पुस्तक के विषय में
रामचन्द्र शुक्ल : प्रतिनिधि संकलन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे कृती विचारक के वैसे निबंधो का उकृष्ट संचयन है, जिसमें इनके विराट कृतिकर्म को गंभीरता से समझ पाने का पर्याप्त संकेत सूत्र है। समाज-साहित्य-भाषा-धर्म से संबंधित इनके विचार-मंथन में प्रगति और परंपरा का अद्भुत समन्वय है । पश्चिम के नए ज्ञान और संस्कृति की विपुल शास्त्र-परंपरा का सम्यक् उपयोग करके इन्होंने ऐसे तमाम युग्मों के बीच गहरी संगति बैठाई हे और उन्हें नए समीकरणों में ढाला है। 'विरुद्धों के सामंजस्य' को इनकी चिंतन पद्धति में देखने का विस्मयकर अनुभव बना रहता है। स्वदेश-प्रेम और बाहर से आई बेहतर चिंतन पद्धति के प्रति अनुनराग-दोनों इनके यहां एक साथ दिखता है। यूं तौ हिंदी आलोचना में इनकी दैन की व्याख्या कइ ग्रंथों में भी असंभव है लेकिन हिंदी नवजागरण में इनके योगदान को ध्यान में रखकर तैयार किया गया यह संकलन इनकी विचार-पद्धति को जानने का एक बेहतर झरोखा है।
संपादिका निर्मला जैन (1931) का हिंदी आलोचना में महत्वपूण स्थान है। दिल्ली विश्वविद्यालय में दीर्घ अंतराल तक इन्होंने हिंदी में अध्यापन कार्य किया। सेवानिवृत्ति के पश्चात फिलहाल स्वतंत्र लेखन-अनुशीलन में रत हैं। इन्हें सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड साहित्य आग, तुलसी पुरस्कार और रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है । इनके द्वारा संपादित और मूल रूप से लिखित कई आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हैं । उनमें से कुछ प्रमुख हैं : रस सिद्धात और सौदंर्यशास्त्र डिश आलोचना बीसवीं शती आघुनिक साहित्य : मूल्य और मूल्यांकनः उदात्त के विषय में,कविता का प्रति संसार कथा प्रसगं क्या प्रसगं आदि ।
इस पुस्तकमाला के प्रधान संपादक नामवर सिंह (1927) हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष हैं । ये लगभग दो दशकों तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफैसर रहे और पच्चीस वर्षों तक इन्होंने 'आलोचना' पत्रिका का संपादन किया । इनकी दर्जन भर से अधिक प्रकाशित पुस्तकों में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं : इतिहास और आलोचना कविता के नये प्रतिमान छायावाद कहानी : नई कहानी और दूसरी परपंरा की खोज।
संपादकीय वक्तव्य
उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ से भारत के नवशिक्षित बौद्धिकों में एक नई चेतना का उदय हुआ जिसके अग्रदूत राजा राममोहन राय माने जाते हैं । इस चेतना को यूरोप के 'रेनेसांस' के वजन पर अपने देश में कहीं 'पुनर्जागरण' और कहीं 'नवजागरण' कहा जाता है। चेतना की यह लहर देर-सबेर कमोबेश भारत के सभी प्रदेशों में फैली । किंतु अधिक चर्चा बंगाल नवजागरण और महाराष्ट्र प्रबोधन की ही होती है। अन्य प्रदेशों की तरह हिंदी प्रदेश में भी नवजागरण की यह लहर उठी किंतु जरा देर से-उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, सन् 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पराजय के लगभग एक दशक बाद और इसका प्रसार भी बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दो दशकों तक बना रहा । हिंदी नवजागरण की चर्चा अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय बौद्धिकों के हल्के में कम ही सुनाई पड़ती है; यहां तक कि कुछ लोग उसके अस्तित्व को भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। कारण शायद यह हो कि हिंदी नवजागरण संबंधी अधिकांश रचनाएं हिंदी में ही हुई; अंग्रेजी में उन्हें सुलभ कराने के प्रयास भी बहुत कम ही हुए । विडंबना तो यह है कि स्वयं हिंदी जानने वाले आधुनिक बौद्धिक भी, अपनी इस समृद्ध विरासत से भलीभांति परिचित नहीं हैं। अभी तक अधिकांश रचनाएं पुरानी पत्रिकाओं और दुर्लभ पोथियों मैं छिपी पड़ी हैं जो शोधकर्ताओं के लिए भी सहज सुलभ नहीं हैं । 'हिंदी नवजागरण के अग्रदूत' पुस्तकमाला की योजना इसी आवश्यकता की पूर्ति की दिशा में विनम्र प्रयास है । हिंदी नवजागरण में अखिल भारतीय नवजागरण की बहुत-सी सामान्य विशेषताओं के साथ कुछ अपनी क्षेत्रीय विशेषताएं भी हैं । कहना न होगा कि 1857 के गदर का केंद्र हिंदी प्रदेश ही था, इसलिए हिंदी नवजागरण की प्रकृति पर गदर की स्मृति की छाया पड़ना स्वाभाविक ही था । गदर की गज नवजागरण का अलख जगाने वाले अधिकांश छोटे-बड़े तत्कालीन लेखकों की रचनाओं में दूर तक सुनाई पड़ती है। हिंदी नवजागरण का बीज मंत्र फूंकने वाले प्रथम अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र थे, जिनकी मुख्य प्रतिज्ञा यह थी कि 'स्वत्व निज भारत गहै ।' भारतेन्दु का 'स्वत्व' वही था जिसे आज 'जातीय अस्मिता', 'जातीय पहचान' और अंग्रेजी में 'आइडेंटिटी' कहते हैं । भारतेन्दु के साथ ही उस दौर के सभी हिंदी लेखकों के लिएअपनी 'पहचान' की पहली शर्त थी अपनी भाषा : 'निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल'! डस आग्रह का कारण शायद यह था कि अन्य प्रदेशों में जहां फारसी के स्थान पर प्रादेशिक भाषाओं को कचहरी जैसे सरकारी दफ्तरों में मान्यता मिल गई थी, हिंदी-केवल हिंदी ही इस अधिकार से शताब्दी के अंतिम दशक तक वंचित रही । इस स्थिति मैं हिंदी नवजागरण के लेखकों को अंग्रेजी के साथ-साथ अपनी सगी वहन उर्दू के वर्चस्व के विरुद्ध भी संघर्ष करना पड़ा ।
स्वभाषा के आग्रह की परिणति 'स्वदेशी' में हुई जिसको अभिव्यक्ति मिली अंग्रेजी राज्य की आर्थिक-औद्योगिक नीति के विरुद्ध स्वदेशी उद्योग धंधों कै विकास पर बल देने में । उल्लेखनीय कै कि भारतेन्दु के 'बलिया वाले व्याख्यान' से लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी के 'संपत्ति शास्त्र' (1908) नामक ग्रंथ तक इस स्वदेशी विकास पर आग्रह दिखता है जिसमें आर्थिक स्वाधीनता के साथ राजनीतिक स्वाधीनता की भी गूंज निहित है ।
कहने की आवश्यकता नहीं कि हिंदी नवजागरण मुख्यतया 'सांस्कृतिक' था और अधिकांश लेखन स्वदेशी संस्कृति के उत्थान को दृष्टि में रखकर किया गया । इस प्रक्रिया में अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने के साथ ही संग्रह-त्याग की दृष्टि से उसकी निर्मम समीक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया । फिर तो वेद, पुराण, धर्मशास्त्र से लेकर संतों और भक्तों आदि सबको इस समीक्षा की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा । आत्म समीक्षा जितनी पीड़ादायक है उतनी ही' जटिल भी । इसलिए यदि धर्म-तत्त्व-विचार की प्रक्रिया में नवजागरण कालीन लेखकों के मत और निष्कर्ष भिन्न-भिन्न दिखाई पड़े तो आश्चर्य न होना चाहिए। इसी प्रकार जात-पांत, धर्मो ओर संप्रदायों के आपसी संबंध, स्त्रियों की स्थिति, विधवा-विवाह, बाल-विवाह आदि से संबंधित प्रश्नों पर भी हिंदी नवजागरण के लेखक एकमत न थे। किंतु इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि पुरानी परिपाटी में कुछ-न-कुछ परिवर्तन या सुधार का अनुभव अधिकांश हिंदी लेखक करते थे। हिंदी के मंच पर स्वामी दयानंद के प्रवेश और आय समाज के उदय के साथ सनातनियों और आर्य समाजियों के बीच जो लंबे शास्त्रार्थ का क्रम चला, उसका प्रभाव कुछ-न-कुछ हिंदी लेखकों पर भी पड़ा किंतु रहा वहुत कुछ साहित्यिक संस्कार की मर्यादा के अंदर ही। इस सार्वजनिक वाद-विवाद की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि नवजागरण कालीन सभी लेखकों ने अपने समत के सभी ज्वलंत सामाजिक प्रश्नों पर जमकर लिखा। उस दौर के सभी लेखक एक तरह में लोक समीक्षक थे और हिंदी गद्य सार्वंजनिक जीवन की व्यापक हलचल से ओतप्रोत और अनुप्राणित था ।
हिंदी नवजागरण इन यह भी एक विशेषता है कि इसके अग्रदूतों में कोई धनाढ्यवर्ग का नहीं था। थे सभी कम पूंजी वाले, बस खाते-पीते। चाहे वे ग्राम मूल के किसान हों या फिर शहर में आ बसे छोटी-मोटी चाकरी करने वाले किरानी। अधिकांश थोड़ी-बहुत अंग्रेजी जानने वाले किंतु कुछ अंग्रेजी शिक्षा से बाल-बाल बचे हुए भी। शहर में रहते हुए भी गांवों से पूरी तरह जुड़े हुए। अपनी परंपरा में गहरी जड़ें सब की थीं। अधिकांश लेखक पत्रकार थे और खुद ही अपनी पत्रिका भी निकालते थे, किंतु कुछ ऐसे भी थे जो किसी व्यापारी द्वारा निकाले जाने वाले अखबार में काम करते थे। सभी ब्राह्मण न थे किंतु उम्मा कुछ प्रदेशों की तरह लेखकों के बीच ब्राह्मण-अब्राह्मण का भेदभाव भी नहीं दिखता। हिंदी नवजागरण की विशिष्ट प्रकृति को समझने के लिए एक हद तक लेखकों का यह सामाजिक आधार भी उपयोगी हो सकता है। किंतु इस बात को रेखांकित करना आवश्यक है कि हिंदी नवजागरण के अग्रदूतों में प्रत्येक का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व था और सबकी पहचान इतनी अलग-अलग थी, कि उन्हें उनकी भाषा-शैली से ही पहचाना जा सकता है । इसका आभास 'पुस्तकमाला' का प्रत्येक पुष्प स्वयं देगा।
अंत में यह 'पुस्तकमाला' सामान्य पाठकों कै हाथ में इस आशा के साथ रखी जा रही है कि इसमें कहीं-न-कहीं आज के लिए भी प्रासंगिक विचार-स्फुल्लिंगों के मिल जाने की संभावना है।
विषय-सूची
1
सात
2
भूमिका
ग्यारह
समाज और समाज
3
भारत को क्या करना चाहिए
4
असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियां
8
5
भेदों में अभेद दृष्टि
18
6
क्षात्रधर्म का सौंदर्य
22
भक्ति की नई व्याख्या
7
'भक्ति धर्म का हृदय है'
29
लोक और धर्म
मानस' की धर्मभूमि
37
9
सूफी मत ओर सिद्धांत
41
काव्य-चिंतन
10
कविता क्या है ?
69
11
काव्य में रहस्यवाद
73
12
स्मृत्याभास कल्पना
86
13
काव्य में लोक-मंगल की साधनावस्था
92
14
देश-प्रेम
101
भाषा का प्रश्न
15
हिंदी और हिंदुस्तानी
107
16
हिंदी गद्य परंपरा-का प्रवतन
110
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