हमारी हस्तशिल्प वस्तुओं के विषय में
आप चाहै हस्तशिल्प वस्तुएं कहें, दस्तकारी या घरेलू नक्काशी-ये सभी मूल रूप से एक ही हैं । भारत में ये सब प्राचीन काल से और अनेक सदियों से स्थापित हैं और इनकी सुदृढ़ परंपरा रही है। ये वस्तुएं देखने में सुंदर होती हैं, इस्तेमाल करने में अनुकुल हैं और जनजीवन के लिए अर्थपूर्ण भी ।
भारत में प्राचीन काल से ही इन हस्तशिल्प वस्तुओं के लिए काफी सम्मान का भाव रहा है । इन वस्तुओं की मांग रही है । इतना ही नहीं, दुनिया के अन्य देशों में भी इनकी बड़ी प्रसिद्धि रही है । कहते हैं कि रामाका युग में भी हस्तशिल्पियों और उनकी कलात्मक वस्तुओं का समाज में प्रमुख स्थान था । यह एक प्राचीन विश्वास रहा है कि इन हस्तशिल्पियों या कारीगरों के आदि पुरुष साक्षात् विश्वकर्मा ही हैं । इसलिए उस जमाने का कारीगर अपनी विद्या और अपने हाथ से बनाई गई वस्तुओं को, विश्वकर्मा को ही अर्पित करके संतुष्ट हो जाता था । कुम्हार-जो मिट्टी के पात्रों का निर्माण करता था; कसेरा-जो कांसे के सांचों से मूर्तियों का निर्माण करता था; सुनार-जो आभूषणों का निर्माण करता था; बढ़ई या काष्ठशिल्पी जो लकड़ी के सामान का निर्माण करता था; जुलाहा-जो सुंदर, जरीदार कपड़ों को बुनता था-इन सभी का वेद और पुराणों में वार्गन मिलता है ।समय निरंतर बदलता रहता है और परंपराएं, ताना-बाना तथा शिल्प-माध्यम भी उसके अनुसार बदल जाते हैं-यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । साथ ही, हर एक वस्तु में समकालीनता का पुट भी हो, इसकी अपेक्षा करना भी स्वाभाविक है । मगर यह परिवर्तन मूलभूत परंपरा के दायरे में ही होता है । हाथ से इस्तेमाल करने वाले सरल साधनों के साथ-साथ, बिजली से काम करने वाले छोटे-छोटे यंत्र भी सामने आए हैं । इससे यह सुविधा हुई है कि कलाकार कम समय में अधिक-से-अधिक वस्तुओं को तैयार कर सकते हैं ।
एक समय था, जब हस्तशिल्प कलाकार सुंदर मूर्तियों का निर्माण सिर्फ इसलिए ही नहीं करते थे कि उन्हें बाजार में बेचकर मुनाफा पा सकें । जीवनयापन करने के लिए प्राय: उन्हें शासकों का आश्रय मिलता था और धनिकों की छाया भी । उनके काम और कला से कला प्रेमियों को संतोष मिल सके, कलाकार मात्र इतना ही चाहता था । मगर जैसे-जैसे समय बदलता गया, परिस्थितियों में भी परिवर्तन होता गया और अब कलाकार को बाजार पर ही निर्भर रहकर अपना जीवनयापन करना पड़ता है ।
सौभाग्य से हमारे देश में कारीगरों के लिए जरूरी कच्ची सामग्री की कमी नहीं है । शिला (सभी प्रकार के पत्थर), लोहा (पीतल, तांबा, सीसा आदि), काष्ठ (चंदन, शीशम, सागौन आदि), दंत (अब हाथियों के संरक्षण के लिए दत का इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी गई है), बांस और बेंत-इस प्रकार सारी वस्तुएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं । अनुभवी कलाकार जो विभिन्न समुदायों से आए हैं, आज लाखों की संख्या में हैं । इन कलाकारों को नए-नए विन्यासों की आवश्यकता होती है । इसके लिए देश के कई शहरों में विन्यास-केंद्रों की स्थापना की गई है । बाजार की सुविधा मुहैया कराने के लिए राज्य स्तर पर असंख्य दुकानें खोली गई हैं । इसके अलावा विदेशों में हमारी हस्तशिल्प वस्तुओं को निर्यात कर कलाकारों को अधिक मुनाफा मिल सके, इसके लिए भी विभिन्न स्तरों पर कार्यालय और शाखाएं काम कर रही हैं । हस्तशिल्प वस्तुएं दैनिक जीवन में जितनी उपयोगी हैं, श्रृंगार के लिए भी उतनी ही आवश्यक होती हैं ।
हस्तशिल्प द्वारा निर्मित वस्तुएं हमारे जीवन को सुंदर बनाती हैं । हमारे जीवन में इनकी उपस्थिति सुखद है । खूबसूरती और इस्तेमाल के लिए अत्यावश्यक चीजें ये हस्तशिल्प वस्तुएं ही हैं, जिनसे पर्यावरण पर भी कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है ।
आजकल हर कहीं बड़े-बड़े उद्योग-धंधे और कारखाने स्थापित हो रहै हैं, जो मानव के जीवन-मूल्यों में परिवर्तन कर, जीवन को यांत्रिक रूप दे रहै हैं । ऐसे वातावरण में ये सुंदर दस्तकारी वस्तुएं, चांदनी के समान मन को ठंडक पहुंचाने वाली लगती हैं । इनकी एक और विशेषता यह है कि हर एक वस्तु एक स्वतंत्र कृति है । कोई भी दो वस्तु एक समान नहीं होती । हर एक की एक अलग बनावट होती है, क्योंकि नाम के अनुसार ही ये हाथ से तैयार की गई शिल्प या कला की वस्तुएं हैं।
अंग्रेजों के शासन काल में इस हस्तशिल्प क्षेत्र पर बड़ा विपरीत प्रभाव पड़ा और कलाकारों को अपनी जीविका के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में जाने की विवशता हो गई । हर कहीं उद्योग-धंधे ओर बड़ी-बड़ी मशीनें लग गई । ऐसे में सुंदर कलाकृतियों को हाथ से तैयार करने वाले कलाकारों की स्थिति खराब हो गई । कहा जा सकता है कि आजादी के पूर्व हस्तशिल्प क्षेत्र पर गहरा काला बादल छाया हुआ था । जब भारत आजाद हुआ और हमारी अपनी सरकार शासन करने लगी तो हस्तशिल्प कला पर विशेष ध्यान दिया गया । यदि सरकार ऐसा नहीं करती, तो उन लाखों कलाकारों की स्थिति बेहद दयनीय हो जाती, जो इसी कला पर निर्भर रहते हुए अपना जीवनयापन करते थे । साथही, आज हस्तशिल्प एक बीते हुए युग की बात होकर रह जाती । लेकिन पं. नेहरू की सरकार ने वैसा नहीं होने दिया । हस्तशिल्प वस्तुओं और कारीगरों के पुनरुद्धार के लिए 'अखिल भारतीय हस्तशिल्प मंडल' नामक संस्था की स्थापना सन् 1952 में की गई । श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय को इस संस्था के प्रधान निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया । श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय स्वयं एक प्रसिद्ध समाज सेविका थीं । उनके पदासीन होने से भारत के उस हस्तशिल्प समाज में एक नई चेतना का संचार हुआ, जो परंपरा से इस पेशे को अपनाए हुए था । उनके जीवन में एक नई रोशनी आ गई । स्वतंत्र भारत के आज तक के वर्षो में हस्तशिल्प कला ने अभूतपूर्व प्रगति की है । विदेशी बाजारों में हमारी हस्तशिल्प वस्तुओं को प्रमुख स्थान मिला । विदेशी मुद्रा में भी बढ़ोतरी होने लगी । इससे देश की विविध राज्य सरकारें भी प्रेरित हुईं और अपने-अपने राज्यों की विशिष्ट हस्तशिल्प वस्तुओं और कारीगरों की उन्नति के लिए राज्य विकास निगमों की स्थापना की गई । आजादी के बाद भारतीय हस्तशिल्प ने स्वदेशी और विदेशी बाजार में जो स्थान अर्जित किया है, वह उल्लेखनीय है । इससे पारंपरिक कलाकारों की जीविका का निर्वाह सुनिश्चित हो गया है ।
अनुक्रमणिका
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5
2
हस्तशिल्प वस्तुओं में वैविध्य
9
3
कुशल कलाकार और भारत की प्रमुख हस्तशिल्प वस्तुएं
11
आंध्र प्रदेश
14
अरुणाचल प्रदेश
17
असम
19
बिहार
21
गोवा
23
गुजरात
24
हरियाणा
27
हिमाचल प्रदेश
29
जम्मू और कश्मीर
30
कर्नाटक
32
केरल
35
मध्य प्रदेश
37
महाराष्ट्र
39
मणिपुर, मेघालय, मिजोरम
41
त्रिपुरा और नगालैंड
42
उड़ीसा
46
पंजाब
49
राजस्थान
51
सिक्किम
53
तमिलनाडु
55
उत्तर प्रदेश
58
पश्चिम बंगाल
60
दिल्ली
62
हमारा रंगशिल्प
63
4
हस्तशिल्प कला के विकास में सरकार की भूमिका
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