प्रस्तुत पुस्तक एक ऐसी बालिका की कहानी है, जिसका बाल्यकाल अपने आसपास की घटनाओं को देखकर बहुत गहराई तक प्रभावित हुआ। माता-पिता के संस्कार और सामाजिक वर्जनाओं से गुजरते हुए उसकी तरुणाई एक ऐसी राह पर चल पड़ी, जिसके विभिन्न पड़ाव अविस्मरणीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ बनते चले गए।
यह पुस्तक पंजाब के लुधियाना जिले के दोहारा गाँव में रहनेवाली बालिका निशा की ऐसी कहानी है, जिसमें उसका घर से अचानक लापता हो जाना, उसके बिछोह में परिवारजनों का अंतहीन मानसिक वेदनाओं से गुजरना, गंगातट हरिद्वार से उसका जीवन-प्रवाह अध्यात्म-धारा की ओर मुड़ जाना, भाई द्वारा आश्रम से पुनः गाँव लाया जाना, उसके फिर आश्रम लौटने की जिद में पारिवारिक ऊहापोह, येन-केन-प्रकारेण उसका पुनः अपने गुरुदेव की शरण में आश्रम पहुँचना, निशा से 'ज्ञानज्योति' और फिर 'साध्वी ऋतंभरा' के रूप में समाज के सामने आना तथा सनातन धर्म- प्रचार में उनके द्वारा स्वयं को झोंक देने जैसे अनेक मार्मिक और भावपूर्ण प्रसंग अत्यंत रोचकता के साथ प्रस्तुत हैं।
अयोध्या में श्रीरामलला की जन्मभूमि पर बने मंदिर को ध्वस्त करके मुगल आक्रांताओं द्वारा बलात् निर्मित बाबरी ढाँचे से मुक्ति के लिए हिंदू समाज के लगभग पाँच सौ वर्षों तक चले संघर्ष और उसमें तेजस्वी हिंदू प्रवक्ता साध्वी ऋतंभराजी की भूमिका एक क्रांतिकारी अध्याय है। इस पुस्तक में श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन और उसमें साध्वी ऋतंभराजी के संघर्षरूपी योगदान को प्रामाणिक घटनाओं के रूप में क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया गया है।
देवेंद्र शुक्ल इंदौर (म.प्र.) के निवासी हैं। महाविद्यालयीन शिक्षा पूर्ण होने के बाद वर्ष 1990 में विश्व हिंदू परिषद् से जुड़कर उसके मध्यभारत प्रांत से प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र 'विश्व मंगलम्' के संपादक बने । बजरंग दल में भी अपना सक्रिय योगदान देते हुए श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में भाग लिया। इस आंदोलन के दौरान प्रशासनिक अत्याचार सहते हुए जेल भी गए। इसी दौरान प्रखर हिंदुत्व की ओजस्वी प्रवक्ता साध्वी ऋतंभराजी से परिचय हुआ और कुछ समय पश्चात् उनके पूज्य गुरुदेव युगपुरुष स्वामी परमानंदजी महाराज से दीक्षा ली। साध्वी ऋतंभराजी के गुरुभाई के रूप में उनकी तेजस्विता का दर्शन बहुत निकट से किया। बरसों तक उनके देशव्यापी राष्ट्र जागरण को देखा।
विगत अनेक वर्षों से दीदीमाँ साध्वी ऋतंभराजी के मार्गदर्शन में प्रकाशित होनेवाली मासिक पत्रिका 'वात्सल्य निर्झर' के संपादक के रूप में सक्रिय हैं।
अयोध्या अर्थात् जहाँ कभी युद्ध नहीं हुआ हो। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार वर्ष 1528 में अयोध्या पर बाबर की सेना द्वारा आक्रमण किए जाने से पहले यहाँ कभी युद्ध नहीं हुआ, परंतु इसके बाद लगभग साढ़े चार शताब्दियों तक अयोध्या ने कुल 77 युद्धों या संघर्षों को देखा। विडंबना यह कि अयोध्या में अपने आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की जन्मस्थली पर पूजन-अर्चन का अपना स्वाभाविक अधिकार प्राप्त करने के लिए हिंदू समाज को चार सौ इक्यानबे वर्षों का संघर्ष करना पड़ा, यह तथ्य सारे विश्व को आश्चर्यचकित करता है। कोटि-कोटि हिंदुओं के देश में अपने रामलला की जन्मभूमि से एक तथाकथित 'मजहबी कब्जे' को हटाकर मंदिर बनाने के लिए लाखों रामभक्तों को अयोध्या में बलिदान देने पड़े, यह आश्चर्य तो है ही।
ईसवी सन् 1528 के जून माह से आरंभ हुआ यह संघर्ष विभिन्न युद्धों, संघर्षों और कानूनी गलियारों से होता हुआ अंततः 9 नवंबर, 2019 के दिन अपने सुखद अंत को प्राप्त हुआ, जबकि भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ पर विराजमान होकर चीफ जस्टिस माननीय श्री रंजन गोगोई के साथ जस्टिस माननीय श्री एस.ए. बोबड़े, जस्टिस माननीय श्री डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस माननीय श्री अशोक भूषण, जस्टिस माननीय श्री एस.ए. नजीर ने अयोध्या के इस संपूर्ण विवादित भूखंड को विराजमान रामलला के स्वामित्व में घोषित करते हुए उन्हें सौंपा। यह एक ऐसा दिन था, जो इस बात का परिचायक है कि जन-जन के मन में बसी हुई उनकी शाश्वत आस्था को रौंदने का प्रयास अंततः उसी रूप में सामने आता है।
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