"प्रस्तुत पुस्तक में अतुल कुमार सिनहा ने महाभारत के 'शांतिपर्व' के विशेष संदर्भ में हिंदू धर्म के नैतिक पक्ष का विस्तृत एवं प्रामाणिक अनुशीलन प्रस्तुत किया है। प्राचीन भारतीय इतिहास के विद्यार्थी होने के नाते वे 'शांतिपर्व' के रचना-काल, उसका कौटिलीय 'अर्थशास्त्र' से संबंध आदि विचारों पर प्रकाश डाल सके हैं। श्री सिनहा पुस्तक की आधुनिक प्रणाली से सुपरिचित हैं; उनकी शैली वस्तुपरक और प्रामाणिक है। उनका अपेक्षित विषय-सामग्री से और वैसे पाश्चात्य साहित्य से भी अच्छा परिचय है और उनका मूल्यांकन संबंधी दृष्टिकोण प्रगतिशील और आधुनिक है। साफ- सुथरी हिंदी में लिखी गई उनकी पुस्तक पाठकों को राष्ट्रभाषा की शक्ति और उसके उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है।"
आप बीस वर्षों का उच्च शिक्षण और शोध अनुभव रखती हैं और वर्तमान में इतिहास विभाग, महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर, राजस्थान में सहायक प्रोफेसर (सीनियर स्केल) के रूप में कार्यरत हैं। आप वर्तमान में डीन स्टूडेंट्स वेलफेयर के साथ साथ डायरेक्टर (सेंटर फॉर म्यूजियम एंड डॉक्यूमेंटेशन), प्रकाशन समिति की संयोजिका हैं। साथ ही आप विश्वविद्यालय के सक्षम निकाय विद्या परिषद की माननीय कुलपति द्वारा नामित सदस्या है। पूर्व में आप सेंटर फॉर विमेन स्ट्डीज की संस्थापक डायरेक्टर, संयोजिका (मीडिया सेल) एवं ड्राइंग एंड पेंटिंग तथा राजस्थानी विभाग के प्रभारी के दायित्व का निर्वहन भी कर चुकी हैं। उत्कृष्ट शैक्षणिक रिकॉर्ड रखते हुए आपके पास पीजी और पीएच.डी. की डिग्रियों हैं। आप महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर, राजस्थान, भारत से इतिहास में पीएच.डी डिग्री (आधुनिक भारतीय इतिहास में विशेषज्ञता) प्राप्त हैं। आपको वर्ष 2003 में यूजीसी, नई दिल्ली द्वारा इतिहास विषय में प्रतिष्ठित जूनियर रिसर्च फेलोशिप (जेआरएफ) से सम्मानित किया गया था। वर्तमान में आप एमजीएस विश्वविद्यालय, बीकानेर में इतिहास में अध्ययन बोर्ड की सदस्य हैं और आपने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सेमिनार, संगोष्ठी, विस्तार व्याख्यान, अकादमिक भ्रमण, विशेषज्ञ वार्ता जैसी कई शैक्षणिक गतिविधियों का आयोजन किया है। आप 2015 से इतिहास विषय की पीएच.डी. सुपरवाइजर हैं। आपके निर्देशन में तीन शोधार्थी कार्य कर रहे हैं। आपने इतिहास, साहित्य और महिला अध्ययन जैसे विभिन्न मुद्दों पर 15 पुस्तकें (जिनमें उनके द्वारा लेखन/संपादन/सह-संपादन कार्य किया गया) लिखी हैं। आपके लगभग 55 शोध पत्र राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं व संपादित पुस्तकों में प्रकाशित हुए हैं। आपने भारत और विदेशों में सम्मेलनों, सेमिनारों और व्याख्यान आदि के लिए यात्रायें की है। आपने राज्य, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों, सेमिनारों और कार्यशालाओं में 100 से अधिक संगोष्ठियों में भाग लिया और शोध पत्र प्रस्तुत किये हैं। आप साहित्य, महिला सशक्तिकरण आदि के क्षेत्र में प्रतिष्ठित पुरस्कारों की प्राप्तकर्ता हैं। आप भारतीय इतिहास कांग्रेस, राजस्थान इतिहास कांग्रेस और कई अन्य शैक्षणिक निकायों की आजीवन सदस्या है। आपने चार साल से अधिक की अवधि तक महिला अध्ययन केंद्र की संस्थापक निदेशक के रूप में विश्वविद्यालय में सेवाएँ दी हैं। अपने व्यापक और विविध अनुभव के अलावा वह विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों से सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं। आपको विभिन्न अकादमिक पत्रिकाओं के संपादकीय बोर्ड के सदस्य होने का अनुभव प्राप्त है। इसके अलावा, आप प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम करने के अनुभव के साथ पत्रकारिता और जनसंचार में स्वर्ण पदक विजेता हैं। आप स्नातकोत्तर स्तर पर छात्रसंघ अध्यक्ष, सर्वश्रेष्ठ वक्ता के साथ साथ स्कूली जीवन में हाउस वाइस कैप्टन व सर्वश्रेष्ठ छात्रा भी रह चुकी हैं।
कई वर्ष पूर्व इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के सभापति पद से दिए गए एक भाषण में भारतीय इतिहास के नए लेखकों को यह सुझाव दिया गया था कि वे नैतिक इतिहास की ओर दृष्टिपात करें और इस संदर्भ में लें लेकि के यूरोपीय नैतिकता पर लिखे हुए ग्रंथ का उल्लेख किया गया था। उत्तम होते हुए भी इस परामर्श का व्यवहार में उतना समादर नहीं हुआ जितना होना चाहिए था। राजनीतिक इतिहास से आगे बढ़ने की प्रवृत्ति तो निश्चित रूप से इस समय प्रचलित है किंतु जिस दिशा में अधिक ध्यान दिया जा रहा है, वह है सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक इतिहास की। किंतु क्या व्यावहारिक संस्थाओं को कभी भी उनके वैचारिक अंतसूत्र को समझे बिना यथावत् समझा जा सकता है? एक सुप्रसिद्ध दार्शनिक समाजशास्त्री ने अकाट्य तर्कों से सिद्ध किया है कि किसी भी व्यवस्थित व्यवहार को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक उसके विधायक नियमों का पता न हो। मानव-व्यवहार प्राकृतिक गति-विधान के अंतर्गत नहीं है और उसका अध्ययन उस रीति से नहीं हो सकता जिससे पशु-पक्षियों के व्यवहार का। मानव-व्यवहार आवश्यक रूप से आचारात्मक है। वह बुद्धि-सापेक्ष और मूल्य-सापेक्ष होता है। धर्म को मानव-स्वभाव का व्यावर्तक बताने का तात्पर्य मनुष्य की मौलिक नैतिकता को जताना है। परिणामतः सामाजिक इतिहास का आंतरिक सूत्र नैतिक विचारों में ही पकड़ा जा सकता है और इसलिए सामाजिक इतिहास की प्रगति के लिए भी यह अत्यंत आवश्यक है कि नैतिक इतिहास की ओर ध्यान दिया जाए।
यह एक प्रसन्नता की बात है कि प्रस्तुत पुस्तक के लेखक ने शांतिपर्व के नैतिक विचारों को अपनी खोज का विषय बनाया है।
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