वैद्य सुरेश चतुर्वेदी
आयुर्वेद अध्यापन के क्षेत्र में १९५४ से ही कार्यरत रहे और आयुर्वेद में डाक्टरेट (पी.एच.डी.) की शिक्षा के गाईड रहे तथा विभिन्न विश्व विद्यालयों में परीक्षक, बोर्ड एवं फेकल्टी के सदस्य भी रहे।
अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठीयों में विभिन्न आयुर्वेदीय विषयों पर संयोजक रहे, आलेख प्रस्तुत किये।
विशेष वक्ता के रुप में रहे तथा संगोष्ठीयों की अध्यक्षता की, विदेशों में आस्ट्रेलिया, इण्डोनेशिया, टोकियो, मारेशीयस, केनाडा, नेपाल तथा बैंकोक, सिंगापुर, हाँगकांग, इंग्लैंड तथा अमेरिका में आयुर्वेद का प्रचार किया।
इन्टरनेशनल सेन्टर ओफ इन्सेक्ट फिझियोलॉजी एन्ड एकोलोजी-नैरोबी में रिसोस स्पीकर के (विशेष व्याखाता) के रुप में सात बार नीम का आयुर्वेदीय दृष्टि कोण प्रस्तुत किये। लेखक के रुप में नवभारत टाईम्स में ६ वर्ष तक स्वास्थ्य प्रश्नोत्तर कालम लिखते रहे। अन्य अनेक साहित्यिक एवं स्वास्थ्य संबंधी पत्र पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित होते रहते हैं। इसके अतिरिक्त आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर अनेक वार्तायें प्रसारित होती रहती हैं। चिकित्सा क्षेत्र की सभी पैथियों में समभाव लाने के लिये धन्वन्तरी फाउन्डेशन को संस्थापक के मंत्री के रुप में कार्य कर रहें हैं।
इनके अतिरिक्त आयुर्वेद क्षेत्र की विभिन्न संस्थाओं में विभिन्न पदो पर रहकर कार्य करते रहें हैं।
इनकी लगभग बारह पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। और चार-पांच शीघ्र प्रकाशित होने वाली हैं।
आपको अनेक संस्थाओं द्वारा सन्मानित किया गया हैं।
भारत में "नीम" के वृक्ष से सभी परिचित हैं। घर का आँगन, गली, मोहल्ला, गाँव या शहर सभी जगह यह युग युगान्तरो से पाया जाता हैं। बच्चा हो बुढ़ा, गरीब हो या अमीर सभी इससे अच्छी तरह से पहेचानते हैं। यह दुःख सुख का साथी है, अनेक प्रकार के शारीरिक रोगो में अनेक प्रकार से इसके आन्तरिक प्रयोग होते हैं।
और अनेक रोग में बाह्य प्रयोग के रुप में भी यह प्रयुक्त होता है। शुभ अवसरो पर धार्मिक कृत्यो में भी इसका प्रयोग होता हैं। संक्रामक रोगो से बचने के लिए और रोग होने पर उसकी शान्ति के लिए इसका विशेष प्रयोग सदियो से होता आ रहा हैं।
आज कल तो मच्छर आदि को नष्ट करने के लिए या दूर भागने के लिए "पेस्टी साईड" के रुप में प्रयोग हो रहा हैं। खेती की रक्षा करने एवं उसके पोषण के लिए भी नेचुरल फर्टीलाइजर के रुप में इसका प्रयोग हो रहा हैं। विभिन्न प्रकार के सौंदर्य प्रसाधनो में कोस्मैटीक के रुप में आज काल बहुत प्रचलित हो रहा हैं।
इन्हीं उपलब्धियों के कारण आज सारा विश्व "नीम" के गुणो से प्रभावित हुआ हैं। और इसकी नयी नयी वैज्ञानिक खोज भी जारी हैं। अमेरिका ने तो इसे पेटेन्ट भी करा लिया हैं। केनिया मे स्थापित इन्टर नेशनल सेन्टर ओफ इन्सेक्ट फिजीयोलोजी एण्ड एकोलोजी के द्वारा वैज्ञानिक कुछ वर्षों से आफ्रिका के देशो के विशेषज्ञों को नीम की पूर्ण जानकारी देने के लिए ट्रेनिंग वर्क शॉप भी चलायी जा रही है। जिसमें आफ्रिका के अनेक देशो में नीम की उपयोगीता प्रचार हुआ हैं।
मैं रिसोर्स स्पीकर के रूप में सात बार इन ट्रेनिंग वर्कशोप में जा चूका हूं बम्बई में स्थापित नीम फाऊन्डेशन भी इसके प्रचार प्रसार में निरन्तर क्रियाशील हैं।
केवल नीम विषय पर भारत में केनिया तथा आस्ट्रेलिया एवं वैकुवर (केनाडा) में अन्तरराष्ट्रीय संमेलन आयोजित हुए है। इस प्रकार बढती हुई नीम की आंतरराष्ट्रीय ख्याति को ध्यान में रख कर मैने "नीम इन आयुर्वेदिक" नामक पुस्तक लिखी इसके तीन संस्करण बहुत जल्दी समाप्त हो गये।
भारतीय विद्या भवनने इसी वर्ष इसका नया संस्करण प्रकाशित किया हैं। मैने सोचा कि हिन्दी के पाठको को भी नीम के विषय में कुछ आयुर्वेदिक दृष्टी से जानकारी प्राप्त हो। तदर्थ यह प्रयास प्रस्तुत किया है।
आशा है यह कुछ दिशा प्रदान करने में सार्थक सिद्ध होगी। अन्त में इतना ही कहूंगा कि जब कभी आप का स्वास्थ्य खतरे में हो तो नीम को आप वैद्य के रुप में देखे और स्वास्थ्य प्राप्त करें।
आयुर्वेद (आयुष + वेदः) को यदि 'जीवन विज्ञान' के रूप में परिन्माषित किया जाये तो इसमें मानव शरीर को निरोग एवं पुष्ट रखने में वनस्पतियों, जन्तुओं एवं धातु-लवणों के समुचित उपयोग का ज्ञान समाहित है। आयुर्वेद, चिकित्साशास्त्र की एक पद्धति की रूप में शरीर को स्वस्थ बनाये रखने को उतना ही महत्व देता है, जितना कि रोगी की सर्वांग चिकित्सा को। वास्तव में आयुर्वेद स्वस्थ एवं निरोग जीवन की एक विशिष्ट शैली है, जिसे सुगमता से अपनाया जा सकता है। आयुर्वेद के आधारभूत सिद्धांतो में पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि एवं वायु) की व्याख्या एवं इनका शरीर (स्थूल एवं सूक्ष्म) में सम्यक् रूप से होना महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि बह्मांड एवं जीव का आधारभूत सम्बन्ध एक शक्तियुक्त साम्य पर निर्भर है। मानव शरीर में पंचभूत दोष, धातु, एवं मल के रूप में निहित हैं। इन तीनों के पूर्ण सामंजस्य की स्थिति शरीर को स्वस्थ रखती है। दोष, धातु एवं मल का असंतुलन ही शरीर को अस्वस्थ एवं रोग ग्रसित बनाता है। शरीर को स्वस्थ रखने में या फिर रोग ग्रसित शरीर के उपचार में वनस्पतियों का उपयोग आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में व्यापक रूप में किया जाता है। कोई सात हजार वनस्पतियों का प्रयोग औषधि के रूप में प्रचलित है। इसमें अनेक प्रकार की वनस्पतियां घास से लेकर बडे वृक्ष तक शामिल हैं। नीम (अजेडिस्यटा इंडिका) एक ऐसा औषध वृक्ष है, जो संभवतः सर्वगुण संपन्न है। नीम 'कल्पवृक्ष' के नाम से भी पुकारा जा रहा है। भारत में जहां 'वनस्पतयः शान्ति' एक मंत्र वाक्य है, नीम को अत्यंत उपयोगी एवं सर्व सुलभ होने के नाते जीवन के एक विशिष्ट सहयोगी का स्थान प्राप्त है।
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