विश्व की प्राचीनतम और समृद्धतम भाषा संस्कृत में साहित्य सर्जन का कार्ब सहस्राब्दियों से होता आ रहा है। मानव के पुस्तकालय की सर्वप्रथम घोषित पुस्तक ऋग्वेद हजारों वर्ष पहले अवतीर्ण हुआ था जिसमें उत्कृष्ट काव्यगुण देखे जा सकते हैं। उसके बाद से काव्य, नाटक, गद्य, कथा आदि का प्रभूत वाङ्मय प्रत्येक शताब्दी में इस गीर्वाणवाणी में सरस्वती के वरप्राप्त पुत्रों द्वारा रचा जाता रहा और आज के इस नव सभ्यता वाले युग में भी काव्य, गीति, नाट्य, कथा, निबन्ध आदि लिखे जा रहे हैं, शास्त्रानुशीलन हो रहा है। शास्त्रीय ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं, पत्रकारिता द्वारा भी संस्कृत की श्रीवृद्धि की जा रही है। इस प्रकार के संस्कृत साहित्य सर्जन की अनवरत धारा देश के प्रत्येक अंचल में आधुनिक युग में भी बह रही है।
संस्कृत के उद्भट विद्वान्, शास्त्रज्ञ, साहित्यकार आदि भारत के प्रत्येक प्रान्त में इसी प्रकार की तपःपूत साधना में निरत हैं। उनकी लेखनी से प्रसूत वाङ्मय बहुत बड़ी मात्रा में प्रकाशित भी हो रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रभूत साहित्य सर्जना का विधिवत् आकलन हो, उसका इतिहास लिखा जाए। यह तो परम सन्तोष का विषय है कि वेदकाल से लेकर भास, कालिदास, दण्डी भारवि, भवभूति, माघ, जगन्नाथ पण्डितराज से होते हुए अम्बिकादत्त व्यास तक की साहित्य- सर्जना का विवरण संस्कृत साहित्य के इतिहास नाम से प्रसिद्ध अनेक ग्रन्थों में प्रकाशित हुआ किन्तु परवर्ती आधुनिक संस्कृत साहित्य के आकलनकारी ग्रन्थ बहुत कम उपलब्ध हुए। उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा प्रकाशित संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास नामक ग्रन्थमाला के सातवें भाग में आधुनिक संस्कृत साहित्य का विवरण अवश्य प्रकाशित हुआ जो शोधार्थियों, परीक्षार्थियों आदि के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ।
वीर-प्रसविनी राजस्थान की धरा सदा से ही भारतीय संस्कृति की उपासिका रही है। इस धरा ने अपनी कोख से न केवल वीर पुत्रों को जन्म दिया अपितु उन्हें धर्म, दर्शन, कला संस्कृति आदि की शिक्षा भी प्रदान की।
राजस्थान प्रदेशीय रियासतों के शासकों ने समराङ्गण में तो अपनी वीरता का परिचय दिया ही साथ ही उन्होंने साहित्य संरक्षण के क्षेत्र में भी अपूर्व योगदान दिया। यह प्रदेश शौर्य, त्याग, प्रेम और बलिदान के लिए तो प्रसिद्ध है ही साहित्य, संस्कृति, कला आदि के संरक्षण में भी इसका विशिष्ट स्थान है।
स्वतन्त्रता और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए संघर्षरत रहते हुए भी राजस्थान प्रदेश के राजा मनीषियों और साहित्यकारों से कभी विमुख नहीं हुए। इन्होंने सदैव विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया, जिसके फलस्वरूप इनके शासनकाल में विभिन्न भाषाओं का विपुल साहित्य लिखा गया। संस्कृत भाषा में भी अनेक रचनाएँ हुईं, जिनमें महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तककाव्य, गद्यकाव्य, नाट्यसाहित्य, वैज्ञानिक साहित्य, धर्मशास्त्र, संगीतशास्त्र आदि से सम्बन्धित विभिन्न ग्रन्थों का प्रणयन हुआ।
महाकवि अम्बिकादत्त व्यास ने शिवराजविजय में लिखा है कि "साहित्यकार का साहित्य रागी को वैरागी और वैरागी को रागी बना सकता है। कवि की वीररस परिपूर्ण कविता से युद्ध के मैदान में मरणासन्न वीर भी दुश्मन के छक्के छुड़ाने के लिए उठ खड़ा होता है।
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