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रसों की संख्या: Raso ki Sankhya

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Item Code: HBE170
Author: V. Raghavan
Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan, Varanasi
Language: Hindi and Sanskrit
Edition: 2025
ISBN: 9788171245185
Pages: 204
Cover: PAPERBACK
Other Details 9x6 inch
Weight 234 gm
Fully insured
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Book Description
सम्पादकीय

मैं डॉ० राघवन् की इच्छा का समादर करता हूँ कि इस ग्रन्थ का प्राक्कथन मैं लिखूँ। वह, विगत अनेक वर्षों से संस्कृत साहित्यिक-समीक्षा के क्षेत्र में अनुसन्धान करते रहे हैं, और वह सामग्री, जो उन्होंने इस पुस्तक में संकलित की है, प्रदर्शित करती है कि विषय से सम्बद्ध वाड्मय से उनका कितना विस्तृत परिचय है। वह अपने तथ्य एकत्र करते हैं, जैसा कि देखा जायेगा, अप्रकाशित पाण्डुलिपियों से, उतनी ही तत्परता के साथ जैसा वह प्रकाशित ग्रन्थों से करते हैं। विषय के किसी भी पक्ष पर, एक ऐसे व्यक्ति द्वारा अवधारणा का निर्माण करना, जिसने उसके अनुशीलन में, इतना पुष्कल समय व्यय किया है तथा जिसका तद्विषयक ज्ञान इतना विस्तृत है, विशेष महत्त्व की बात है तथा समस्त विद्वज्जनों के निष्ठापूर्ण अवधान का विषय है।

विशिष्ट समस्या, जिस पर इस ग्रन्थ में विचार किया गया है- रसों की संख्या है और इसका विवेचन आवश्यक रूप से, ढेर सारे महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को समाहित कर लेता है जो रसों की प्रकृति एवं क्षेत्र से सम्बद्ध हैं। जैसा कि प्राचीन भारतीयों द्वारा गवेषित अन्य समस्याओं के सन्दर्भ में देखा गया है, प्रस्तुत सन्दर्भ में भी हम समाधानों की विस्मयावह विविधता पाते हैं। जहाँ कुछ चिन्तकों की अवधारणा है कि रस मात्र एक ही है। दूसरों का मत है कि रस अनेक हैं। रसों की यथार्थ संख्या को दृष्टि में रखते हुए, उनका विस्तृत मत-वैभिन्त्र्य विद्यमान है। बहरहाल, सामान्य दृष्टिकोण यही है कि रस आठ अथवा नौ हैं- उसे जोड़कर, जिसे शान्त की संज्ञा दी गई है-

शृङ्गारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानकाः ।

बीभत्साद्भुतशान्ताश्च रसाः पूर्वेरुदाहृताः ॥

यद्यपि डॉ० राघवन् इन समस्त मतों की समीक्षा, अधिक या कम, विस्तारपूर्वक करते हैं। उनके व्याख्यान का प्रमुख भाग, नवें रस के रूप में शान्त रस की स्वीकरणीयता से सम्बद्ध है। एतत्प्रश्नविषयक उनका समाधान पूर्णतः साङ्गोपाङ्ग है और वह इसका परीक्षण, ऐतिहासिक एवं सौन्दर्यशास्त्रीय- दोनों ही पक्षों से करते हैं। उनमें से प्रत्येक के प्रति संक्षिप्त सन्दर्भ का होना अप्रासंगिक नहीं होगा।

भूमिका

अडयार लाइब्रेरी द्वारा 1940 ई० में 'नम्बर ऑफ रसात' के पुस्तकाकार प्रकाशन से पूर्व यह 'जर्नल ऑफ ओरियेण्टल रिसर्च', मद्रास के पृष्ठों में सत्र 1936- 37 ई० में क्रमशः प्रकाशित हुआ था। उस समय, यह विषय-विशेष का, खासतौर पर शान्तरस का प्रथम विस्तृत अध्ययन था।

इसमें, अपनी अन्य समीक्षाओं की तरह जैसा कि प्रो० एम्० हिरियन्ना ने प्राक्कथन में उल्लेख किया है जो उन्होंने कृपापूर्वक प्रथम संस्करण के लिये लिखा- मैंने तथ्यों को अप्रकाशित पाण्डुलिपियों से भी उतनी ही मात्रा में आहृत किया है जितना कि प्रकाशित ग्रन्थों से विषय से सम्बद्ध सारी की सारी निर्णायक मूलपाठात्मक सामग्री को, जो कि उसके विशदीकरण के लिये अपेक्षित थी, प्रकाशित करते हुए तथा परस्पर समन्वित भी करते हुए। उन वर्षों में, जो कि बीत चुके हैं जिनमें यह पुस्तक विस्तृत उपयोग में रही है, न केवल कुछ मूलग्रन्थ अभी-अभी प्रकाशित हो गये हैं प्रत्युत मैं स्वयं भी अनवरत गति से अवान्तर तथ्यों तथा ग्रंथांशों को संकलित करता रहा हूँ जहाँ विषय-विवेचन का विस्तार किया जा सकता था।

ग्रन्थ का वर्तमान द्वितीय संस्करण, इस प्रकार एक संशोधित तथा परिवर्धित संस्करण है। विषय-प्रस्तुति में कुछ सुधार के अतिरिक्त मैंने कुछ अवान्तर सन्दर्भों की भी व्याख्या की है जैसे शान्त रस में आलम्बन तथा स्थायी का तादात्म्य, तथा कुछ प्रकरणों पर और अधिक ध्यान दिया है जैसे बोपदेव तथा हेमाद्रि द्वारा भक्ति की व्याख्या, माया तथा चित्र रस-समूह, विप्रलम्भ के भेदोपभेद, विशेषकर शाप तथा करुण विप्रलम्भ, दयावीर तथा अवान्तर व्यभिचारी एवं सात्त्विक भाव। कुछ ऐसे ग्रन्थों को, जो पहले उपलब्ध नहीं थे, भी मैंने विचार-परिधि में रखा है।

मैं अडयार लाइब्रेरी, शोध-केन्द्र तथा उसके अधिकारियों के प्रति, इस द्वितीय संस्करण के प्रकाशनार्थ धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। इसके कर्मचारियों तथा डॉ० के० कुञ्जुन्नी राजा के प्रति, इस ग्रन्थ की मुद्रणावधि में प्रदत्त सहायतार्थ धन्यवाद देता हूँ। डॉ० एस्०एस्० जानकी ने भी प्रूफ पढ़ने में सहायता प्रदान की है।

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