जीवन संगीत (ध्यान साधना पर प्रवचन): Music of Life

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Item Code: NZA631
Author: Osho Rajneesh
Publisher: OSHO MEDIA INTERNATIONAL
Language: Hindi
Edition: 2012
ISBN: 9788172612757
Pages: 228
Cover: Hardcover
Other Details 9.0 inch X 6.0 inch
Weight 470 gm
Fully insured
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100% Made in India
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23 years in business
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Book Description

पुस्तक के विषय में

 

जो वीणा से संगीत पैदा होने का नियम है, वही जीवन वीणा से संगती पैदा होने का नियम भी है। जीवन वीणा की भी एक ऐसी अवस्था है, जब न तो उत्तेजना इस तरफ होती है, न उस तरफ। न खिंचाव इस तरफ होता है, न उस तरफ। और तार मध्य में होते हैं।तब न दुख होता है न सुख होता है। क्योंकि सुख खिंचाव है, दुख एक खिंचाव है। और तार जीवन के मध्य में होते हैं-सुख और दुख दोनों के पार होते हैं। वहीं वह जाना जाता है जो आत्मा है, जो जीवन है, आनंद है।

आत्मा तो निश्चित ही दोनों के अतीत है। और जब तक हम दोनों के अतीत आंख को नहीं ले जाते, तब तक आत्मा का हमें कोई अनुभव नहीं होगा।

पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु

क्या आप दूसरों की आंखों में अपनी परछाईं देख कर जीते हैं?

क्या आप सपनों में जीते हैं?

हमारे सुख के सारे उपाय कहीं दुख को भुलाने के मार्ग ही तो नहीं हैं?

क्या आप भीतर से अमीर हैं?

जीवन का अर्थ क्या है?

पुस्तक के विषय में

 

जीवन के सारे महत्वपूर्ण रहस्य अंधकार में छिपे हैं। वृक्ष के ऊपर जड़ें हैं अंधेरे में नीचे दिखती नहीं है। दिखते है वृक्ष के तने, पत्ते पौधे, सब दिखता है। फल लगते हैं। जड़ दिखती नहीं; जड़ अंधकार में काम करती है। निकाल लो जड़ों को प्रकाश में और वृक्ष मर जाएगा। वह जो जीवन की अनंत लीला चल रही है, वह अंधकार में है।

मां के गर्भ में, अंधेरे में जन्म होता है जीवन का । जन्मते हैं हम अंधकार से; मृत्यु में फिर खो जाते हैं अंधकार में। कोई कहता था, किसी ने गाया है कि जीवन क्या है? जैसे किसी भवन जहां एक दीया जलता हो, थोड़ी सी रोशनी हो, और जिस भवन के चारों ओर घनघोर अंधकार का सागर हो-कोई एक पक्षी उस अंधेरे आकाश से भागता हुआ उस दीये जलते हुए भवन में घुस जाए, थोड़ी देर तड़फड़ाए, फिर दूसरी खिड़की से बाहर निकल जाए। ऐसे एक अंधकार से हम आते हैं और दूसरे अंधकार में जीवन के दीये में थोड़ी देर पंख फड़फड़ा की फिर खो जाते हैं।

अंतत: तो अंधकार ही साथी होगा। उससे इतना डरेंगे तो कब्र में बड़ी मुश्किल होगी। उससे इतने भयभीत होंगे तो मृत्यु में जाने में बड़ा कष्ट होगा। नहीं, उसे भी प्रेम करना सीखना पड़ेगा।

और प्रकाश को प्रेम करना तो बहुत आसान है। प्रकाश को कौन प्रेम नहीं करने लगता है? सो प्रकाश को प्रेम करना बड़ी बात नहीं है। अंधकार को प्रेम! अंधकार को भी प्रेम!! और ध्यान रहे, जो प्रकाश को प्रेम करता है, वह तो अंधकार को नफरत करने लगेगा। लेकिन जो अंधकार को भी प्रेम करता है, वह प्रकाश को तो प्रेम करता ही रहेगा। इसको भी खयाल में ले लें।

क्योंकि जो अंधकार तक को प्रेम करने को तैयार हो गया, अब प्रकाश को कैसे प्रेम नहीं करेगा? अंधकार का प्रेम प्रकाश के प्रेम को तो अपने में समा लेता है, लेकिन प्रकाश का प्रेम अंधकार के प्रेम को अपने में नहीं समाता।

आमुख

 

दो दिशाएं हैं : एक जो हमसे बाहर जाती है । हमसे बाहर जाने वाला जो जगत है, अगर उसके सत्य की खोज करनी हो, जो विज्ञान करता है, तो खोज करनी ही पड़ेगी । खोज के बिना बाहर के जगत का कोई सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता ।

एक भीतर का जगत है । अगर भीतर के सत्य की खोज करनी है, तो खोज बिलकुल छोड़ देनी पड़ेगी । अगर खोज की, तो बाधा पड़ जाएगी, और भीतर का सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता है ।

और ये दोनों सत्य किसी एक ही बड़े सत्य के भाग हैं । भीतर और बाहर किसी एक ही वस्तु के दो विस्तार हैं । लेकिन जो बाहर से शुरू करना चाहता हो, उसके लिए तो अंतहीन खोज है-खोज करनी पड़ेगी, खोज करनी पड़ेगी, खोज करनी पड़ेगी । और जो भीतर से शुरू करना चाहता हो, उसे खोज का अंत इसी क्षण कर देना पडेगा, तो भीतर की खोज शुरू होगी ।

विज्ञान खोज है, और धर्म अखोज है ।

विज्ञान खोज कर पाता है, धर्म स्वयं को खोकर पाता है, खोज कर नहीं पाता ।

तो मैंने जो बात कही है, वह विज्ञान को ध्यान मे लेकर नहीं कही है । वह मैने साधक को, साधना को, धर्म को ध्यान में रख कर कही है कि जिसे स्वयं के सत्य को पाना है, उसे सब खोज छोड़ देनी चाहिए विज्ञान की खोज मे जिसे जाना है, उसे खोज करनी पड़ेगी । लेकिन ध्यान रहे, कोई कितना ही बडा वैज्ञानिक हो जाए और बाहर के जगत के कितने ही सत्य खोज ले, तो भी स्वयं के सत्य के जानने के संबंध मे वह उतना ही अज्ञानी होता है, जितना कोई साधारणजन इससे उलटी बात भी सच है ।

कोई कितना ही परम आत्म-ज्ञानी हो जाए, कितना ही बड़ा आत्म-ज्ञानी हो जाए, वह विज्ञान के संबंध मे उतना ही अज्ञानी होता है, जितना कोई साधारणजन कोई महावीर, बुद्ध, या कृष्ण के पास आप पहुंच जाएं, एक छोटा सा मोटर ही लेकर कि जरा इसको सुधार दे, तो आत्म-जान काम नहीं पडेगा । और आइंस्टीन के पास आप पहुंच जाए और आत्मा के रहस्य के संबंध मे कुछ जानना चाहे, तो कोई आइंस्टीन की वैज्ञानिकता काम नहीं पड़ेगी ।

वैज्ञानिकता एक तरह की खोज है, एक आयाम है । धर्म बिलकुल दूसरा आयाम है, दूसरी ही दिशा है । और इसीलिए तो यह नुकसान हुआ । पूरब के मुल्कों ने, भारत जैसे मुल्कों ने भीतर की खोज की, इसलिए विज्ञान पैदा नहीं हो सका । क्योंकि भीतर के सत्य को जानने का रास्ता बिलकुल ही उलटा है । वहा तर्क भी छोड़ देना है, विचार भी छोड़ देना है, इच्छा भी छोड़ देनी है, खोज भी छोड़ देनी है सब छोड़ देना है । भीतर की खोज का रास्ता सब छोड़ देने का है इसलिए भारत मे विज्ञान पैदा नही हो सका।

पश्चिम ने बाहर की खोज की । बाहर की खोज करनी है, तो तर्क करना पडेगा, विचार करना पडेगा, प्रयोग करना पडेगा, खोज करनी पड़ेंगी तब विज्ञान का सत्य उपलब्ध होगा । तो पश्चिम ने विज्ञान के ज्ञान को तो पाया, लेकिन धर्म के मामले में वह शून्य हो गया । ओर अगर किसी संस्कृति को पूरा होना है, तो उसमे ऐसे लोग भी चाहिए जो भीतर खोजते रहे, जो बाहर की सब खोज छोड़ दे । और ऐसे लोग भी चाहिए, जो बाहर खोजते रहें और बाहर के सत्य को भी जानते रहे ।

हालांकि एक ही आदमी एक ही साथ वैज्ञानिक और धार्मिक भी हो सकता है।

कोई ऐसा न सोचे कि कोई धार्मिक हुआ, तो वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता । कोई ऐसा भी न सोचे कि कोई वैतानिक हो गया, तो वह धार्मिक नही हो सकता । लेकिन अगर ये दोनों काम करने है, तो दो दिशाओं में काम करना पड़ेगा ।

जब वह विज्ञान की खोज करेगा तो तर्क-विचार और प्रयोग का उपयोग करना पड़ेंगा । और जब स्वयं की खोज करेगा, तो तर्क-विचार और प्रयोग, सब छोड़ देना पडेगा । एक ही आदमी दोनों हो सकता हे । लेकिन दोनों होने के लिए उसे दो तरह के प्रयोग करने पड़ेंगे ।

अगर किसी देश ने यह तय किया कि हम सब खोज छोड़ देगे, कुछ न खोजेंगे, तो देश शांत तो हो जाएगा, लेकिन शक्तिहीन हो जाएगा शांत तो हो जाएगा, सुखी हो जाएगा, लेकिन बहुत तरह के कष्टों से घिर जाएगा भीतर तो आनंदित हो जाएगा, बाहर गुलाम हो जाएगा, दीन-हीन हो जाएगा।

किसी देश ने अगर तय किया कि हम बाहर की ही खोज करेंगे, तो संपत्र हो जाएगा, शक्तिशाली हो जाएगा, समृद्ध हो जाएगा, कष्ट बिलकुल न रह जाएंगे, लेकिन भीतर अशांति और दुख और विक्षिप्तता घेर लेगी ।

तो किसी देश को अगर सम्यक सस्कृति पैदा करनी हो, तो उसे दोनों दिशाओ में काम करना पड़ेगा । और किसी व्यक्ति को अगर मौज हो, तो वह दोनों दिशाओं में कामकर सकता है।

वैसे परम लक्ष्य मनुष्य का धर्म है विज्ञान केवल जीवन को गुजरने का जो रास्ता है, उसे थोड़ा ज्यादा सुंदर, ज्यादा शक्तिशाली ज्यादा संपत्र बना सकता है । लेकिन परम शांति और परम आनंद तो धर्म से ही उपलब्ध होते है।

अनुक्रम

1

पहला सूत्र आत्म-स्वतंत्रता का बोध

1

2

दूसरा सूत्र खोजे मत, ठहरें

21

3

विचार-क्रांति

39

4

स्वप्न से जागरण की ओर

69

5

दुख के प्रति जागरण

93

6

समस्त के प्रति प्रेम ही प्रार्थना है

113

7

विश्वास सत्य की खोज मे सबसे बड़ी बाधा

123

8

प्रार्थना का रहस्य

145

9

क्रांति एक विस्फोट है, ध्यान एक विकास है

165

10

नये का आमंत्रण

185

ओशो एक परिचय

213

ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट

214

ओशो का हिंदी साहित्य

216

अधिक जानकारी के लिए

221

 

 

 

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