(1) हुजूर राधास्वामी साहब ने यह वाणी अपनी ज़बान मुबारक से प्रमाई। अव्वल इरादा हुजूर साहब' का वास्ते बनाने वाणी के न था, पर कोई कोई सत्संगी और सत्संगिनों ने बहुत हठ करके अर्ज की तब उनकी अर्ज को कबूल फर्माया ।
(2) हुजूर साहब शहर आगरा मुहल्ला पन्नी गली में सम्वत् 1875 विक्रम भादों महीने की शुरू की अष्टमी के दिन वक्त साढ़े बारह बजे रात के प्रगट हुए और अंग्रेजी हिसाब से 25 अगस्त सन् 1818 ई0 थी, और 6-7 वर्ष की उम्र से सब से ऊँचे परमार्थ का समझाना और बुझाना खास खास लोगों को मर्द और औरत से शुरू किया।
(3) हुजूर साहब का कोई गुरू नहीं था और न किसी से उन्होंने परमार्थ का उपदेश लिया, बल्कि आप ही अपने वालिदैन को और जो साधु कि उनकी पहचान वाले मकान पर आते थे, उनको हर तरह से परमार्थ के समझाने में कोशिश करते रहे।
(4) करीब पन्द्रह वर्ष के अपने मकान के एक कोठे में जो अन्दरून दूसरे कोठे के था, बैठकर अभ्यास सुरत शब्द योग का करते रहे, यहाँ तक कि अक्सर औकात दो-दो, तीन-तीन रोज तक बाहर नहीं निकलते थे और न इस अरसे में हाजात जरूरी की तरफ तवज्जह होती थी।
(5) विक्रमी सम्वत् 1917 बसंत पंचमी के दिन मुताबिक जनवरी सन् 1861 ई0 के मुवाफिक अर्जी और प्रार्थना बाजे सत्संगी और सत्संगिनों के जो ज्यादा एक वर्ष से वास्ते जारी फर्माने आम सत्संग के हठ करके खिदमत में अर्ज कर रहे थे, अपने मकान पर बयान संत मत और उसका उपदेश परमार्थी लोगों को फरमाना शुरू किया और यह सत्संग 17 वर्ष तक बराबर रात दिन जारी रहा। इस अरसे में क्रीब तीन हजार मर्दों व औरतो ने, बहुत से कौम हिन्दू हर मुल्क के और थोड़े मुसलमान और जैनी और सरावगी और कोई कोई ईसाई ने हुजूर साहब से उपदेश संत मत यानी राधास्वामी पंथ का लिया। इनमें से बहुतेरे गृहस्थी थे और करीब दो तीन सौ साधु होंगे। बाजे-2 जिन्होंने अभ्यास शौक के साथ किया, चन्द बार वास्ते दर्शन और इजहार अपने हाल और दरियाफ्त करने हालत और बारीकियों और गुप्त भेद मत मजकूर के आये और अपने अभ्यास की हालत में ताकत और कुदरत और बुजुर्गी हुजूर साहब की और अंतर दया जो उन पर फरमाई देख कर दिल और जान से मौतक्रिद हुए और निहायत प्रीत और प्रतीत चरणों में करने लगे और बाजे जो दुनिया के भोगों में फंस गये और उनसे अभ्यास अच्छी तरह नहीं बना, वह फिर दोबारा हाजिर नहीं हुए। अब आगरे में एक सौ मर्द व औरत इस अभ्यास में लगे हुए हैं और इनमें से करीब चालीस साधु हैं। ये साधु लोग साबिक से भेष लेकर तलाश में परमार्थ के निकले थे और आगरे में पहुँच कर महिमा और सिफ्त हुजूर साहब की सुनकर चरणों में हाजिर हुए और भेद लेकर अभ्यास में लग गये और जब उनको कुछ कुछ रस अभ्यास का मिलने लगा तब अपना क्याम आगरे में रखा और अब ये साधु राधास्वामी बाग में जो शहर से बफासला तीन मील के वाकै है और शहर में जो मकान हुजूर साहब का है वहां चन्द गृहस्थी मर्द व औरत रहते हैं और अपना अभ्यास कर रहे हैं।
(6) राधास्वामी मत को संतमत भी कहते हैं। पिछले वक्तों में यह मत निहायत गुप्त रहा और जो कि इसका अभ्यास शुरू में प्राणायाम के साथ किया जाता था इस सबब से बहुत कम लोग इससे वाकिफ थे और न किसी से अभ्यास बन सकता था क्योंकि प्राणायाम करने में संजम और परहेज़ सख्त दरकार हैं और खतरे भी बहुत हैं और इस सबब से यह काम इस कदर मुश्किल था कि कोई इस में कदम नहीं रख सकता था। अब हुजूर राधास्वामी साहब ने ऐसी सहज जुगत और आसान तरीका सुरत शब्द जोग का अपनी दया से प्रगट किया है कि जो कोई सच्चा शौक रखता होवे तो वह आसानी से उसका अभ्यास कर सकता है ख्वाह वह मर्द होवे या औरत, जवान होवे या बूढ़ा।
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