आमुख
नाट्य लोकावस्था की अनुकृति है । नृत्य का अंतर्भाव भी अतएव नाट्य में ही होता है । नृत्त यद्यपि साधारणतया भाव व्यंजक नहीं होता, तथापि लोकावस्था की अनुकृति की परिधि में आता है । नृत्य हो चाहे सुत्त, दोनों ही हमारे वास्तविक जीवन के अंग हैं, स्थितियां हैं, अवस्थाएँ हैं ।
नर्तक सामाजिकों के समक्ष जो कुछ प्रस्तुत करता है, वह अति लौकिक नहीं होता, अपितु लोक जीवन की वास्तविकता का जितनी अधिक मात्रा में अभिव्यंजन करता है, उतना ही सफल कहलाता है ।
हम अपने हृदय के भाव वाणी द्वारा तो अभिव्यक्त करते ही हैं, परंतु हमारे शरीर के अन्य अंग भी हमारी भावाभिव्यक्ति में अनिवार्य सहायक होते हैं वे निश्चल नहीं रहते । क्रोधावेश में हमारी भौंहें तन जाती हैं, आँखें लाल हो जाती हें, होंठ फड़फड़ाने लगते हैं, वाणी कर्कश हो जाती है परंतु प्रेमपात्र के दर्शन के समय हमारी समस्त चेष्टाएँ विनम्र एवं प्रसन्न होती हैं । इस प्रकार अनेक मन स्थितियों में हमारी चेष्टाएँ विविध होती हैं । नर्तक का कार्य उनका अनुकरण मात्र है ।
भारतीय परम्परा के अनुसार, नाट्य का प्रधान प्रयोजन मनोरंजन है । अतएव नृत्य का उपयोग भी मन के रंजन के लिए ही है । कवि, नट, चित्रकार अथवा मूर्तिकार जब अपनी कला के द्वारा हमें इतना तन्मय कर लेता है कि हम अपनी सुध बुध सर्वथा भूल जाते हैं अपने पृथक् व्यक्तित्व, सुख दुःख, चिंता आदि से पूर्णतया मुक्त होकर एक अखंड आनंदमय चेतना का अनुभव करते हैं, तब हमारी वह स्थिति रसानुभूति की अवस्था होती है । उस अवस्था में अनुभूत होनेवाला आनंद ही रस है । भारतीय आचार्यो की दृष्टि में कलाओं का प्रयोजन लक्ष्य या साध्य है ।
सौन्दर्य अनंत है, आनंद अनंत है इन दोनों की अभिव्यक्ति के स्थल भी अनंत हैं फलत इनकी अभिव्यक्ति के साधन भी अनंत हैं । आनंद की अभिव्यक्ति के उपकरणों के लक्षणों का विधान आनंदानुभूति के पश्चात् हुआ करता है । पहले हमें एक अनुभव होता है, तदनंतर हम उसके कारणों की खोज करते हैं और फिर कहीं हम एक परिणाम पर पहुँचते हैं, जो स्वभावत एक नियम बन जाता है । यह स्वाभाविक प्रक्रिया है । इसीलिए शास्त्रकार नियमों का अन्वेष्टा होता है, निर्माता नहीं । नियम नए सीखनेवाले के लिए वही काम देते हैं, जो बच्चे को चलना सिखाने के लिए बड़ों का आश्रय देता है । ये नियम प्रारम्भिक विद्यार्थी में ऐसा संतुलन उत्पन्न करते हैं, जो उसकी भावी प्रगति में सहायक होता है । अतएव शास्त्र की आवश्यकता होती है । शास्त्र शव्द का अर्थ शासन करने का साधन, शास्ता का अर्थ शासन करनेवाला और शिष्य का अर्थ शासन का पात्र है । किसी पुल के दोनों ओर लगी आडू पथिकों को नदी में गिरने से बचाने के लिए होती है । यदि कोई नासमझ व्यक्ति उस आडू को बन्धन समझकर स्वच्छंदता का आचरण करेगा, तो नदी के गर्भ में समा जाएगा!
अनंदाभिव्यक्ति के उपकरणों की खोज निरंतर होती रहती है । फलत मनीषी व्यक्ति नवीन सत्यों का उद्घाटन करते रहते हैं । परिणाम यह होता है कि हमारे ज्ञान भंडार में वृद्धि होती रहती है । इस भंडार के वर्द्धक हों या रक्षक, दोनों ही स्तुत्य होते हैं ।
रस सिद्धांत संसार को भारतीय मनीषियों की देन है । यह भारत की अजल साधना का मधुरतम परिणाम है । करना के चरम लक्ष्य पर हमारी ही दृष्टि पहुँची है यह एक निर्भ्रांत एवं अखंडनीय तथ्य है ।
पाश्चात्य शासन ने हममें से स्वतंत्र विचार दृष्टि प्राय नष्ट कर दी । गिने चुने भारतीय विद्वान इस ग्रह से मुक्त हो पाये हैं । सारे संसार के इतिहास को कुछ सहस्र वर्षो के अतीत में ठूंसने की दुराग्रहपूर्ण चेष्टा जो पाश्चात्य तार्किकों के द्वारा हुई है, वह उनके कुछ परंपराजन्य अंधविश्वासों का परिणाम है । साथ ही साथ शासित भारत के गौरवपूर्ण अतीत से चौंधियाकर उसे प्रत्येक विषय में किसी न किसी अन्य देश का शिष्य बनाने में उन्हें संतोष मिलता रहा है । ऐसे दुराग्रहग्रस्त लेखकों के मानस पुत्र स्वतंत्र भारत में भी अभी हैं, जो मू लत ग्रंथों को न पढ़कर उनके विषय में पाश्चात्य लेखकों के विचार रटकर ही यत्र तत्र भाषणों अथवा लेखों का प्रसाद बांटते रहते हैं । अभी हाल में ही एक सज्जन ने स्थापना की है कि महर्षि भरत के रस सिद्धान्त पर पाइथागोरस का प्रभाव है जबकि पाइथा गोरस के देशवासियों ने अभी तक रस पर कोई स्वतंत्र विचार न तो प्रकट किया है और न वहाँ की साहित्य परम्परा में रस प्रक्रिया चर्चा का विषय बनी है ।
महर्षि भरत नाट्यवेद के आदिम प्रथक हुए हैं । वर्तमान नाट्यशास्त्र उनके सिद्धांतों का पश्चात्कालीन संकलन मात्र है । भावप्रकाशन कार शारदातनय ने स्पष्ट लिखा है कि भरतों ने (महर्षि भरत ने नहीं) नाट्यवेद का सार लेकर दो संग्रह निर्मित किए एक द्रादशसाहस्री और दूसरा षट्साहस्री । वर्तमान नाटय शास्त्र षट्साहस्री है । इस षट्साहस्री के प्रथम अध्याय के आरंभिक श्लोकों में ही मूल नाट्यवेद की चर्चा है ।
वस्तुत आदिम महर्षि भरत वैदिक काल के व्यक्ति हैं और नाट्यशास्त्र के अनुसार भी वे राजा नहुष के समकालीन हैं, जो नवीन अनुसंधानों के परिणाम स्वरूप एक वैदिककालीन नरेश सिद्ध हो चुके हैं । श्रीमद्भागवत एवं वाल्मीकि रामायण जैसे ग्रंथों तक पर भरत सिद्धांतों का स्पष्ट प्रभाव है ।
सुदूर अतीत में भारतीय संस्कृति का प्रसार विश्व भर में हुआ था, फलत खोज करनेवालों को उसके भग्नावशेष दूर दूर तक मिल रहे हैं । वस्तुत महर्षि भरत जैसे आप्त महापुरुषों को जिन सिद्धान्तों का दर्शन हुआ, ने सार्वभौम हैं । उन पर गम्भीर दृष्टि से विचार किया जाना अभी अवशिष्ट है ।
इस युग में जिन दो महापुरुषों ने भारतीय संगीत को भारतीयों की दृष्टि में सम्मान का पात्र बनाया, वे स्व० भातखंडे जी एवं विष्णुदिगम्बर जी, प्रत्येक संगीत रसिक के लिए वन्दनीय हैं । परन्तु उनके ऋण से हम तभी उऋण हों मरने हैं, जबकि बचे हुए कार्य को पूर्ण करने हेतु हम सचेष्ट हों ।
स्व० भातखंडे जी ने अपनी हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के चौथे भाग के उपसंहार में लिखा है
कुछ महत्वपूर्ण बातों के सम्बन्ध में मेरे द्वारा की गयी शोध अभी ना निर्णयात्मक अवस्था में नहीं पहुंच सकी है कुछ बातें सम्भव होने पर भी मेरे हाथों से पूर्ण नहीं हो सकीं हैं ।
इन बातों में भातखंडे जी ने जहां संगीत रत्नाकर स्पष्टीकरण, राग रागिनी व्यवस्था, राग एवं रस, प्राणियों के शरीर पर होनेवाले स्वरों एवं श्रुतियों के प्रभाव, गीत निर्माण के नियम, नाट्य संगीत एवं उसके संशोधन, रागों के काल का सकारण निर्णय इत्यादि विषयों पर अपनी खोज को अपूर्ण एवं अनिर्णयात्मक बताया है, वहाँ प्रचलित मृत्य पद्धति के गुण दोष खोजकर इस कला के उत्कर्ष के उपायों को खोजना भी अवशिष्ट ही कहा है ।
प्रस्तुत पुस्तक नृत्य भारती इसके मननशील एवं विद्वान लेखक की छात्रो पयोगिनी कृति है । इस दिशा में यह कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण हे । स्व० भातखंडे जी की दिवंगत आत्मा को यह देखकर शान्ति होगी कि एक वर्ग उनके लगाये हुए वृक्ष के सिंचन में भी व्यस्त है । इस पुस्तक के विद्वान् लेखक की गणना भी उन्हीं सींचनेवालों में है ।
हंसदृष्टि आलोचकों का अभाव कला की अवनति का कारण हुआ करता है । नृत्य की वर्तमान स्थिति में उत्कर्ष एवं अनेक वर्तमान नर्तकों में वैज्ञानिक दृष्टि आज अपेक्षित है । प्रस्तुत पुस्तक केवल आरम्भिक विद्यार्थियों को ही नहीं, व्यवसायी नर्तकों को भी बहुत कुछ सिखाएगी ।
कुछ स्थानों पर विद्वानों का नृत्य भारती के लेखक से असहमत होना संभव है । परन्तु इस पुस्तक का लेखन विशेषतया विद्यार्थियों के लिए सुबोध भाषा में हुआ है । रेखाचित्रों ने पुस्तक की उपयोगिता निस्सन्देह बहुत अधिक बढ़ा दी है ।
संगीत कार्यालय के संचालकों ने जिस स्थिति में संगीत सम्बन्धी साहित्य का प्रकाशन आरम्भ किया था, वह स्थिति आज जैसी नहीं थी । परन्तु धैर्य एक् अध्यवसाय के दारा उन्होंने संगीत संसार की अमूल्य सेवा की है । प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन के लिए वे बधाई एवं धन्यवाद के पात्र हैं ।
अनुक्रमणी
1
आमुख (आचार्य बृस्पतिवार)
3
2
प्राक्कथन भारतीय नृत्य कला
9
पहला परिच्छेद रंगशाला
13
4
दूसरा परिच्छेद अंग तथा पारिभाषित शब्द
16
5
तीसरा परिच्छेद चारी तथा मण्डल
21
6
चौथा परिच्छेद हस्तमुद्राएँ तथा रेचक
26
7
पाँचवाँ परिच्छेद अंग संचालन
32
8
छठा परिच्छेद करण तथा अंगहार
35
सातवाँ परिच्छेद स्थान
45
10
आठवाँ परिच्छेद संगीत
48
11
नवाँ परिच्छेद रस तथा उनके अवयव
54
12
दसवाँ परिच्छेद क्रियात्मक साम्रगी
59
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist