भारतीय संस्कृति के विभाजन को केन्द्र में रखते हुए भारतीय भाषाओं एवं राज्यों को पृथक् पृथक् खंडों में बाँटने वाले विदेशी राजतन्त्रों के कारण भारत बराबर टूटते हुए भी, अपने सांस्कृतिक सन्दर्भों के कारण, अब भी एक सूत्र में बंधा है। एकता के सूत्र में बाँधने वाले सन्दों में राम, कृष्ण, शिव आदि के सन्दर्भ अक्षय हैं। भारतीय संस्कृति अपने आदिकाल से ही राममयी लोकमयता की पारस्परिक उदारता से जुड़ी सम्पूर्ण देश, उसके विविध प्रदेशों एवं उनकी लोक व्यवहार की भाषाओं में लोकाचरण एवं सम्बद्ध क्रियाकलापों से अनिवार्यतः हजारों-हजारों वर्षों से एकमेव रही है। सम्पूर्ण भारत तथा उसकी समन्वयी चेतना से पूर्णतः जुड़ी इस भारतीय अस्मिता को पुनः भारतीयों के सामने रखना और इसका बोध कराना कि पश्चिमी सभ्यता के विविध रूपों से आक्रान्त हम भारतीय अपनी अस्मिता से अपने को पुनः अलंकृत करें। भारतीय भाषाओं में रामकथा को जन-जन तक पहुँचाने का यह हमारा विनम्र प्रयास है। बंगाल में रामकथा के बारे में बात आरम्भ की जाय तो अच्छा होगा कि रवीन्द्रनाथ के कथन से ही कहना शुरू हो। 'लोक साहित्य' पुस्तक के 'ग्राम्य साहित्य' प्रकरण में रवीन्द्रनाथ अपनी बात प्रस्तुत करते हैं- "बंगला ग्राम्य गान में हर-गौरी एवं राधा-कृष्ण की कथा के अलावा सीता-राम एवं राम-रावण की कथा भी पायी जाती है किन्तु तुलना की दृष्टि से अल्प है।... बंगाल की मिट्टी में उस रामायण की कथा हर-गौरी और राधा-कृष्ण की कथा के ऊपर सिर नहीं उठा पायी, वह हमारे प्रदेश का दुर्भाग्य है। जिसने राम को युद्ध-क्षेत्र में एवं कर्म-क्षेत्र में देवता का आदर्श माना है, उसके पौरुष, कर्तव्यनिष्ठा एवं धर्मपरकता का आदर्श हमारी अपेक्षा उच्चतर है।"
डॉ. हरिश्चन्द्र मिश्र
जन्म : 1 मार्च 1954
शिक्षा :एम.ए., पीएच.डी., इलाहाबाद विश्वविद्यालय
पिछले 22 सालों से विश्वभारती में अध्यापन
प्रकाशित पुस्तकें : भक्तिकालीन कृष्ण काव्य और मानव-मूल्य, भक्तिकालीन मानव-मूल्य और सन्त साहित्य, गोदान का मानववाद, बंगाल के बोल और उनका काव्य (दो खण्ड), साहित्य इतिहास दर्शन और हिन्दी साहित्य की विकास प्रक्रिया
सम्पादन : सरल महाभारत (सात खण्ड)
सम्पर्क : विश्वभारती, शान्तिनिकेतन (प. बं.)
भारतीय संस्कृति 'राम संस्कृति' है और अपनी भारतीय समाज रचना के चार तत्त्व हैं-दान, दया, सत्य एवं अहिंसा। इनमें से किसी एक तत्त्व का आजीवन पालन करने वाले मनीषी हमारी संस्कृति के देवपुरुष माने जाते हैं। दान के सन्दर्भ में कर्ण, सम्राट अशोक, सत्य के प्रतीक पुरुष महाराज हरिश्चन्द्र और महात्मा बुद्ध, करुणामयी दया के प्रतीक थे तो आज के युग में महात्मा गाँधी अहिंसा के। भारतीय समाज रचना के दान, दया, सत्य एवं अहिंसा-ये चारों तत्त्व वैदिक काल से चले आ रहे हैं और इन्हें समाज के धर्म वृपम का चतुष्पाद (चारों पैर) कहा गया है-धर्म वृषभ के इन्हीं चारों पैरों से समाज की रचना होती है। रामराज्य का सन्दर्भ इन्हीं चारों तत्त्वों के मूल सन्दर्भ से है और इस सन्दर्भ का दायित्व मार्क्सवादी मान्यताओं जैसा केवल शोषित वर्ग के लिए समरसता की स्थापना न होकर सर्वथा एवं सर्वभावेन सम्पूर्ण समाज को लोकमंगलमयता से जोड़कर उस लोकमंगलवाद (लोकतन्त्रवाद) की स्थापना जहाँ सभी अपने हैं। सम्पूर्ण समाज एक परिवार है तथा सम्पूर्ण वैश्विक परिवेश कुटुम्ब की भाँति हैं। न्याय, समता, बन्धुत्व, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, सभी की सुखपूर्वक, सन्तोषपूर्वक, आनन्दपूर्वक मंगलमयी जीवन जीने की समरस व्यवस्था, पारस्परिक सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति हितैषिता एवं वन्धुत्व आदि-आदि कितने सामाजिक मूल्य हैं-जो इस रामराज्य में सार्वभौमिक रूप से व्याप्त हैं|
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