इतिहास के स्वरूप-निर्धारण में प्रभिलेखों का विशिष्ट योगदान रहा है। तत्कालीन महत्त्वपूर्ण अभिलेखों के प्राधार पर ही गुप्तकाल की स्वर्णिम महत्ता का दिग्दर्शन हो पाता है।
प्रसंगतः प्रभिलेखों की चर्चाएँ प्राधुनिक ग्रन्थों में होती हैं, किन्तु एक समय-विशेष के अधिकांश अभिलेखों का किसी एक दृष्टि से एकत्र परिशीलन नहीं हो पाया था।
श्री सुमन्त गुप्ता ने गुप्त वंश के प्रभिलेखों का क्रमिक एवं विवेचनापूर्ण अध्ययन कर उस समय की धार्मिक प्रवृत्तियों को स्पायित करने का स्तुत्य प्रयास किया है, जो इतिहास के अध्येताथों एवं गवेषणा में संलग्न विद्वानों के लिये प्रत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा।
१ प्रभिलेखों का महत्व
प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान प्राप्त करने के प्रमुख स्रोतों में पुरातत्त्व का महत्वपूर्ण स्थान है। पुरातत्त्व के धन्तर्गत अभिलेख, मुद्राएं, प्राचीन स्मारक एवं उत्खनन से प्राप्त धन्य वस्तुषों की गणना होती है। इन सब में अभिलेख सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि मुद्राद्यो में मात्र राजा का नाम घोर उस काल की घायिक स्थिति का ज्ञान होता है। अन्य जानकारी भी मुद्राघ्रों से होती है परन्तु इन मुद्राओं से किसी बंदा का क्रमिक इतिहास (तिथिबद्ध) नहीं रचा जा सकता जब कि प्रभिलेखों से क्रमिक इतिहास पोर पौर संस्कृति की रचना कर सकते हैं। गुप्त वंश का भी इतिहास इन्हीं प्रभिलेखो के प्राधार पर रखा गया है। अभिलेखों से इतिहास घोर संस्कृति पर विकसित और सर्वांगीण प्रकाश पड़ता है। अतः अभिलेख इस क्षेत्र में प्रधिक उपयोगी है। श्रभिलेख प्राचीन साहित्यों में वर्णित तथ्यों की प्रामाणिकता प्रस्तुत करते हैं और कहीं कहीं अज्ञात इतिहास अथवा उससे संबंधित संस्कृति का भी अध्ययन कराते हैं। ये संस्कृति सामा- जिक, राजनैतिक, धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक, शैक्षणिक तथा प्राथिक तत्त्वों से संबंधित होती है। जहां साहित्य दुर्बोध होता है वहां प्रभिलेखों की सहायता लेकर इतिहास तैयार किया जाता है। नए तथ्यों का उद्घाटन भी प्रभिलेख करते हैं और इतिहास की रचना भी करते हैं। इस संदर्भ में समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति उल्लेखनीय है। इस प्रयान्ति की उपलब्धि के अभाव में समुद्र गुप्त जैसे गुप्तवंशीय अद्वितीय प्रतापी वीर राजा के बारे में जानकारी प्राप्त करने से हम वंचित रह जाते। ध्यातव्य है कि इस नरेश के संबंध में अन् र्वाणत तथ्यों की पुष्टि भी इन अभिलेखों से होती है। समुद्रगुप्त के ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त के संबंध में हमें साहित्यों में चर्चा मिलती है। इन साहित्यों में चर्चा होने के कारण जनश्रुतियों में भी रामगुप्त की पर्याप्त चर्चा फैल चुकी है। साहित्यिक साक्ष्य विशाखदत्त कृत देवीचन्द्रगुप्तम्' नामक संस्कृत नाटक में इसका उल्लेख है कि रामगुप्त नामक व्यक्ति समुद्रगुप्त का पुत्र था । इसके अतिरिक्त बाण ने हर्षचरित में भी रामगुप्त का उल्लेख करते हुए कहा है कि, 'अरिपुर में शक नरेश नारीवेशधारी चंद्रगुप्त द्वारा उस समय मारा गया जब वह परस्त्री का ग्रालिंगन कर रहा था।' अबुल हसन ने इसका उल्लेख अपने 'मुजमल उत तवारिख' में अधिक विस्तार से किया है कि 'शक नरेश की हत्या से चन्द्रगुप्त की प्रतिष्ठा जनता के हृदय में घर कर गई थी और वह लोगों में प्रादर का पात्र बन गया थ।'
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