पुस्तक परिचय
पुदुमैपित्तन (25 अप्रैल, 1906 30 जून,1948) तमिल भाषा को अपने गद्य साहित्य से नई शोभा या गरिमा प्रदान करने का श्रेय पुदुमैपित्तन को जाता है इनका असली नाम था चो वृद्धाचलम । पढ़ाई दौरान ही स्वतंत्र रूप से लेखन के बाद ये चेन्नै से प्रकाशित पत्रिका मणिक्कोडी में काम करने के लिए गए वहाँ समुचित वेतन न होने के कारण उसे छोड़कर ऊषियन नामक पत्रिका में उपसंपादक हो गए, लेकिन अपनी विचारधारा के चलते वे यहाँ ज्यादा दिन नहीं टिक सके। वापस चन्नै आ गए इस बीच मणिक्कोडी में इनकी कहानियाँ निरंतर प्रकाशित होती रहीं 1936 में इस पत्रिका के बंद होने पर ये दिनमणिके संपादन मंडल में शामिल हो गए इसके प्रतिवर्ष निकलने वाले वार्षिक विशेषाको के कुशल संपादन से इनको ख्याति तो मिली ही, इनकी भी कुछ श्रेष्ठ कहानियाँ इनमें प्रकाशित हुई जीवनयापन के लिए अथक संघर्ष करते हुए इन्होंने 1946 में फिल्म क्षेत्र मे प्रवेश किया
पुदुमैपित्त की कहानियाँ तमिल कहानी साहित्य के विकास एव इतिहास में एक मील का पत्थर हैं। इन्होंने तमिल कहानी को एक नया मोड़ दिया इन्होंने कविताएँ, निबंध, छोटे नाटक लिखे व अनुवाद भी किया अल्प अवधि में लिखा उनका साहित्य उनकी प्रतिभा, अटूट आत्मविश्वास, जुझारू तेवर और नए प्रयोगों कोकर दिखाने की ललक का अद्भुत सम्मिश्रण है।
लेखक परिचय
वल्लिकण्णन इनका असली नाम रा सु. कृष्णस्वामी था इनका जन्म 12 नवबर 1920 को तनिलनादु में तिरूनेलवेली ज़िले के राजवलिनपुरम में हुआ था कविता, कहानी, नाटक, जीवनी. समीक्षा आदि विविध विधाओं मे आपने सफलतापूर्वक क़लम चलाई पुदुक्कविनैयिन् तोइमुम् वलर्चियुम् (नई कविता का उद्भव और विकास) नामक पुस्तक पर आपको 1978 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला सृजनात्मक साहित्यकार होने के साथ वल्लिकण्णन स्वाभिमानी लेखक और स्वतंत्र पत्रकार भी रहे ।आपने ग्राम ऊष़ियन सिनेमा उलगम नवशक्ति पत्रिकाओं का वर्षों तक संपादन किया शकुंतला विजिलेल्लि वीड़म् वेलियुम् उल्लेखनीय उपन्यास हैं 2008 में आपका निधन हो गया।
एच. बालसुब्रह्मण्यम (1932) मूल रूप से तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले के हैं जन्म और शिक्षा केरल मे होने के कारण मलयालम् भाषा का भी पर्याप्त ज्ञान रखते हें आपने भागलपुर विश्वविद्यालय से एम. ए.(हिंदी) ओर पीएच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त की केद्रीय हिंदी निदेशालय से सहायक निदेशक पद से सेवानिवृत होने के बाद तमिल, मलयालम् और हि.दी के परस्पर अनुवाद मे संलग्न हैं। आपने तमिल के विख्यात उपन्यासकार अखिलन जयकांतन नील पद्यनाभन तोप्पिल मुहम्मद मीरान आदि की कृतियों का हिंदी में अनुवाद किया है। आप साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार के अलावा उत्तर प्रदेश हिंदी सस्थान से सोहार्द सम्मान , संसदीय हिंदी समिनि, दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन से साहित्य श्री , उद्भव विशिष्ट सम्मान आदि से नवाज़े गए हैं।
पुरोवाक्
तमिल कथा साहित्य में पुदुमैपित्तन अपनी अनोखी विशेषताओं के साथ समुन्नत स्थान पर खड़े हैं ।
महाकवि सुब्रह्मण्य भारती ने अपनी कविताओं के द्वारा आधुनिक तमिल को समृद्ध किया । उनके बाद गद्य साहित्य के जरिए, खासकर कहानियों के माध्यम से, तमिल भाषा को नई शोभा, सुषमा और गरिमा प्रदान करने का श्रेय पुदुमैपित्तन को हैं । पुदुमैपित्तन ने जिस समय कहानी लेखन शुरू किया था, उसी समय तमिल में आधुनिक शैली की कहानी का बिरवा अंकुरित हो रहा था । यों कह सकते हैं कि उन्नीस सौ बीस के दशक में तमिल कहानी ने उस पगडंडी पर कदम रखा, जिससे होकर वह आधुनिकता और साहित्यिकता के राजपथ पर पहुँच गई । सर्वमान्य धारणा यही है, आधुनिक तमिल कहानी के जनक स्वनामधन्य व. वे. सु. अम्पर थे जो समर्पित देशभक्त, साहित्य के आस्वादक, समीक्षक एवं भावनासंपन्न सर्जक रहे उनकी लिखी मंगैयर्करसियिन् कादल (मंगेयर्करसी का प्रेम), कुलत्तंकरै अरसमरम् (तालाब किनारे का बरगद) जैसी साहित्यिक कहानियाँ बाद के कहानीकारों के लिए मिसाल बन गईं ।
तमिल के तीन प्रारंभिक उपन्यासकारों में अन्यतम अ माधवव्या उन्हीं दिनों सामाजिक नजरिये के साथ सुधारवादी कहानियाँ लिख रहे थे । उनके बाद 193० के दशक में तमिल कहानी वस्तु और कथन शैली में नई भंगिमा के साथ क़दम बढ़ाने लगी थी । भाषा और साहित्य का उत्थान, समाज सेवा तथा राजनैतिक जागृति के उद्देश्य से नई नई पत्रिकाएँ सक्रिय रूप से काम करने लगीं ।
ऐतिहासिक दृष्टि से वह एक महत्वपूर्ण कालखंड था । देश में शासन चला रही ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति पाने के लिए छेड़ा गया स्वतंत्रता आदोलन महात्मा गाँधी का नेतृत्व पाकर पूरे देश में हलचल मचा रहा था । समूचे हिंदुस्तान में राजनैतिक जागरण के साथ समाज सुधार और भाषा के नवोत्थान का उद्वेग देखनेको मिलता था । भारत की सभी भाषाओं में इसका प्रभाव परिलक्षित था । तमिल भाषा में भी नवजागरण की लहर छा गई । पत्र पत्रिकाओं ने इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इस कालखंड में पत्रिकाएँ कहानियों के लिए अधिक स्थान देने लगीं । कहानी लेखकों की संख्या में भी वृद्धि हुई । तदनुरूप पाठकों की भी संख्या बढ़ती गई ।
रा. कृष्णमूर्ति कल्कि पाठकों का मनोरंजन करने वाली ऐसी हास्य विनोदपूर्ण कहानियाँ लिखने के प्रयास में सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहे थे, जो जीवन की गहरी समस्याओं से सर्वथा विलग रही थीं । कल्कि इस तरह की कहानियाँ लिखने वालों को आनंद विकटननामक पत्रिका में प्रोत्साहित भी करते थे । जो साहित्यकार इस तरह की विचार धारा और प्रवृत्ति से सहमत नहीं थे, वे सुतंतिर चकुं गांधी जैसी पत्रिकाओं में लिखने लगे । बाद में उन्होंने मणिक्कोडी नामक पत्रिका के माध्यम से अपनी सृजन क्षमता का प्रदर्शन किया । मणिक्कोडी जो डेढ़ वर्ष तक राजनीति, समाज और साहित्य तीनों क्षेत्रों पर केंद्रित रही, अब विशुद्ध रूप से कहानियों की पत्रिका के रूप में प्रकाशित होने लगी ।
कुछेक गिने चुने लेखक जो विश्व साहित्य में विशेष गति एवं क्षमता रखते थे, तमिल कहानी के क्षेत्र में नए प्रयोग करने के इच्छुक थे । ये लेखक उत्साहपूर्वक नए ढंग की कहानियाँ लिखने लगे और इस प्रयास में उन्हें मार्के की सफलता मिली । ऐसे कथाकारों के समूह में पुदुमैपित्तन अग्रणी रहे ।
पुदुमैपित्तन ने अपनी कहानियों के लिए चयनित विषयों में, उन्हें कथा के रूप में ढालने की कला में, कथन शैली की भंगिमा में जो उद्वेग और साहसिकता दिखाई, वह असाधारण एवं अनुकरणीय थी । विश्व साहित्य में उनकी जितनी अच्छी गति थी, प्राचीन तमिल साहित्य में भी उन्हें महारत हासिल थी । इसी पृष्ठभूमि में उन्होंने तमिल में शब्द सौष्ठव और अर्थ गांभीर्य से युक्त अनेक सुंदर कृतियों का सृजन किया ।
पुदुमैपित्तन ने कहानी, लघु उपन्यास, साहित्यिक निबंध, समीक्षा, एकांकी, कविता, आदि विविध विधाओं में सफलतापूर्वक क़लम चलाने के साथ साथ विश्व साहित्य की अनेक कहानियों को तमिल में अनूदित किया है । फिर भी कहानी में ही उन्होंने पूरी लगन के साथ अपनी सृजनात्मकता का प्रदर्शन किया और इसी विधा में उन्होंने नए नए प्रयोग किए । उनकी कहानियों के अंदर इस क़दर जादुई आकर्षण सन्निहित है कि पुदुमैपितन का नाम सुनते ही साहित्य प्रेमी पाठकों के मन में उनकी अद्भुत एवं अनोखी कहानियों की स्मृति उभर उठती है ।
अनुक्रम
1
5
2
जीवन
9
3
कहानियाँ
24
4
निबंध
61
कविताएँ
65
6
कुछ खास जानकारियाँ
72
7
पुदुमैपितन का प्रभाव
77
8
परिशिष्ट पुदुमैपित्तन की रचनाएँ
79
Hindu (हिंदू धर्म) (12636)
Tantra ( तन्त्र ) (1013)
Vedas ( वेद ) (706)
Ayurveda (आयुर्वेद) (1901)
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