेकर शिल्प के स्तर तक अनेक जगहों पर टकराहट दिखाई देती है। खुद अज्ञेय ने तार सप्तक के कवियों को 'राहों का अन्वेषी' और प्रयोग को वाद के बदले 'सत्यान्वेषण का दोहरा साधन' मानने का प्रस्ताव दिया। उनका मानना था जीवन अर्थ की खोज की प्रक्रिया है। मंजिल नहीं, रास्ते खोजने होते हैं। मंजिल यात्रा की उपलब्धि नहीं समाप्ति है। इसलिए अनुभूति एवं रचना की समूची प्रक्रिया किसी निश्चयात्मक निष्कर्षों से संचालित नहीं हो सकती। प्रगतिवाद में यथार्थ और रचना के संबंध की दिशा और दशा पूर्व निर्धारित थी। इसलिए उसमें जटिलताओं एवं वैविध्य का कोई अवकाश नहीं रह गया था। आगे चल कर प्रयोगवाद पर भी वैयक्तिकता से लेकर शहरी मध्यवर्ग के भाव तक सीमित होने और यौन वर्जनाओं को अत्यधिक महत्व देने के अनेक आरोप लगे।
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