महाराष्ट्र के संत-महात्मा: (Saints and Sages of Maharashtra)

Express Shipping
$14.25
$19
(25% off)
Express Shipping: Guaranteed Dispatch in 24 hours
Quantity
Delivery Ships in 1-3 days
Item Code: HAA148
Publisher: Anurag Prakashan
Author: ना.वि. सप्रे: (N.V. Sapre)
Language: Hindi
Edition: 2017
Pages: 188
Cover: Hardcover
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 200 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description


आशीर्वचन

 आनन्द वन श्री क्षेत्र काशी समस्त वेदों, शास्त्रों एवं पुराणों की विशिष्ट ज्ञानस्थली है । अनादिकाल से यहाँ वैदिक मंत्रों, श्लोकों और ऋचाओं का अध्ययन, मनन चिंतन मंथन और उनका प्रशिक्षण काशी की प्रधानता है । विशिष्ट पंथों के धर्माचार्यों द्वारा धार्मिक ज्ञान चर्चायें काशी की सांस्कृतिक परम्परा है । विद्वत्ता पर प्रामाणिकता की मान्यता देने का श्रेय काशी को ही प्राप्त है ।

तात्पर्य यह कि काशी ज्ञानियों, विद्वतजनों महापुरुषो का ज्ञानपुंज स्तम्भ रही है । सनातन धर्म तथा अन्य सभी धर्मावलम्बी धर्माचार्यों ने मुक्तकंठ से काशी को सर्वोत्कृष्ट महापुण्यधाम के रूप में स्वीकार किया है । उदाहरणस्वरूप बौद्ध धर्म, जैन धर्म, हिन्दू धर्मावलम्बियों ने काशी को अपने प्रमुख धार्मिक केन्द्रों का प्रधान स्थल माना है ।

ज्ञान पिपासुओं ने काशी आकर ही अपने को धन्य माना है । आदिगुरू गुरू शंकराचार्य, भगवान गौतम बुद्ध, जैन मतावलम्बी महावीर स्वामी, तैलंग स्वामी, संत ज्ञानेश्वर, श्री एकनाथ महाराज, संत तुलसी आदि काशी आकर तृप्त हुए । इस प्रकार महान् महापुरुषों की प्रेरणास्रोत काशी ही रही है । आचार्य प्रभु वल्लभाचार्य, श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु महात्मा गाँधी, आचार्य भावे आदि ने काशी को सांस्कृतिक ज्ञान गरिमा की सर्वोत्कृष्ट और पुण्य पौराणिक ज्ञानस्थली स्वीकार किया है । यहाँ पधारकर विद्वानों ने आत्मचिंतन, साधना शास्त्रार्थ कर अपने को गरिमा मंडित व धन्य माना है । ज्ञान गंगा सदा प्रवाहित रही है । पं० मदनमोहन मालवीय ने यहाँ पर सुप्रसिद्ध सर्वश्रेष्ठ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की जो अन्तर्राष्ट्रीय विद्याध्ययन का प्रमुख केन्द्र है ।

इस सन्दर्भ में मेरे पूज्य पिता संत तनपुरे बाबा ने यद्यपि सम्पूर्ण भारत की धार्मिक पदयात्रा की परन्तु उन्हें भी महाराष्ट्र से आकर भगवान भोलेश्वर की पावनतम काशी में ही आत्मतृप्ति हुई, उनका समस्त काशीवासियों से और काशी से तादात्मय स्थापित हो गया ।

उन्होंने काशी को श्रेष्ठतम ज्ञान की नगरी की संज्ञा दी । सन् १९८५, २६ नवम्बर को वैकुंठ चतुर्दशी के दिन अपने महाप्रयाण दिवस के एक दिन पूर्व समारोह में अपने हृदय के उद्गार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि गत् पंडितों (ज्ञानियों) का ज्ञान गंगा केन्द्र है और महाराष्ट्र का श्रीक्षेत्र पंढरपुर (दक्षिण काशी) महान संतों का पावन धाम है जहाँ भक्ति गंगा प्रवाहित होती रही है ।

ज्ञान गंगा का उद्गम स्थान संत हृदय होता है । कहा भी है कि

संत तेथे विवेका असणेच की ।

ते ज्ञाना चे चालते बिंब

त्याचे अवयव सुखाचे कोंभ ।।

संत के हृदय से जो अत्यन्त मधुर, सरल, सुबोध वाणी मुखरित होती है उसमें जीवन के मूलभूत तत्व ज्ञान एवं आचरण की पावनता की सुगन्ध होती है । उनकी वाणी, ज्ञानियों, अज्ञानियों, निरक्षर तथा विषय विकारों से संतप्त पीड़ित जनों के आहत मन व हृदय तक के जख्मों पर मरहम की भांति सुख, शान्ति एवं आनन्द की अनुभूति कराने वाली होती है ।

समय के बदलते प्रवाह तथा कलि के प्रभावों से आज मनुष्य और समाज के विचार विकारयुक्त हो गये हैं । समाज का सम्पूर्ण जीवन भ्रमित और आक्रान्त है । अनाचार, दुराचार, मिथ्याचार, भ्रष्टाचार, हिंसा भाव प्रभावी हो गया है । इस अज्ञानांधकार में भटके नर नारियों के हृदयों में अपने अभीष्ट मार्ग की सुधि पुनरुज्जीवित करने के लिये आज संत चरित्रों, अनुभवों के अवलोकन और उन्हें मार्गदर्शन देने की आवश्यकता है । संतवाणी समाज के प्रति अर्पित करना यही समय की माँग है । इस ज्ञानार्जन और आचरण के बिना समाज सुखी नहीं होगा । इस दिशा में ज्ञान मंडित एवं भक्त हृदय रचनाकार श्री सप्रेजी द्वारा महाराष्ट्र के संत चरित्रों का हिन्दी भाषा में कालक्रम के आधार पर महाराष्ट्र के पन्द्रह महान संत की रचना कर हिन्दी भाषा भाषी विशाल आस्तिक समाज को भी भक्ति धारा संजीवनी का पान करने का सुअवसर प्रदान किया गया है । अवलोकन करने पर इसमें भक्त पुंडलिक से लेकर संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत गोरोबा, संत जनाबाई, संत कान्होपात्रा, संत श्री सेना महाराज, संत चोखामेला, संत भानुदास, संत एकनाथ, संत तुकाराम, संत बहिणाबाई, संत रामदास, संत गजानन महाराज, शिरडी के साईंबाबा के प्रेरक चरित्र अंशों का विवेचन किया गया है । इसके प्रति मैं श्री सप्रेजी को भगवान पंढरीनाथ एवं भोले भंडारी से कामना करता हूँ कि उन्हें भविष्य में इसी प्रकार अनवरत् संत साहित्य चरित्र लिखने की प्रेरणा मिलती रहे । मैं आशीर्वचन के रूप में चाहता हूँ कि उन्हें ईश्वर मनसा, वाचा, कर्मणा आरोग्यता की शक्ति प्रदान करता रहे और आस्तिक पाठकगण निरन्तर सुख शान्ति और आनन्द प्राप्त कर धन्य होते रहें ।

मैं अपने को कृतार्थ मानता हूँ कि परमादरणीय लेखक श्री सप्रेजी ने अपनी प्रस्तुत बहुमूल्य रचना मेरे बैकुंठवासी पिता संत कुशाबा तनपुरे महाराज को समर्पित की है और पुत्र के नाते मुझे सौंपकर सचमुच आपने महाराष्ट्र संत परम्परा के प्रति अपनी सहज आस्था अभिव्यक्त की है । यह भगवान पंढरीनाथ की इच्छा मानते हुए शिरोधार्य है ।

 

भूमिका 

क्रांति का जन्म शांति के गर्भ में नहीं होता । सामाजिक एवं राजनीतिक अशांति ही उसके जन्म का मूल कारण होती है ।महाराष्ट्र में संतों के प्रादुर्भाव का प्रमुख कारण वहाँ की राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थिति है । मुस्लिम शासन के पूर्व वहाँ यादववंशीय राजाओं का शासन था । महाराष्ट्र की जनता के लिए वह सुख एवं समृद्धि का काल था । इस काल में महाराष्ट्र में साहित्य, संगीत, कला तथा धर्मशास्त्र आदि विद्याओं की पर्याप्त उन्नति हुई । उन दिनों सारी विद्याएँ संस्कृत साहित्य में ही उपलब्ध थीं तथा जनसामान्य की पहुँच से बाहर थीं ।

उन दिनों महाराष्ट्र में नाथ संप्रदाय, महानुभाव संप्रदाय, वारकरी संप्रदाय एवं समर्थ संप्रदाय का बोलबाला था । संत ज्ञानेश्वर पहले नाथ संप्रदाय में दीक्षित थे किन्तु व्यापक एवं मानवतावादी दृष्टिकोण के कारण उन्होंने वारकरी संप्रदाय की नींव डाली । संत एकनाथ भी पहले दत्त संप्रदाय में दीक्षित थे किन्तु बाद में वारकरी संप्रदाय के आधारस्तम्भ बने । महाराष्ट्र में पाँच संप्रदाय मुख्य रूप से थे किन्तु उनमें कभी भी परस्पर टकराव की स्थिति नहीं आती थी ।

सन् १४९० से १५२६ ई० के बीच बहमनी राज्य पाँच खण्डों में विभाजित हुआ जिनमें से अधिकांश का संबंध महाराष्ट्र से था ।

सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में दूरदर्शी शाहजी के महत्वाकांक्षी पुत्र शिवाजी ने मराठा राज्य की स्थापना कर उसका विस्तार किया जिसमें परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से एकनाथ, तुकाराम तथा रामदास आदि संतों का योगदान रहा । उन्होंने अपनी वाणी से जनता की अस्मिता को जगाया ।

तेरहवीं शताब्दी के अंत में, पहले मुगलों के आक्रमण, फिर कुछ काल तक चन्नन वाला उनका शासन तथा बाद में आया बहमनी शासन महाराष्ट्र के जीवन के लिए किसी दैवी आपदा से कम नहीं था । उन्होंने मराठों की सत्ता के साथ साथ मराठों का हिन्दू धर्म, उनकी प्राचीन परंपराएँ तथा उसकी अस्मिता को ध्वस्त करने का मानों बीड़ा उठा लिया था । मराठा सरदार तथा विद्वान शास्त्री पंडित भी क्य गो बचा पाये । डॉ०पु०ग० सहस्त्रबुद्धे लिखते हैं, ऐसी स्थिति में यदि ज्ञानेश्वर नामदेव, एकनाथ, तुकाराम एवं रामदास जैसे संतों का इस भूमि पर ध्यदे: न हुआ होता तो महाराष्ट्र का सर्वनाश अटल था । उन्होंने अपनी वाणी लेखनी से तथा कर्त्तव्य से भारत के प्राचीन वैदिक धर्म का, गीता धर्म का पुनरुद्धार किया और उस प्रलयात्पत्ति से समाज की रक्षा की । महाराष्ट्र में वारकरी पंथ की स्थापना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम था ।

वारकरी पंथ

महाराष्ट्र में वारकरी पंथ की नींव किसने डाली यह कहना कठिन है । इस पंथ की दो प्रमुख विशेषताएँ है,

१. विट्ठल भक्ति

२. पंढरी की वारी (यात्रा)

ये दोनों बातें ज्ञानदेव से पूर्व भी प्रचलित थीं । ज्ञानदेव के माता पिता पंढरी की वारी करते थे इसका उल्लेख नामदेव ने भी किया है । इसके अतिरिक्त द्वारकाधीश कृष्ण भक्त पुंडलिक से मिलने उसके घर आये थे और पुंडलिक के कहने से वे अट्ठाईस युगों तक ईंट पर खड़े रहे इस बात का उल्लेख भी नामदेव ने किया है

युगे अट्ठावीस विठेवरी उभा ।

इससे इस बात की पुष्टि होती है कि विट्ठल की पूजा ज्ञानेश्वर जी के पूर्व भी होती थी ।

संत ज्ञानेश्वर के व्यक्तित्व के कई आयाम हैं किन्तु वारकरी या भागवत संप्रदाय को संगठित करने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । स्वयं भी समाज से बहिष्कृत होने के कारण उन्होंने समाज के विभिन्न तबकों का गहराई से अध्ययन किया । उस जुमाने में बहुजन समाज अर्थात निम्नवर्ग के लोगों को धर्म, तत्वज्ञान, अध्यात्म आदि के ज्ञान से वंचित कर दिया गया था । बहुजन समाज के लोगों की आत्मिक उन्नति के संबंध में गीता में लिखा गया ज्ञान संस्कृत में होने के कारण वह ज्ञान बहुजन समाज के लिए दुरूह था । ज्ञानेश्वरजी ने गीता पर मराठी में टीका लिख कर वह ज्ञान बहुजन हिताय कर दिया ।

ज्ञानदेव जी के ही काल में पंढरपुर में नामदेव नाम के एक भक्त पैदा हुए । वे सगुण उपासक थे और जाति के दर्जी थे । उन्होंने ज्ञानदेव के जीवन काल में तथा उनकी समाधि के चौवन वर्ष बाद तक इस पंथ का प्रचार प्रसार किया । शतकोटि तुझ गाईन अभंग यह प्रतिज्ञा कर उन्होंने अपने अभंगों के माध्यम से विट्ठल का मिथक तैयार किया और कीर्तनों के माध्यम से उसे समाज में प्रसारित किया । इसका यह परिणाम हुआ कि अनेक संतों ने विट्ठल भक्ति पर अगणित रचनाएँ कीं और नामदेव की शतकोटि अभंगों की प्रतिज्ञा पूरी की ।

ज्ञानदेव के लगभग पौने तीन सौ वर्ष बाद एकनाथ ने ज्ञानदेव के उपदेशों को नये प्रकाश में देखा । उन्हें प्रेम से ज्ञान का एका भी कहते हैं । भागवत के एकादशवें स्कंद पर उन्होंने विस्तृत टीका लिखी और ज्ञानदेव ने गीता के आधार पर जिस दर्शन का आविष्कार किया था उसी दर्शन को भागवत के आधार पर प्रतिपादित किया । इससे गीता के साथ साथ भागवत भी वारकरी संप्रदाय में प्रतिष्ठापित हो गया । उनका साहित्य सामाजिक चेतना से विशेष रूप से प्रभावित है ।

एकनाथ के पचहत्तर वर्ष बाद तुकाराम का अवतार हुआ । उन्हें नामयाचा तुका भी कहा जाता है । इन्होंने भी अपने कीर्तनों के माध्यम से वारकरी तत्त्व का प्रचार प्रसार किया । इन्होंने ज्ञानदेव, नामदेव तथा एकनाथ के साहित्य का गहराई से अध्ययन किया था । इन तीनों संतों के उपदेश भले ही एक जैसे लगते हों लेकिन उनमें थोड़ा अंतर है । ज्ञानदेव का आविष्कार आत्माभिमुख है, नामदेव का परमात्माभिमुख तथा एकनाथ का समाजाभिमुख है । तुकाराम इन तीनों का संगम है । तुकाराम के पश्चात इस पंथ का विकास रुक गया और केवल विस्तार होता रहा । तुकाराम कलश बन गये । संत तुकाराम की शिष्या संत बहिणाबाई ने अनेक अभंगों की रचना की । उपर्युक्त तीनों संतों के कृतित्व पर उन्होंने अपने अभंग में इस प्रकार प्रकाश डाला है ।

सन्तकृपा झाली, इमारत फला आली,

ज्ञानदेव रचिला पाया, उभारिलें देवालया,

नामा तयाचा किंकर, तेणें केला हा विस्तार ।

जनार्दनी एकनाथा, स्तंभ दिला भागवत,

भजन करा सावकाश, तुका झालासे कलस ।

(महाराष्ट्र पर संतों की कृपा हुई और उन्होंने यहाँ एक अपूर्व मंदिर बनवाया । इस मंदिर की नींव संत ज्ञानेश्वर ने रखी, विस्तार नामदेव ने किया, संत एकनाथ ने इस मंदिर के स्तंभ बनवाये और संत तुकाराम ने इस पर कलश चढाया) ।

वारकरियों के लिए वारी (यात्रा) करना सबसे महत्त्वपूर्ण नित्यकर्म है । वर्ष में कम से कम एक बार ये लोग पंढरपुर जा कर विट्ठल का दर्शन करते हैं इसलिए पंढरपुर को किसी तीर्थक्षेत्र का महत्त्व प्राप्त हो गया है । काशी, रामेश्वर आदि तीर्थों की यात्रा जीवनकाल में एक बार और वह भी वृद्धावस्था में की जाती हैं किन्तु पंढरपुर की यात्रा वर्ष में कम से कम एक बार करनी पड़ती है । विट्ठल से भेंट करना यही इस यात्रा का उद्देश्य होता है । यह भेंट उसी प्रकार है जिस प्रकार काई बेटी वर्ष में एक बार माँ से मिलने जाती है । मायके में माँ के सान्निध्य में कुछ दिन रहने से जिस प्रकार उसे ससुराल में होने वाले कष्टों को सहन करने का धैर्य प्राप्त होता है, उसी प्रकार वारकरी को वारी करने के बाद सांसारिक दुःखों का का मुकाबला करने का सँबल प्राप्त होता है। दोनों ने उत्तर भारत की यात्रा की और यात्रा के दौरान वहाँ भक्ति मार्ग का प्रचार किया। नामदेव से उत्तर भारत के संतों ने स्फूर्ति प्राप्त की, महाराष्ट्र के विट्ठल समस्त भारत के विट्ठल हो गये ।

ज्ञानदेव और नामदेव के समय मानों अध्यात्म के क्षेत्र में जनतंत्र शुरू हो गया था । ज्ञानदेव के उपदेश के अनुसार अब अध्यात्म के क्षेत्र में सभी वर्णों का समान रूप से अधिकार मान लिया गया । अब स्त्री, शूद्र और पापी भी ईश्वर की भक्ति करने पर मोक्ष के अधिकारी हो गये । इसके फलस्वरूप प्रत्येक जाति में संत पैदा हुए । नामदेव जाति से दर्जी थे । ज्ञानेश्वर के सम्प्रदाय में अनेक जाति के संत एकत्र हुए जिनमें नरहरी सोनार, सेनानाई, गोरा कुम्भार, चोखोबा (चोखा महार) आदि प्रसिद्ध हैं । इनमें प्राय: सभी संतों ने अपनी हीन जाति का उल्लेख किया है । सेना नाई कहता है हे पांडुरंग, मैं जाति का नाई हूँ । चोखोबा तथा कान्होपात्रा ने नितांत करुण अभंग लिखे हैं

जोहार मायबाप जोहार । तुमच्या महाराचा मी महार ।।

बहु भुकेला जाहलों । तुमच्या उष्टयासाठीं आलों । ।

बहु केली आस । तुमच्या दासाचा मी दास । ।

चोखा म्हणे पाटी । आणसी तुमच्या उष्टयासाठीं । ।

(मैं दासों का दास हूँ अछूत से भी अधिक अछूत हूँ । जूठा खाना मेरा धर्म है । मैं आपके दरवाजे पर खड़ा रहने वाला दास हूँ) ।

संचित माझें खोटें मज असे ग्वाही ।

तुज बोल नाहीं देवराया ।।

(मेरा विश्वास है कि मेरा भाग्य ही खराब है, मैं तुम्हें दोष नहीं देती ।)

विट्ठल सम्प्रदाय या भागवत सम्प्रदाय महाराष्ट्र में बहुत प्रसिद्ध है । आषाढ़ या कार्तिक शुक्ल एकादशी को पंढरी की वारी करना आवश्यक माना गया । इसीलिए इसे वारकरी पंथ भी कहते हैं ।

मराठी भागवत सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रंथ ज्ञानेश्वरी है । ज्ञानेश्वर के चांगदेव पासष्ठी तथा अमृतानुभव भी प्रसिद्ध ग्रंथ हैं । सन् १२९६ में ज्ञानेश्वर का अवतार कार्य समाप्त हो गया और इसी के साथ महाराष्ट्र का स्वातंत्र्यसूर्य अस्त हो गया ।

डॉ० हेमंत इनामदार के अनुसार, ज्ञानदेव ने अपने निरूपण में सगुण और निर्गुण तथा द्वैत और अद्वैत का अपूर्व सामंजस्य स्थापित किया है । इस तरह उन्होंने आराधना के विभिन्न पंथों और मतभेदों का विरोध मिटा दिया । ज्ञानदेव ने पहली बार यह प्रतिपादित किया कि भगवान और भक्ति का नाता प्रियतम प्रियतमा की कामुक वृत्ति पर आधारित नहीं होता । वारकरी भक्ति की धारणा है कि भक्तों के लिए विठुमाता से प्रेम धाराएँ फूट पड़ती है जैसे शिशु के मुँह मारने से माँ के स्तनों में दूध उतर आता है । जनाबाई का कहना है कि बालगोपालों को साथ ले कर घूमने वाला विठोबा स्नेहशील पिता है । भानुदास मानते हैं कि ममतामयी माँ जीवन की कांति है । वह भक्तों का प्रेम निभाती है । तुकाराम कहते है कि जब स्वयं विट्ठल हमारी माँ है तो भला हमें किस चीज की कमी है? इस प्रकार मातृभक्ति और वात्सल्य रस में पोर पोर भीगी हुई वात्सल्य भक्ति भागवत् धर्म को ज्ञानदेव का अमूल्य उपहार है । ज्ञानदेव कहते हैं कि उत्तम कुल, उच्च जाति अथवा श्रेष्ठ वर्ण ये बातें निरर्थक हैं । जीवन की वास्तविक सार्थकता अनन्य भाव से ईश्वर को अर्पित हो जाने में है । ज्ञानदेव के भक्तिसम्प्रदाय में भागवत जैसे ब्राह्मण से लेकर चोखोबा जैसे शूद्र तक सभी को समान दर्जा प्राप्त है । नामदेव ने एक ओर ज्ञानदेव का चरित्र लिखा और भागवत भक्तों को उपदेश दिया, दूसरी ओर चोखोबा की अस्थियाँ लाकर पंढरपुर के महाद्वार के सामने उनकी समाधि बनायी और दासी जनी को (जनाबाई को) अपने परिवार के साथ परमार्थ का मार्ग दिखाया । सामाजिक जीवन में गीताप्रणीत चातुर्वर्ण्य का प्रतिपालन करते हुए मराठी संतों ने धर्म के मामले में सामाजिक समता का ही दृष्टिकोण रखा । संत जातिभेद का पालन करते हुए भी जातिभेद से बचे रहे । अपने आचरण से उन्होंने सिद्ध कर दिया कि अपनी देहरी के भीतर तुम चाहे जिस धर्म का पालन करो किन्तु भक्ति के प्रांत में वर्ण व्यवस्था का कोई मूल्य नहीं है ।

सोलहवीं शताब्दी में पैठण के संत एकनाथ ने ज्ञानेश्वरी का पुनरुद्धार किया तथा भागवत धर्म को गति प्रदान की । एकनाथ ने ज्ञानेश्वर, नामदेव के कार्य को संपन्न किया । संत तुकाराम जनता के अत्यंत प्रसिद्ध सत्कवि या भक्त हुए । उन्होंने ज्ञानेश्वर के तत्वज्ञान तथा भक्ति विचारों को गाँव गाँव तक पहुँचाया । ग्यानबा तुकाराम शब्द से महाराष्ट्र संस्कृति का यथार्थ बोध होता है । डॉ० दिवाकर कृष्ण कहते हैं महाराष्ट्र में संत तुकाराम के अभंग जनता के गले का हार हैं।

महाराष्ट्र में समर्थ संप्रदाय के प्रवर्त्तक स्वामी समर्थ रामदास का विशिष्ट योगदान है । तत्कालीन महाराष्ट्र के राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में स्थ एक अलग जीवनदृष्टि स्वीकार की । उनके साहित्य ने लोकजीवन में मनोधैर्य, स्वाभिमान एवं प्रतिकार करने की शक्ति जगायी । उन्होंने समाज की तत्कालीन आवश्यकता को ध्यान में रख कर कृष्ण के मुकाबले धर्नुधारी राम की पर बल दिया । उन्होंने हनुमान की उपासना का भी प्रचार किया । उन्होंने हनुमानजी के मंदिरों की स्थापना कर शक्ति की उपासना का वातावरण उत्पन्न किया ।

सभी संतों ने ज्ञानेश्वर, नामदेव आदि संतों के ही तत्त्व को प्रतिपादित दया, क्षमा और शांति यही सच्चा धर्म है इस सिद्धान्त को सभी संतों न स्वीकार किया हैं।

आधुनिक काल में गजानन महाराज तथा शिर्डी के साईंबाबा का प्रादुर्भाव किसी अवतार से कम न था । गजानन महाराज ने कलियुग के लोगों को गलत रास्ते पर जाने से परावृत करने तथा उन्हें परमार्थ के मार्ग पर ले जाने का महान कार्य किया । उनकी कर्मभूमि शेगाँव अब एक तीर्थस्थान ही हो गया है और लोग ईश्वर के रूप में उनकी पूजा करते हैं ।

शिर्डी के साईबाबा हिन्दू और मुसलमान दोनों ही संप्रदायों के देवता हैं । उन्होंने अपना कोई संप्रदाय नहीं बनाया और न किसी को गुरुमंत्र ही दिया । उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को अपने अपने उपास्य देवता को भजने का उपदेश दिया ।

 

अनुक्रमणिका

1

भक्त पुंडलिक

1

2

संत ज्ञानेश्वर

8

3

संत नामदेव

20

4

संत गोरोबा

32

5

संत जनाबाई

45

6

संत कान्होपात्रा

50

7

संत श्री सेनामहाराज

64

8

संत चोखामेळा

78

9

संत भानुदास

92

10

संत एकनाथ

108

11

संत तुकाराम

121

12

संत बहिणाबाई

135

13

संत रामदास

149

14

संत गजानन महाराज

161

15

शिर्डी के साईंबाबा

174

 

 

 

 

 

 

 

Sample Pages









Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at [email protected]
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through [email protected].
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy

Book Categories