हिंदी साहित्य का उत्तर-मध्यकाल समय के साथ-साथ अपने पाठ को व्याख्यायित करने की मांग करता रहा है और उसकी व्याख्याएँ भी नए तरीके से होती आ रही हैं। हिंदी साहित्य का यह काल खंड रीति आधारित व्याख्याओं को अपने साहित्य का प्रतिमान मानता है। यह साहित्य निश्चित रूप से शास्त्रीय प्रतिमानों एवं लक्षण ग्रंथों के आधार पर रचे गए। ऐसा साहित्य निश्चित रूप से समाज के उच्च वर्ग/नागर का प्रतिनिधित्व करेगा इसमें संदेह नहीं ! लेकिन इसके बावजूद इस साहित्य में लोक की खोज भी आवश्यक होगा। रीतिकाल को पढ़ते हुए अक्सर नायिका भेद की चर्चाएँ हुई हैं, काव्य लक्षण की विशद विवेचना हुई है लेकिन इस काव्य लक्षण की विशद विवेचना के क्रम में भारतीय काव्यशास्त्रीय चिंतन परम्परा की चर्चा नहीं हुई है।
यह साहित्य भारतीय राजनीतिक स्थितियों के भविष्य को साहित्य में दर्ज करता हुआ एक इतिहास लेख के रूप में भी हमारे सामने आता है। इन सभी विविधताओं को अपने में समेटे यह काल ब्रजभाषा में अपना इतिहास लिखता है। वह भाषा जो जन सामान्य की भाषा रही है। इस काल के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि लगभग 1700-1900 ई. के बीच का यह काल प्रबंध एवं मुक्तक काव्य के क्षेत्र में रचनाओं की श्रृंखला को प्रस्तुत करता है जो ब्रजभाषा की प्राणप्रतिष्ठा की तरह ही है। नाटक के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण अनूदित नाटक यहाँ देखने को मिलता है। श्री कृष्ण मिश्र द्वारा संस्कृत में रचित प्रबोधचन्द्रोदय नाटक का जसवंत सिंह द्वारा ब्रजभाषा में अनुवाद किया जाता है। इन्हीं विविधताओं की दृष्टि से उत्तर- मध्यकालीन साहित्य/रीतिकालीन साहित्य अध्ययन की अपेक्षा रखता है।
डॉ राहुल सिद्धार्थ
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग
भाषा, साहित्य एवं कला केंद्र
साँची बौद्ध-भारतीय ज्ञान अध्ययन
विश्वविद्यालय, साँची, मध्यप्रदेश
विजिटिंग प्रोफ़ेसरः लूजेन विश्वविद्यालय, स्वीटजरलैंड पुस्तकः 'सुरेन्द्र वर्माः नाट्य संभावनाएँ एवं रंगप्रयोग', 'उत्तर आधुनिक समाज और महानगर (विशेष सन्दर्भ : महेंद्र भल्ला)'
पुस्तक का अनुवादः भारत से इंडिया तक (River valley to Silicon Valley)
अन्यः
- विविध पुस्तकों के लिए आलेख लेखन
EPG पाठशाला (MHRD) हेतु लेखन
- दूरस्थ शिक्षा संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय हेतु लेखन
- ILLL, दिल्ली विश्वविद्यालय हेतु लेखन विविध शोध पत्नों का लेखन
- विविध सम्मेलनों में शोध पत्नों की प्रस्तुति
- विविध सम्मेलनों में अतिथि व्याख्यान राष्ट्रीय / अंतर्राष्ट्रीय आयोजन सम्मेलनों का
संपर्क: [email protected]
हिंदी साहित्य का उत्तर-मध्यकाल (रीतिकाल) निरंतर साहित्य के आलोचकों एवं पाठकों को नए तरीके से विचार-विमर्श करने हेतु प्रेरित करता रहा है। हिंदी साहित्य के मध्यकाल का यह उत्तर पक्ष विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियों को अपने में समाहित करता है। हिंदी साहित्य के अध्ययन के क्रम में साहित्य के प्रत्येक काल की एक मुख्य प्रवृत्ति सामने आती रही है जिसपर आलोचकों ने विस्तार से चर्चा की है। हिंदी साहित्य का आदिकाल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर-मध्यकाल एवं आधुनिक काल अपने में मुख्य प्रवृत्तियों को धारण करता है। इन मुख्य प्रवृत्ति का आधार उस युग का साहित्य ही होता हैं।
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