आमुख
विगत कई वर्षों से हिन्दी साहित्य के प्रमुख इतिहास ग्रंथों को पढ़ने और समझने का अवसर मिला। उनके गुण-दोषों से भी परिचित हुआ। मुझे लगा कि हिन्दी साहित्य के इतिहास-ग्रंथों की परम्परा-प्राप्त कोई सुदृढ़ पृष्ठभूमि नहीं है। नवीन इतिहास लेखक को कोई ऐसा प्राचीन इतिहास ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है जिसमें उसके लेखक ने अपने काल के पूर्ववर्ती सम्पूर्ण साहित्य का वैज्ञानिक सर्वेक्षण प्रस्तुत कर दिया हो जिससे उसकी रिक्थ पर परवर्ती लेखक को केवल पूर्ववर्ती इतिहासकार के अनन्तर विकसित वाड्मय का ही मूल्यांकन करना शेष हो। फलत नवीन साहित्य इतिहास लेखक अपना काम आरंभिक युग से ही आरम्भ करने को बाध्य है। इसी संदर्भ में मैंने हिन्दी साहित्य का नवीन इतिहास लिखने का प्रयास किया है। इतना स्पष्ट है कि अपनी अनेक विसंगतियों के बावजूद आचाय रामचन्द्र शुक्ल का हिन्दी साहित्य का इतिहास अब भी ऐसा प्रकाशपुंज है जो साहित्येतिहास लेखकों का मार्गदर्शन कर रहा है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल-विभाजन नामकरण और मूल्यांकन के सम्बन्ध में विद्वानों में मत-वैभित्र्य है। डॉ० बच्चन सिंह का मत है कि 'वास्तविकता तो यह है कि एक ही कालावधि में अनेक प्रकार की साहित्यिक प्रवृत्तियां होती हैं। उनसे या तो सह-अस्तित्व होता है या टकराहट होती है।'' काल-विभाजन मात्र सुविधा होता है। इतिहास-लेखक एक कालावधि को एक शीर्षक से बाँध देता है इस दृष्टि से मैंने उद्भव कालीन साहित्य को आदि काल की संज्ञा से अभिहित किया है । इस काल में वीरगाथात्मक, श्रृंगारपरक, लौकिक-धार्मिक आदि अनेक प्रकार का साहित्य लिखा गया है। प्रथम अध्याय में इसका सम्यक् विश्लेषण किया गया है।
भक्तिकाल के नामकरण पर कोई मतभेद नहीं है। डॉ० बच्चन सिंह का कहना है कि' भक्तिकाल भक्तिकाल है, मध्यकाल नहीं। मध्यकाल सामान्यत जकड़ी हुई मनोवृत्ति का परिचायक है।' इस काल में सगुण-निर्गुण नामक दो धाराओं में प्रचुर साहित्य लिखा गया है।
रीतिकाल वस्तु, शैली छंद, रस आदि की दृष्टि से अपने आप में एक स्वतंत्र काल है। इस काल में शृंगार के अतिरिक्त भक्ति. नीति और वीरता सम्बन्धी साहित्य भी पर्याप्त मात्रा में लिखा गया है । इस युग में रचे गये साहित्य का समुचित मल्यांकन करने का प्रयत्न किया गया है।
आधुनिक काल के गत्यात्मक परिवर्तनों के कारण इसे छोटे-छोटे युगों में विभाजित किया गया है, जैसे- युग, द्विदी युग, छायावाद युग, में विभाजित किया गया है, जैसे-भारतेन्दु युग, द्विदी युग, छायावाद युग, प्रगतिवाद युग आदि। इन युगों की विशेषताओं को नये-नये प्रत्ययों के संदर्भों में परखने का प्रयास किया गया है। आशा है कि हिन्दी साहित्य के पाठकों के लिये यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी।
जिन विद्वानों की कृतियों से मुझे सहायता प्राप्त हुई है मैं उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। हिन्दी साहित्य के अनुभवी रचनाकार महामहिम श्री माताप्रसाद, राज्यपाल, अरुणाचल प्रदेश के मूल्यवान सुझावों के प्रति कृतज्ञ हूँ।
ग्रंथ के प्रकाशन में विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी के विद्वान संचालक श्री पुरुषोत्तमदास मोदी ने जो उत्साह एवं सहयोग दिया है, उसके लिये आभारी हूँ।
विषय-सूची
अध्याय-1
आदिकाल
1-41
अध्याय-2
भक्तिकाल
42-92
अध्याय-3
रीतिकाल
93-110
अध्याय-4
आधुनिक काल
11-226
अध्याय-5
दलित साहित्य : एक अन्तर्यात्रा
227-232
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