साधना की उदात्त-उच्चभूमि में अवस्थित साधक का मन जब नानारूपात्मक जगत के प्रत्यक्षीकरण के साथ गहनतम मानवीय अनुभूतियों का तादात्म्य कराता है तब उसके हृदय की शुद्ध और कोमलतम भावनाएँ भक्ति की पावन सुर-सरिता में स्नात काव्य के रूप में आकार ग्रहण करती हैं। विवेक-वैराग्य की उच्च विचार-सरणियाँ, करुण-आत्मनिवेदन की आनुकूलतामयी वेदना के आनन्द से मिलकर परमार्थ-पथ पर मनुष्य का सर्वश्रेयस्कर मंगल विधान करती हुई भौतिक जगत की निस्सारता को प्रत्यक्ष कर देती हैं। भजनानंद की दिव्य प्रभा विषयों की कलुषता को विदीर्ण कर देती है। अनेक जन्मों के संचित शुभ संस्कार अपने अनुकूल संतसमागम, ज्ञान, ध्यान, जप जैसी अनुकूल भूमि पाकर, हृदय में ईश्वर-प्राप्ति की तीव्र लालसा उत्पन्न करने में सहायक होते हैं और तब साधना की सिद्धि-रूप में स्वयमेव भक्तिदेवी का आविर्भाव हृदय-सरोज की ज्ञानकर्णिकाओं पर होता है। वाणी गद्द होकर नेत्रों के जल से सम्पूरित हो अपने अनन्य चैतन्यस्वरूप का आवाहन करने लगती है। भेद-भ्रम का नाश होने पर स्वतः विषयों से वैराग्य हो जाता है और जीवात्मा परमात्मा से मिलने के लिए उत्कण्ठित होकर पुकार उठती है.... धरौं धीर कस स्वामी !
मानव कर तन व्यर्थ गँवायों, मन लोभी अरु कामी।
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