पुस्तक के विषय में
मेरे लेखोंका मेहनतसे अध्ययन करनेवालों और उनमें दिलचस्पी लेनेवालोंसे मैं यह कहना चाहता हूं कि मुझे हमेशा एक ही रूपमें दिखाई देनेकी कोई परवाह नहीं है । सत्यकी अपनी खोजमें मैने बहुतसे विचारोंको छोड़ा है और अनेक नई बातें मैं सीखा भी हूं । उमरमें भले मैं बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आन्तरिक विकास होना बन्द हो गया है या देह छूटनेके बाद मेरा विकास बन्द हो जायगा। मुझे एक ही बातकी चिन्ता है, और वह है प्रतिक्षण सत्यनारायणकी वाणीका अनुसरण करनेकी मेरी तत्परता । इसलिए जब किसी पाठकको मेरे दो लेखोंमें विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारीमें विश्वास हो, तो वह एक ही विषय पर लिखे दो लेखोंमें से मेरे वादके लेखको प्रमाणभूत माने ।
अनुक्रमनिका
पाठकोंसे
3
1
स्वेच्छासे स्वीकार की हुई गरीबी
5
2
वैध परिग्रह
9
गरीबीका गौरव
12
4
'हम सब एक तरहसे चोर हैं'
16
संरक्षकताका सिद्धान्त
17
6
संरक्षकता-निरी कानूनकी कल्पना नहीं
19
7
आदर्श समाज किसे कहा जाय?
20
8
ईश्वरीय नियम
21
शरीर-श्रमका अमल
24
10
स्वावलम्बन और परस्परावलम्बन
26
11
नौकरों पर अवलम्बन
27
मनुष्यका कर्तव्य
29
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