जिसने सम्पूर्ण मानवता को अपने स्नेह के संरक्षण में समेट रखा है उसकी छाँव का आश्रय ढूंढने वाले हमेशा सुखी रहेंगे। अब्दुल बहा ने अपने नाती शोगी एफेंदी के बारे में यह पंक्ति लिखी थी।
विलियम और मुझे 1953 में पहली बार धर्मसंरक्षक से मिलने का सुअवसर मिला। हम इस धारणा के साथ उनसे मिलकर वापस हुए कि शोगी एफंदी में आत्मीय भावनाओं की व्यापक चुम्बकीय शक्ति है और उनसे मिलने वाला ऐसी सशक्त अनुभूति के साथ वापस लौटता है जो इस धरती पर और कोई नहीं जगा सकता।
अमातुल-बहा रूहिया खानम ने कहा था कि वे सर्वज्ञाता तो नहीं थे लेकिन वे अति संवेदनशील अवश्य थे। बाद में उन्होंने अपनी पुस्तक 'अनमोल मोती' (प्राइसलेस पर्ल) में इस अवधारणा के बारे में विस्तार से लिखा:
'इतिहास में उनकी बराबरी का कोई व्यक्तित्व ढूंढ निकालना निश्चित रूप से कठिन होगा, जिन्होंने एक सदी के तीसरे हिस्से से कुछ ही अधिक समय में न केवल अनेक अलग-अलग अभियानो को गतिशील रखा, बल्कि उनके हर सूक्ष्म ब्यौरों पर बारीकी से विचार करने के साथ-साथ पूरे बहाई विश्व को अपनी योजनाएँ, अपने निर्देश, अपना मार्गदर्शन और अपना नेतृत्व प्रदान करने का भी समय निकाला।"
जब हम पावन भूमि की यात्रा पर गये तो उन्होंने हमें स्पष्ट किया कि उनसे मिलना पवित्र यात्रा का हिस्सा नहीं, पवित्र यात्रा तो पावन समाधि के दर्शन हैं। हालाँकि उनके टेबल पर उनके सामने बैठे पश्चिमी देशों से आये हम दोनों अद्भुत रोमांच का अनुभव कर रहे थे कि हम मानव जाति के सर्वोच्च उद्धारक, प्रभु की दिव्य महिमा, सम्राटों के सम्राट, अतिथियों के स्वामी उस महान विभूति के परनाती की आँखों में सीधे देख रहे हैं। उन क्षणों में हम वास्तव में पृथ्वी पर "प्रभु के प्रतीक की उपस्थिति के रोमांचकारी आभा मंडल में थे।
मैं संरक्षक से कमी नहीं मिला, लेकिन मैं उन्हें बेहद प्रेम करता था। मुझे आशा है कि इस पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते आप भी उनसे प्रेम करने लगेंगे।
मैं 1948 की फरवरी में बहाई बना। अमरीकी बहाई समुदाय के नाम उनके पत्र मेरे लिए विटामिन जैसे थे वह भोजन जिसकी अपने स्वास्थ्य और ऊर्जा के लिए मुझे ज़रूरत थी। उनके प्रत्येक संदेश को मैं बार-बार पढ़ता और बड़ी उत्सुकता से प्रत्येक नये संदेश के पहुँचने की प्रतीक्षा करता। 14 नवम्बर 1923 को अमरीकी बहाइयों के नाम उनके पत्र में आये एक वाक्य के नीचे दिये रूपान्तर को दोहराते हुए मैं हर दिन उनके लिए प्रार्थना करता :
"मैं अनुनय करता हूँ कि प्रेममय ईश्वर अभी इसी क्षण से शोगी एफेंदी को वे समस्त शक्तियाँ और ऊर्जाएँ प्रदान करें ताकि वे विभिन्न देशों के मित्रों के सहयोग से बहाउल्लाह के धर्म की विजय प्राप्त करने के महान कार्य में लम्बे समय तक निर्बाध रूप से अथक परिश्रम कर सकें।"
1957 के सितम्बर महीने में मेरे पिता का निधन हुआ। उस समय मैं केपटाउन में अपनी पत्नी के साथ पायनियर था। मैंने अपने पिता के लिए प्रार्थना की और मैं जानता था कि अब वे प्रभु के स्नेहपूर्ण संरक्षण में सुरक्षित हैं। इसके छः सप्ताह बाद धर्मसंरक्षक शोगी एफेंदी की मृत्यु हो गयी। मुझे विश्वास नहीं हुआ। हमें केपटाउन में ख़बर मिली थी कि वे लंदन में एशियन फ़्लू की चपेट में है। हमने उनके स्वस्थ होने के लिए प्रार्थना की थी पूरे विश्वास और आस्था के साथ कि अभी वे जीवित रहेंगें, क्योंकि अभी उनकी आयु मात्र साठ वर्ष थी, यह मृत्यु की उम्र नहीं थी, और यह कि वे हम सबके संरक्षक थे।
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