बहुत प्राचीन काल से कश्मीर ऋषि-भूमि और शारदा पीठ के नामों से प्रसिद्ध है। इस के ये नाम तब भी सार्थक थे और घब भी है। कहीं कहीं इसे भूस्वर्ग भी कहते हैं, किन्तु हमें इस की अपेक्षा पहले दो नाम ही अधिक प्यारे हैं। इस प्रान्त के निवासी सदा ने शारदा अर्थात् सरस्वती के उपासक होते बाये है। डल सरोवर के तटों के घास पास और अन्य स्थानों पर जो बहुत सुन्दर जगहें हैं वे बड़े बड़े कश्मीरी ऋषियों, कवियों और ताकिकों के आश्रमों तथा गुरुकुलों ने सुशोभित होती थीं। वे लोग वहां प्रकृति देवी के खुले प्रांगन में निवास करते थे और इस के तत्त्वों धोर रहस्यों से पूर्ण रूप में बभिज्ञ हो कर ब्रह्म-ज्ञान के पारंगत हो जाते थे। इस प्रकार जहां वे कालान्तर में परमन्यद को प्राप्त कर के अपना व्यक्तिगत लाभ उठाते थे वहां उन्हों ने लोकोपकार की बात को भी नहीं भुलाया। वे एक विशाल साहित्य अपने पीछे छोड़ गये हैं घोर कहना न होगा कि वह साहित्य अब सारे साहित्यिक संसार की बहुमूल्य घोर पुनीत सम्पत्ति बन गई है। इस साहित्य के सागर में डुबकी लगा कर न केवल लौकिक ज्ञान और सुख चाहने वाले लोग ही लाभ उठा सकते हैं वरन् पारमार्थिक लाभ और उन्नति के कर घपने जीवन को सार्थक बना इच्छुक भी इस में गोता लगा सकते हैं।
चिरकाल ने राजनीतिक, धार्मिरु घौर सामाजिक क्रान्तियों के होते रहने से कश्मीर के इतिहास ने जो पलटा खाया उस के फलस्वरूप यहां के उन ऋषि-आश्रमों की संख्या घटने लगी, जिन में यह प्रलौकिक ज्ञानोपदेश का स्रोत सदा बहा करता था, जिस से मसंख्य जिज्ञासुयों की पिपासा शान्त हो जाती थी। "जो स्थान पहले ऋषियों के निवासस्थान और पारमाथिक ज्ञान के केन्द्र हुआ करते थे वे अब विधाम स्थल और सैर करने के स्थान बनने लगे । अब लोग वहां प्राध्यात्मिक लाभ के लिये नहीं बल्कि लौकिक सुख की प्राप्ति की इच्छा से जाने लगे।
'सांबपंचाशिका' पाध्यात्मिक विषय का एक बहुत ही प्राचीन, महत्वपूर्ण मोर सारगर्मित ग्रंथ है। इसमें वित्-सूर्य की बहुत सुन्दर रूप में स्तुति की गई है घोर उसको महिमा का बगान किया गया है। कुछ श्लोकों में बड़े रोचक, पनूठे धोर विलक्षण रूप में उद्धार के लिए उस से बिनती की गई हैं। इसके रचयिता भगवान् श्रीकृष्ण के सुपुत्र श्री साम्ब जो है। यह बात न केवल पुस्तक के नाम से विवित होती है बल्कि इस की पुष्टि कई घन्य बातों से भी होती है। साम्बपञ्चाशिका का जो छपा हुषा संस्करण इस समय मिलता है उसके पहले पृष्ट पर दी गई पाद-टिप्पणी में संपादकों ने वाराह-पुराण से दो श्लोक इसी बात को सिद्ध करने के लिए उद्धत किये हैं। पाठकों की जानकारी के लिए वे नीचे दिये जाते हैं:-
'ततः साम्बो महाबाहुः कृष्णाज्ञप्तो ययो पुरोम् । मथुरां मुक्तिफलदां रवेराराधनोत्सुकः ।।
'साम्ब पंचाशकैः श्लोकैर्वेदगुह्यपदाक्षरैः । यत्स्तुतोऽहं त्वया वीर तेन तुष्टोऽस्मि ते सदा ।।'
(वाराह पुराण, १७१ अध्याय)
इन श्लोकों से प्रतीत होता है कि साम्ब जी ने श्रीकृष्ण जी के कहने पर 'साम्बपंचाशिका' नामक सूर्य-देवता की स्तुति रची। इसी पुस्तक के दूसरे पृष्ठ पर पहले इलोक की प्रवतरणिका में घौर छब्बीसवें पृष्ठ पर बावनवें श्लोक की टीका में टीकाकार राजानक क्षेमराज ने भी लिखा है कि भगवान् कृष्ण के पुत्र सांब जी ही इस ग्रंथ के रचयिता हैं।
श्री सांब जी ने किस उद्देश्य से इस ग्रंथ की रचना की, उन्हों ने कोई घोर ग्रंथ भी लिखा या नहीं, इन बातों का निश्चित रूप में कुछ पता नहीं चलता। संस्कृत के अन्य प्राचीन कवियों की मान्ति उन्हों ने अपने विषय में कहीं कुछ नहीं कहा है। कोई ऐसी ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं है जो इन बातों पर प्रकाश डाल सके। किन्तु इस संबंध में जनश्रुतियों के घाधार पर जो कथा सुनी जाती है वह यहां लिखी जानी है। एक बार साम्ब जी को उदर का रोग हुषा । जब सामान्य रीति से चिकित्सा करने पर उनका रोग ठीक न हुषा तो अपने पिता भगवान् कृष्ण ने उन्हें सूर्य की स्तुति करने को कहा। इस पर साम्ब जी ने भौतिक सूर्य को छोड़ कर चित्-सूर्य की स्तुति करने का निश्चय किया। उनके इसी निश्चय के फल-स्वरूप 'साम्बपंचाशिका' का आविर्भाव हुआा। कहा जाता है कि इस पुस्तक के लिखने पर उनका रोग ठीक हुषा ।
'सांबपंचाशिका' ऐसे गूढ़ विषय के ग्रंथ का समझता सर्व-साधारण के लिए कठिन है। गौभाग्य से कश्मीर के प्रसिद्ध लेखक और टीकाकार राजानक श्री क्षेमराज ने इस पर एक उत्तम और विस्तृत टीका संस्कृत में लिखी है। इस समय इस पुस्तक का जो छपा हुम्रा संस्करण उपलब्ध है उसमें यही टीका दी गई है। किन्तु भाषा-टीका सहित इसका कोई संस्करण घब तक नहीं छपा है, इस लिए इसके घावश्यकता प्रतीत हुई। फलतः यह पाठकों की भेंट प्रकाशित करने की किया जाता है।
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