भारतीय काव्यशास्त्र के प्राचीन आचायों का विस्तन एक विशिष्ट सांस्कृतिक परिवेश तथा दार्शनिक अवधारणाओं के परिदृश्य में हुजा था । भरत से आरम्भ करके जगन्नाथ तक के अधिकांश आचायों ने पूर्ववर्ती तथा समकालीन साहित्यकृतियों के मूल्यांकन के लिए जिन मानदण्डों-रस, अलकार, रोति, ध्वनि, वक्रोक्ति, ओनित्य का आविष्कार किया था, उनमें चिरस्थायित्व का गुण होने पर भी उनका पुनराख्यान और पुनर्मूल्यांकन नितांत आवश्यक हो गया है। आधुनिक भारत के सांस्कृतिक परिवेश में बड़ी क्षिप्र गति से परिवर्तन आ रहा है। आवागमन तथा संचार-साधनों के निश्य नये वैज्ञानिक आविष्कारों से समूचे विश्व के मानवों का परस्पर सम्पर्क तथा विचार-विनिमय बहुत बढ़ गया है। कला-सर्जकों तथा साहित्यकारों की चेतना पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण का, बौद्धिक विन्तन का तथा बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों का गहरा प्रभाव पड़ रहा है। इस परिवर्तन का प्रतिविम्व इनको साहित्य-रचनाओं में भी स्पष्ट झलकने लगा है।
युगानुरूप नवनिर्मित साहित्य के लिए नये-नये प्रतिमानों के आविष्कार की आकांक्षा की जागृति को अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। किन्तु नये साहित्य में नवेपन का प्रतिनिधित्व करने वाले वे कौन-से मूलभूत तत्त्व अन्तनिहित हैं जिनका प्राचीन प्रख्यात साहित्य-कृतियों में सर्वथा अभाव था ? यही ज्वलंत प्रश्न वर्तमान युग के साहित्य-समीक्षकों तथा काव्यशास्त्र के संद्धान्तिक चिन्तकों के समक्ष अत्यन्त जटिल बन कर उपस्थित होता है।
साहित्य के मूल्यांकन के प्रतिमान चाहे प्राचीन हों चाहे नवीन उनका साहित्य-सापेक्षी होना नितान्त अनिवार्य है, इस आधारभूत मान्यता को खंडित नहीं किया जा सकता। आधुनिक अनेक समीक्षकों ने प्राचीन रस-सिद्धान्त की अनुपादेयता का प्रतिपादन किया है। इनके चिन्तन और तर्क का आधार है- वर्तमान युग का विपुल साहित्य-सर्जन, जिसमें न केवल काव्यणत वरन् काव्यविधागत नवीनता भी लक्षित होती है।
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